बकरी पालन प्रायः सभी जलवायु में कम लागत, साधारण आवास, सामान्य रख-रखाव तथा पालन-पोषण के साथ संभव है. इसके उत्पाद की बिक्री हेतु बाजार सर्वत्र उपलब्ध है. इन्हीं कारणों से पशुधन में बकरी का एक विशेष स्थान है.उपरोक्त गुणों के आधार पर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी बकरी को ‘गरीब की गाय’ कहा करते थे. आज के परिवेश में भी यह कथन महत्वपूर्ण है. आज जब एक ओर पशुओं के चारे-दाने एवं दवाई महँगी होने से पशुपालन आर्थिक दृष्टि से कम लाभकारी हो रहा है वहीं बकरी पालन कम लागत एवं समान्य देख-रेख में गरीब किसानों एवं खेतिहर मजदूरों के जीविकोपार्जन का एक साधन बन रहा है.
भारतीय बकरियों की प्रमुख नस्लें (Major Breeds of Indian Goats)
ब्लैक बंगालः इस जाति की बकरियाँ पश्चिम बंगाल, झारखंड, असोम, उत्तरी उड़ीसा एवं बंगाल में पायी जाती है. इसके शरीर पर काला, भूरा तथा सफेद रंग का छोटा रोंआ पाया जाता है. अधिकांश (करीब 80 प्रतिशत) बकरियों में काला रोंआ होता है. यह छोटे कद की होती है वयस्क नर का वजन करीब 18-20 किलो ग्राम होता है जबकि मादा का वजन 15-18 किलो ग्राम होता है.
जमुनापारीः जमुनापारी भारत में पायी जाने वाली अन्य नस्लों की तुलना में सबसे उँची तथा लम्बी होती है. यह उत्तर प्रदेश के इटावा जिला एवं गंगा, यमुना तथा चम्बल नदियों से घिरे क्षेत्र में पायी जाती है. एंग्लोनुवियन बकरियों के विकास में जमुनापारी नस्ल का विशेष योगदान रहा है.
गद्दी: यह हिमांचल प्रदेश के काँगडा कुल्लू घाटी में पाई जाती है. यह पश्मीना आदि के लिए पाली जाती है कान 8.10 सेमी. लंबे होते हैं. सींग काफी नुकीले होते हैं. इसे ट्रांसपोर्ट के रूप में भी प्रयोग किया जाता है. प्रति ब्याँत में एक या दो बच्चे देती है.
बीटलः बीटल नस्ल की बकरियाँ मुख्य रूप से पंजाब प्रांत के गुरदासपुर जिला के बटाला अनुमंडल में पाया जाता है. पंजाब से लगे पाकिस्तान के क्षेत्रों में भी इस नस्ल की बकरियाँ उपलब्ध है. इसका शरीर भूरे रंग पर सफेद-सफेद धब्बा या काले रंग पर सफेद-सफेद धब्बा लिये होता
बारबरीः बारबरी मुख्य रूप से मध्य एवं पश्चिमी अफ्रीका में पायी जाती है. इस नस्ल के नर तथा मादा को पादरियों के द्वारा भारत वर्ष में सर्वप्रथम लाया गया. अब यह उत्तर प्रदेश के आगरा, मथुरा एवं इससे लगे क्षेत्रों में काफी संख्या में उपलब्ध है.
सिरोहीः सिरोही नस्ल की बकरियाँ मुख्य रूप से राजस्थान के सिरोही जिला में पायी जाती है. यह गुजरात एवं राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्रों में भी उपलब्ध है. इस नस्ल की बकरियाँ दूध उत्पादन हेतु पाली जाती है लेकिन मांस उत्पादन के लिए भी यह उपयुक्त है. इसका शरीर गठीला एवं रंग सफेद, भूरा या सफेद एवं भूरा का मिश्रण लिये होता है. इसका नाक छोटा परन्तु उभरा रहता है. कान लम्बा होता है. पूंछ मुड़ा हुआ एवं पूंछ का बाल मोटा तथा खड़ा होता है. इसके शरीर का बाल मोटा एवं छोटा होता है. यह सलाना एक वियान में औसतन 1.5 बच्चे उत्पन्न करती है. इस नस्ल की बकरियों को बिना चराये भी पाला जा सकता है.
विदेशी बकरियों की प्रमुख नस्लें (Major breeds of foreign goats)
अल्पाइन - यह स्विटजरलैंड की है. यह मुख्य रूप से दूध उत्पादन के लिए उपयुक्त है. इस नस्ल की बकरियाँ अपने गृह क्षेत्रों में औसतन 3-4 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है.
एंग्लोनुवियन - यह प्रायः यूरोप के विभिन्न देशों में पायी जाती है. यह मांस तथा दूध दोनों के लिए उपयुक्त है. इसकी दूध उत्पादन क्षमता 2-3 किलो ग्राम प्रतिदिन है.
सानन - यह स्विटजरलैंड की बकरी है. इसकी दूध उत्पादन क्षमता अन्य सभी नस्लों से अधिक है. यह औसतन 3-4 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन अपने गृह क्षेत्रों में देती है.
टोगेनवर्ग - टोगेनवर्ग भी स्विटजरलैंड की बकरी है. इसके नर तथा मादा में सींग नहीं होता है. यह औसतन 3 किलो ग्राम दूध प्रतिदिन देती है.
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संकर नस्ल के बकरे-बकरी रोगों के प्रति कम संवेदनशील होते हैं और इनका मांस भी स्वादिष्ट होता है.
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संकर नस्ल के बकरे-बकरियों का भार छह माह में 25 कि.ग्रा. हो जाता है.
बकरियों की प्रजनन क्षमता
एक बकरी लगभग डेढ़ वर्ष की अवस्था में बच्चा देने की स्थिति में आ जाती है और 6-7 माह में बच्चा देती है. प्रायः एक बकरी एक बार में दो से तीन बच्चा देती है और एक साल में दो बार बच्चा देने से इनकी संख्या में वृद्धि होती है. बच्चे को एक वर्ष तक पालने के बाद ही बेचते हैं.
बकरियों में रोग उपचार
बकरियों में रोग का प्रसार आसानी से और तेजी से होता है. अतः रोग के लक्षण दिखते ही इन्हें तुरंत पशु डाक्टर से दिखाना चाहिए. कभी-कभी देशी उपचार से भी रोग ठीक हो जाते हैं.
बकरी पालन में समस्याएं (Problems in goat rearing)
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हालांकि बकरी गरीब की गाय होती है, फिर भी इसके पालन में कई दिक्कतें भी आती हैं –
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बरसात के मौसम में बकरी की देख-भाल करना सबसे कठिन होता है. क्योंकि बकरी गीले स्थान पर बैठती नहीं है और उसी समय इनमें रोग भी बहुत अधिक होता है.
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बकरी का दूध पौष्टिक होने के बावजूद उसमें महक आने के कारण कोई उसे खरीदना नहीं चाहता. इसलिए उसका कोई मूल्य नहीं मिल पाता है.
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बकरी को रोज़ाना चराने के लिए ले जाना पड़ता है. इसलिए एक व्यक्ति को उसी की देख-रेख के लिए रहना पड़ता है.
परिपक्व होने की आयु : पालन पोषण की उचित दशा में बकरिया लगभग 10-12 माह में प्रौढ़ हो जाती है| बकरियों को 15-18 माह (शरीर का भार 22-25 किलोग्राम होना चाहिए) की आयु में गर्भित करना ठीक रहता है| बकरियों का गर्मी में आने के समय को मदकाल कहते है| बकरियों में मदकाल की अवधि लगभग 30 घंटे (12-36 घंटे) तक होती है| बकरी के मदकाल या गर्मी में आने के लक्षण इस प्रकार है जैसे बकरी का बार बार पूंछ हिलना, बकरे के आस पास चक्कर लगाना, बकरी का बार बार बोलना, दूध उत्पादन कम होना आदि है| रेवड़ (Herd) में 25-30 बकरियों पर एक बकरा काफी होता है| बकरियों में गर्भ काल का औसतन समय 150 (145-155) दिन का होता है| बकरी का जीवन काल 10-12 वर्ष का होता है| बकरी की उत्पादन क्षमता उसके जीवन के 4-6 वर्ष तक की आयु में अधिकतम होती है|
आवास प्रबंधन: बकरियों के रहने के लिए साधारण, सूखे एवं स्वच्छ बाड़े का होना चाहिए|बकरियों के आवास (बाड़े) मुख्तय तीन प्रकार के हो सकते है – 1. पूर्ण खुला बाड़ा 2. अर्द्ध खुला बाड़ा 3. पूर्ण ढका बाड़ा
बकरियों के लिए घर या शेड का निर्माण बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य है. लेकिन हमारे देश में अभी तक इस क्रिया को एक महत्वपूर्ण स्थान नहीं दिया जाता क्योंकि जो लोग छोटे पैमाने पर बकरी पालन करते हैं वे बकरियों के लिए अलग सा घर न बना कर उन्हें अन्य पशुओं के साथ ही ठहरा देते हैं, जिससे उनकी उत्पादकता पर असर स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है. व्यवसायिक रुप से बहुत ही जरुरी हो जाता है कि बकरियों के रहने के लिए एक अलग मानक स्थान तैयार किया जाए और निम्न् बातों का स्पश्ट ध्यान रखा जाए कि:-
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बकरियों के रहने का स्थान जमीन से दो-तीन फीट ऊँचा हो. इसके लिए आप तख्त इत्यादि का इस्तेमाल कर सकते हैं क्योंकि गीलेपन और नमी से बकरियों मे बीमारी पैदा हो जाती है.
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चूहों, मक्खियों, जूँ इत्यादि कीट पतंगे बकरियों के आवास पर बिलकुल नहीं होने चाहिए.
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आवास को हमेशा पूर्व-पष्चिम दिशा में बनवाना चाहिए, ताकि हवा का आवागमन आसानी से हो सके.
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आवास से पानी निकास की उचित व्यवस्था पहले से ही करके रखें, ताकि फार्म की साफ-सफाई के दौरान पानी की निकास बाहर की ओर आसानी से हो सके.
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इस बात की उचित व्यवस्था करें कि बकरियों के आवास में किसी भी प्रकार का पानी चाहे वो बारिश का हो या कोई अन्य, अन्दर न आने पाए. यह पानी बीमारियों की जड़ है.
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आवास में तापमान को स्थिर रखने के लिए उचित प्रबन्ध करें. गर्मी तथा सर्दियों के लिए आवास में तापमान नियंत्रण के लिए उचित प्रबन्ध करें.
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बकरी पालन से सम्बन्धित सभी तरह के उपकरणों, बर्तनों की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें.
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आहार प्रबंधन: बकरी एक जुगाली करने वाला पशु है लेकिन उनकी दूसरे पशुओं के मुकाबले खाने की आदत भिन्न होती है. बकरिया अपने हिलने डुलने वाले ऊपरी होठो तथा जिव्हा की सहायता से वे बहुत छोटी घास एवं पेड़ तथा झाड़ियों की पत्तियों को आसानी से खा जाती है| बकरी अपने शरीर के वजन का 3-4 प्रतिशत तक सूखा पदार्थ आराम से ग्रहण कर सकती है. बकरी के आहार को मुख्य तोर पर दो भागों में बाँटा जा सकता है.
चारा: चारे के रूप में किसान बकरियों को अनाज वाली फसलों से प्राप्त चारा, फलीदार हरे चारा, पेड़-पौधों की पत्तियों का चारा, विभिन्न प्रकार की घास आदि को काम में लिया जा सकता है. इसके अलावा कटहल, नीम, पीपल, पाकड़ की पत्तियों को समय-समय पर हरे चारे के रुप में दे सकते हैं.
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दाना: दाना वह पदार्थ है जिसमें नमी व् क्रूड फाइबर की मात्रा अपेक्षाकृत कम, परन्तु प्रोटीन की मात्रा प्रचुर होती है. दाने अधिक पाचनशील भी होते है. दूध देने वाली बकरियों को जीवन निर्वाह के लिए 150 ग्राम के अतिरिक्त 300-400 ग्राम दाना प्रति किलोग्राम दूध के हिसाब से प्रति बकरी देना आवश्यक है.
लेखक: सुरेंन्द्र कुमार (शोध छात्र)
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