अदरक का प्रकन्द मुख्यतः मसाले के रूप में उपयोग किया जाता है। भारत अदरक उत्पादन में विश्व के अग्रणी देशों में से एक है। भारत के अध्किांश राज्यों में अदरक की खेती की जाती है। जिनमें केरल और मेघालय प्रमुख राज्य है
खेती योग्य जलवायु एवं मिट्टीः अदरक की खेती गर्म और नमीयुक्त जलवायु में अच्छी तरह की जा सकती है। इस की खेती समुद्र तट से 1500 मीटर तक ऊँचाई वाले क्षेत्रों में की जा सकती है। अदरक की खेती वर्षा आधरित और सिंचाई करके भी की जा सकती है। इस फसल की सफल खेती के लिए बुआई से अंकुरण तक मध्यम वर्षा,तक अधिक वर्षा और खुदाई से लगभग एक महिना पहले शुष्क वातावरण अति आवश्यक है। इसकी खेती बालुई चिकनी लाल या लेटेराइट मिट्टी में उत्तम होती है। एक ही खेत में अदरक की फसल को लगातार नहीं बोना चाहिए.
प्रजातियां: अदरक की खेती के लिए विभन्न क्षेत्रों की स्थानीय प्रजातियों जैसे सोलन गिरिगंगा, हिमगिरी, वरदा, महिमा, रजाता, सुप्रभा, सुरूची, सुरभी और नदिया आदि का उपयोग करते हैं.
मौसमः अदरक की बुआई करने के लिए उत्तम समय मध्य अप्रैल से मध्य मई एवं मानसून से पहले की वर्षा होती है। सिंचाई आधरित दशा में फरवरी के मध्य या मार्च के प्रारम्भ में इसकी बुआई की जा सकती है। बुआई से पहले मिट्टी की ऊपरी सतह पर सूखे पत्तों को जलाते हैं जिससे खेत में पहले से मौजूद रोगों में कमी आती है फलस्वरूप उपज अध्कि होती है.
खेती हेतू भूमि की तैयारीः मानसून से पहले वर्षा होने के बाद भूमि को चार या पांच बार अच्छी तरह जोतना चाहिए। लगभग एक मीटर चैड़ी, 15 सैंटी मीटर ऊँची और सुविधनुसार लम्बाई की क्यारियों को तैयार करते हैं। दो क्यारियों के बीच लगभग 50 सैंटी मीटर दूरी होनी चाहिए। सिंचाई आधरित फसल के लिए 40 सैंटी मीटर उठी हुई क्यारी बनाना चाहिए। जिन क्षेत्रों में प्रकन्द गलन रोग तथा सूत्राकृमियांे की समस्या है वहां पारदर्शी प्लास्टिक शीट को 40 दिनों तक क्यारियों पर फैला कर मृदा का सौरीकरण करते हैं।
बुआईः अदरक की बीज प्रकन्द होता है। अच्छी तरह परिरक्षित प्रकन्द को 2.5-5.0 सेंटीमीटर लम्बाई के 20-25 ग्राम के टुकड़े करके बीज बनाया जाता है। बीजों की दर खेती के लिए अपनाये गए तरीके के अनुसार विभिन्न क्षेत्रों के लिए अलग-अलग होती है। बीजों की दर 1500-1800 किलो ग्राम प्रति हैक्टेयर होती है। बीज प्रकन्द को 30 मिनट तक 0.3 प्रतिशत 3 ग्राम लीटर पानीद्ध मैनकोजेब से उपचारित करने के पशचात 3-4 घंटे छायादार जगह में सुखाकर 30 गज 20 सेंटीमीटर की दूरी पर बोते हैं। पंक्तियों की आपस में बीच की दूरी 30 सेंटीमीटर रखना चाहिए। बीज प्रकन्द के टुकड़ों को हल्के गढ्डे खोदकर उसमें रखकर तत्पशचात खाद एफ.वाई.एम.द्ध तथा मिट्टी डालकर समान्तर करना चाहिए.
खाद एवं उर्वरकः बुआई के समय 25-30 टन प्रति हेक्टेयर की दर से अच्छी तरह अपघटित गोबर खाद या कम्पोस्ट को क्यारियों के उपर बिखेर कर अथवा बुआई के समय क्यारियों में छोटे गढ़डे करके उसमें डाल देना चाहिए। बुआई के समय 2 टन प्रति हेक्टेयर की दर से नीम केक का उपयोग करने से प्रकन्ंद गलन रोग तथा सूत्राकृमियों का प्रभाव कम होता है जिससे उपज बढ़ जाती है। अदरक के लिए संस्तुत उर्वरकों की मात्रा 100 किलो ग्राम नाइट्रोजन, 50 किलो ग्राम फास्फोरस और 50 किलो ग्राम पोटास प्रति हेक्टेयर है। इन उर्वरकों को विघटित मात्रा में डालना चाहिए। प्रत्येक बार उर्वरक डालने के बाद उसके उपर मिट्टी डालना चाहिए। जिंक की कमी वाली मिट्टी में 6 किलो ग्राम जिंक प्रति हेक्टेयर, 30 किलो ग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर डालने से अच्छी उपज प्राप्त होती है.
छपनीः मिट्टी के बहाव को भारी वर्षा से बचाने के लिए क्यारियों के उपर हरे पत्तों अथवा खेतों के अन्य अवशेषों की छपनी करना चाहिए। इससे मिट्टी में जैविक तत्वों की मात्रा बढ़ जाती है और फसल काल के बाकी समय आद्रता बनी रहती है। बुआई के समय 10-12 टन प्रति हेक्टेयर की दर से हरे पत्तों से छपनी करना चाहिए। बुआई से 40 और 90 दिनों के बाद घासपात निकालने और उर्वरक डालने के तुरंत बाद 7.5 टन प्रति हेक्टेयर की दर से दोबारा छपनी करनी चाहिए.
घासपातः उर्वरक डालने और झापनी करने से पहले घासपात को निकाल देना चाहिए। घासपात को घनत्व के आधर पर 2-3 बार निकालना चाहिए। पानी के उपयुक्त निकास के लिए नाली बनाना चाहिए ताकि खेतों में पानी जमा न हो सके। बुआई से 40 और 90 दिनों के बाद घासपास निकालने तथा उर्वरकों के डालने के बाद यदि प्रकन्द खुले हुए दिखाई देने लगें तो उनके उपर मिट्टी डालकर ढक देना चाहिए ताकि वह अच्छी तरह वृद्धि कर सकें।
मिश्रित फसल और फसल चक्रः अदरक को सब्जियों के साथ फसल चक्र के रूप में खेती कर सकते हैं। कर्नाटक में नारियल, सुपारी, काफी और संतरों के साथ अन्तर फसल के रूप में अदरक की खेती की जा सकती है। टमाटर, आलू, मिर्च, बैंगन और मूँगफली आदि के साथ अदरक की खेती नहीं करना चाहिए। क्योंकि इन फसलों के पौधे म्लानी रोग के कारक रालस्टोनिया सोलानसीरम के परपोषी होते हैं.
मृदु विगलन रोग एवं प्रबंधन मृदु विगलन अदरक का सबसे अधिक हानिकारक रोग है जिसके कारण सभी रोग बाधा पौधे नष्ट हो जाते हैं। यह रोग पाईथीयम अफानिडरमाटम के द्वारा होता है। दक्षिण पश्चिम मानसुन के समय मिट्टी में नमी के कारण इसका प्रभाव अधिक होता है। इसका प्रभाव सर्वप्रथम आभासी तने के निचले भाग में होता है और फिर यह उपर की तरफ फैल जाता है। संक्रमित तने का निचला भाग पानी को सोख कर प्रकन्द तक पहुंचाता है जिससे यह रोग प्रकन्द में भी लग जाता है। बाद में यह रोग जड़ में भी फैल जाता है। इसके बाहा लक्षणों में पत्तियों के अग्र भाग में पीलापन आ जाता है और यह पीलापन धीरे धीरे पौधे की सारी पत्तियों पर फैल जाता है। जिसके कारण पत्तियाँ सूख कर गिरने लगती है. इस रोग का नियंत्राण करने के लिए भंडारण के समय तथा बुवाई से पहले बीज प्रकन्द को 0.3 प्रतिशत मैन्कोजेब से 30 मिनट तक उपचार करना चाहिए। खेत में पानी का उपयुक्त निकास होना चाहिए। खेत में पानी जमा होने के कारण इस रोग की समस्या और बढ़ जाती है। पानी के निकास के लिए नाली बना कर पानी का निकास अच्छी तरह करना चाहिए। ट्राईकोडरमा हरजियानम के साथ नीम केक एक कि. ग्रा प्रति क्यारी की दर से डालने पर इस रोग को नियंत्रित किया जा सकता है। रोग ग्रसित पौधे को निकाल कर नष्ट कर देना चाहिए और उसके चारों तरफ 0.3 प्रतिशत मैन्कोजेब डालना चाहिए ताकि यह रोग और अधिक न फैले.
सूत्रकृमि नियंत्रण: अदरक को हानि पहुचाने वाले प्रमुख सूत्राकृमि जड़ गाँठ, बोरोयंग तथा जड़ बिक्षित सूत्राकृमि हैं। सूत्राकृमि ग्रसित पौधे के बाहा लक्षणों में पत्तियां पीली पड़ जाती है. पौध बौना रह जाता है तथा दुर्बल होकर सूख जाता है। जड़ विक्षित सूत्रकृमि ग्रसित जड़ में विक्षित निशान पड़ जाते हैं। जड़ गाँठ सूत्रकृमि ग्रसित पौधे की जड़ों में गांठे पड़ जाती हैं जिससे पौधे में जड़ गाँठ रोग हो जाता है। सूत्राकृमियों की उपस्थिति में प्रकन्द गलन रोग बढ़ता है। इसको नियंत्राण करने के लिए प्रकन्द को गरम पानी से ;500 सैं.द्ध 10 मिनट तक उपचार करते हैं। सूत्रकृमि प्रतिरोध्क प्रजाति जैसे आई. आइ. एस. आर. महिमा का उपयोग करना चाहिए.
जैविक खेती
परिवर्तन कालः प्रमाणित जैविक उत्पादन के लिए फसलों को कम से कम 18 महीने जैविक प्रबंधन के अधीन रहना चाहिए जहां अदरक की दूसरी फसल को हम जैविक खेती के रूप में व्यय कर सकते हैं। अगर इस क्षेत्र के इतिहास के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं। जैसे इस भूमि पर रसायनों का उपयोग नहीं किया गया है तो परिवर्तन काल को कम कर सकते हैं। यह जरूरी है कि पूरे फार्म में जैविक उत्पादन की विधि अपनाई गई हो लेकिन ज्यादा बड़े क्षेत्रों के लिए ऐसी योजना बनाएं कि परिवर्तन योजना क्रमबद्ध हो। अदरक की फसल कृषि-बागवानी-सिलवी पद्वति का एक उतम घटक माना जाता है। जब अदरक की नारियल, सुपारी, आम, ल्यूसियाना, रबड़ आदि के साथ खेती करते हैं. तब फार्म की अनुपयोगी वस्तुओं का पुनः उपयोग कर सकते है सब्जी फसलों या अन्य के साथ इसकी खेती करना चाहिए जिससे इस में शक्ति युक्त पोषक तत्व बनते हैं जो कीटों या रोगों से लड़ने में सहायक होते है. यदि मिश्रित फसल की खेती कर रहे है तो ये जरूरी है कि सारी फसलों का उत्पादन जैविक विधि के अनुसार हो। जैविक उत्पादन के खेत को आसपास के अजैविक खेतों से दूषित होने से बचाने के लिए उचित विधि अपनाना चाहिए जो फसलें अलग से बोई जा रही हैं उनको जैविक फसलों की श्रेणी में नहीं रख सकते। बहावदार जमींन में बराबर के खेतों से पानी और रसायनों के आगमन को रोकने के लिए पर्याप्त उपाय करना चाहिए। मिट्टी को पानी से पर्याप्त सुरक्षा देने के लिए गढ्डे को खेत के बीच में बनाते है जिस से पानी का बहाव कम हो जाता है। निचली स्तर की भूमि में गहरे और बड़े गढ्डे खोद कर जल भराव से बचना चाहिए.
प्रबंधन पद्धतियां: जैविक उत्पादन के लिए ऐसी परम्परागत प्रजातियों को अपनाते हैं जो स्थानीय मिट्टी और जलवायु की स्थिति में प्रतिरोध्क या कीटों, सूत्राकृमियों और रोगों से बचाव करने में समर्थ हों। क्योंकि जैविक खेती में कोई कृत्रिम रसायनिक, उर्वरक, कीटनाशकों या कवक नाशकों का उपयोग नहीं करते हैं। इसलिए उर्वरकों की कमी को पूरा करने के लिए फार्म की अन्य फसलों के अवशेष, हरी घास, हरी पत्तियां, गोबर, मुर्गी लीद आदि को कम्पोस्ट के रूप में तथा वर्मी कम्पोस्ट का उपयोग करके मृदा की उर्वरता उच्च स्तर तक बनाते हैं। एफ. वाई. एम. 40 टन प्रति हेक्टेयर और वर्मी कम्पोस्ट 5-10 टन प्रति हेक्टेयर का उपयोग करते हैं तथा 12-15 टन प्रति हेेक्टेयर की दर से 45 दिनों के अन्तराल पर छपनी करते हैं। मृदा परीक्षण के आधर पर फासफोरस और पोटेशियम की न्यूनतम पूर्ति के लिए पर्याप्त मात्रा में चूना, राक फासफेट और राख डालकर पूरा करते है। सूक्ष्म तत्वों के अभाव में फसल की उत्पादकता प्रभावित होती हैं। मानकता सीमा या संगठनों के प्रमाण पर सूक्ष्म तत्वों के स्त्रोत खनिज या रसायनों को मृदा या पत्तियों पर उपयोग कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त ओयल केक 2 टन प्रति हेक्टेयर क्म्पोस्ट या कोयारपिथ 5 टन प्रति हेक्टेयर और अजोस्पिरिल्लम का कल्चर्स और फोसफेट सोलुबिलाइसिंग बैक्टिरिया का उपयोग करके उत्पादकता में वृद्वि करते हैं। जैविक खेती की प्रमुख नीति के अनुसार कीटों और रोगों का प्रबंधन जैव कीटनाशी जैविकनियंत्राण कारकों एवं फाईटोसेनेट्री का उपयोग करके करते है। नीम गोल्ड या नीम तेल ;0.5 प्रतिशत द्ध का 21 दिनों के अन्तराल पर जुलाई से अक्तुबर के मध्य पौधें पर छिड़कने से तना भेदक को नियंत्रित किया जा सकता है। स्वस्थ प्रकन्द का चयन, मृदा सौरीकरण, बीज उपचार और जैव नियंत्रण कारकों जैसे ट्राईकोडरमा या प्स्युडोमोनास को मिट्टी में उचित वाहक मिडिया जैसे कोयारपिथ, कम्पोस्ट, सूखा हुआ गोबर या नीम केक को बुआई के समय नियमित अन्तराल पर डालने से प्रकन्द गलन रोग की रोकथाम की जा सकती है। अन्य रोगों का नियंत्राण करने के लिए प्रति वर्ष 8 कि. ग्रा. प्रति हेक्टेयर की दर से कौपर का छिड़काव करते हैं। जैव कारकों जैसे पोकोंनिया क्लामाईडोस्पोरिया के साथ नीम केक के डालने से सूत्रकृमि का नियंत्राण कर सकते है।
प्रमाणीकरणः जैविक खेती के अन्तगर्त जैविक घटकों की आवश्यकता गुणवत्ता को भौतिक और जैविक प्रक्रियाओं द्वारा बनाए रखते है। इन प्रक्रियाओं में उपयोग होने वाले सारे घटक और कारक प्रमाणित और कृषि आधरित उत्पादित होना चाहिए। अगर प्रमाणित और कृषि आधरित उत्पादित घटक पर्याप्त मात्रा और उच्च गुणवत्ता में उपलब्ध न हों तो विकल्प के रूप से प्रमाणित अजैवित सामग्रियों का उपयोग कर सकते है। जैविक खेती उत्पादकों की जैविक स्थिति का विवरण लेविल पर स्पष्ट अंकित करना चाहिए। बिना सूचना लेविल के जैविक और अजैविक उत्पादकों को एक साथ भंडारण और ढुलाई नहीं करना चाहिए। प्रमाणिकता और लैबलिंग एक स्वतंत्रा निकाय द्वारा करानी चाहिए जो उत्पादक की गुणवत्ता की पूर्णतः जिम्मेदारी लें। भारत सरकार में छोटे और सीमित उत्पादन करने वाले किसानों के लिए देशी प्रमाणित प्रणाली बनाई है। जिस के अतंगर्त एपीडा और मसाला बोर्ड द्वारा गठित प्रमाणित एजेंसियां जो वैध् जैविक प्रमाण पत्रा जारी करती है। इन प्रमाणित एजेंसियों द्वारा निरीक्षकों की नियुक्ति की जाती है जो खेतों पर जाकर निरिक्षण करता है और विवरणों. अभिलेखों को रजिस्टर में लिख कर रखता है। इन अभिलेखों की आवश्कता प्रमाण पत्रा प्राप्त करने के लिए होती है विशेषकर जब पंरपरागत और जैविक दोनों प्रकार की फसल की खेती करते हैं.
खुदाईः बुआई के आठ महीने बाद जब पत्ते पीले रंग के हो जायें और धीरे-धीरे सूखने लगें तब फसल कटाई के लिए तैयार हो जाती है। पौधें को सावधनीपूर्वक फावडे या कुदाल की सहायता से उखाड़ कर प्रंकदों को जड़ और मिट्टी से अलग कर लेते हैं। अदरक को सब्जी के रूप में उपयोग करने के लिए उसे छठवें महीने में ही खुदाई करके निकाल लेना चाहिए। प्रकन्दों को अच्छी तरह धो कर सूर्य के प्रकाश में कम से कम एक दिन सुखा कर उपयोग करना चाहिए। सूखा हुआ अदरक प्राप्त करने के लिए बुआई से आठ महीने बाद खुदाई करते हैं। प्रंकदों को 6-7 घंटे तक पानी में डूबोकर उसको अच्छी तरह साफ करते हैं। पानी से निकाल कर उसको बांस की लकड़ी, जिसका एक भाग नुकीला होता है, से बाहरी भाग को साफ करते हैं। अत्यधिक साफ करने से तेलों के कोशों को हानि पंहुचाते हैं। अतः प्रकन्द को सावधनी पूर्वक साफ करना चाहिए। छिले हुए प्रकन्द को धोने के बाद एक सप्ताह तक सूर्य के प्रकाश में सुखा लेते हैं। अदरक की उपज प्रजाति एवं क्षेत्रा आधरित होती है जहाँ पर फसल उगाई जाती है.
भण्डारणः बीज प्रकन्द को छायादार जगहों पर बने गड्ढों में भण्डारण करते हैं। जब फसल 6-8 महीने की हरी अवस्था में हो तो खेत में स्वस्थ पौधें का चयन कर लेते हैं। बीज प्रकन्द को 0.3 प्रतिशत मैन्कोजेब तथा 0.1 प्रतिशत वैविस्टिन के घोल में 30 मिनट उपचार करके छायादार जगह में सुखा लेते हैं। बीज प्रकंदों को सुविधनुसार गढ्डे बनाकर भंडारण करते हैं। इन गढडों की दीवारों को गोबर से लेप देते हैं। पर्याप्त वायु मिलने के लिए गढ्डों के अन्दर पर्याप्त जगह छोड़ देते है। इन गढ्डों को लकड़ी के तख्ते से ढक देते हैं। इन तख्तों को हवादार बनाने के लिए इनमें एक या दो छेद करते हैं। बीज प्रकन्द को लगभग 21 दिनों के अन्तराल पर देखना चाहिए. मुर्झाये या रोग बाधित प्रकन्द को निकाल कर नष्ट कर देना चाहिए। प्रकंदों को मैदान के छायादार जगह में भी गढ्डे बनाकर भण्डारण किया जा सकता है.
डाॅ हैपी देव शर्मा प्राध्यापक, शाक विज्ञान
डाॅ विपिन शर्मा, रसायन विशेषज्ञ
डाॅ यशवन्त सिंह परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय नौणी सोलन (हिमाचल प्रदेश)
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