
रबी सीजन की सबसे प्रमुख फसल गेहूं की बुवाई शुरू हो गई है. कई जगहों पर इसकी अगेती किस्मों की बुवाई हो भी चुकी है. किसान इस फसल से अधिक मुनाफे की उम्मीद करते हुए इसकी सबसे ज्यादा बुवाई करते हैं. लेकिन गेहूं की फसल में किसानों के लिए जो सबसे बड़ी समस्या उभरकर सामने आती हैं वो भूरा, काला और पीला रतुआ रोग है. हर साल इन तीनों रोगों का गेहूं की फसल में प्रकोप बहुत ज्यादा देखने को मिलता है. इससे गेहूं की पैदावार प्रभावित होती है और गेहूं की खेती करने वाले किसानों को इसका खामियाजा नुकसान के तौर पर झेलना पड़ता है.

लेकिन अगर किसान इन रोगों का सही समय पर पहचान कर लें और समय रहते इस रोग का प्रबंधन कर लें तो इस नुकसान से बचा जा सकता है. इसी समस्या को देखते हुए कृषि जागरण आपके लिए गेहूं में लगने वाले प्रमुख रोग भूरा, काला और पीला रतुआ के लक्षण और बचाव की जानकारी लेकर आया है.
पीला रतुआ
पीला रतुआ एक फफूंदजनित रोग है, जो पत्तियों को पीले रंग में बदल देता है. इसमें गेहूं के पत्तों पर पीले रंग का पाउडर बनने लगता है, जिसे छूने से पाउडरनुमा पीला पदार्थ निकलता है और कई बार हाथ भी पीला हो जाते हैं. पीला रतुआ के लिए 10-20 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त है. 25 डिग्री सेल्सियस तापमान के ऊपर रोग का फैलाव नहीं होता. यह रोग शुरुआत में 10-15 पौधों पर ही दिखाई देती है, लेकिन अगर इसे नियंत्रित ना किया जाएं तो बाद में ये हवा, पानी के माध्यम से पूरे खेत व क्षेत्र में फैल जाता है.
पीला रतुआ रोग के लक्षण
- पीला या धारीदार रतुआ रोग गेहूं की फसल में जनवरी और फरवरी के महीने में लगता है.
- आरम्भिक लक्षण पत्तियों में पीले धारियों के रुप में होती है.
- संवेदनशील प्रजातियों पर पत्तियों के फुंसियां से पीले नारंगी स्पोर फूटकर निकलते हैं.
- छोटे पौधों की पत्तियों में फुंसियों समुह में होते है जबकि परिपक्व पत्तियों में लाइन में होती है जिससे फुंसियां धारीदार दिखाई देती हैं. बाद में पीले नारंगी स्पोर काले रंग के हो जाते है और पत्तियों में लगे रहते हैं.
- धारीदार रतुआ के लक्षण पौध अवस्था से फसल के पकने की अवस्था तक पाया जाता है.
- धारीदार रतुआ की फुंसियां परिपक्व पत्तियों पर आसानी से दिखाई पड़ते हैं, एवं तना रतुआ की अपेक्षा अधिक पीले दिखाई देते हैं.

पीला रतुआ रोग का फैलाव
वैज्ञानिकों की मानें तो ये रोग वातावरण में नमी की मात्रा यानि औसतन 10-20 डिग्री सैल्सियस तापमान होने पर मंडराने लगता है और देखते ही देखते ये रोग फैलने लगता है. आमतौर पर पीला रतुआ रोग नमी वाली क्षेत्रों, छाया, वृक्षों के आसपास, पोपलर व सफेदे के आसपास उगाई गई फसलों में सबसे पहले देखा जाता है. इस रोग के लक्षण ठंडे व नमी वाले क्षेत्रों में ज्यादा देखने को मिलते हैं. हालांकि तापमान के बढ़ने के साथ ही इस रोग का विस्तार भी रुक जाता है लेकिन उससे पहले ही ये रोग पूरे फसल को बर्बाद करने का काम कर देता है.
पीला रतुआ रोग का प्रबंधन
इस रोग के लक्षण दिखाई देते ही फसल में कीटनाशक का स्प्रे करें. इसके लिए प्रोपिकोनाजोल 25 प्रतिशत ईसी 200 मिली प्रति एकड़ को 200 लीटर पानी प्रति एकड़ में मिलाकर 15 दिन के अंतराल पर छिडक़ाव करें. इसके साथ ही क्षेत्र के लिए अनुमोदित नवीनतम रतुआ सहिष्णु प्रजातियां ही चुने. वैज्ञानिकों की मानें तो फसल पर नियमित निगरानी रखें, खासकर उन फसलों की जो वृक्षों के आसपास बोये गए हों. इसके अलावा समय रहते ही किसान भाई निजी कृषि अधिकारी को फसल के रोग के बारे में सुचना दे दें, ताकि समय पर इनको नियंत्रित किया जा सके.
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भूरा रतुआ
भूरा रतुआ गेहूं के सभी रतुआ रोगों मे समान्य रूप से सभी जगह पाए जाने वाला रोग है. इसका प्रकोप लगभग गेहूं उगाने वाले सभी क्षेत्रों में होता है. सामान्यतः भूरा रतुआ से फसलों का नुकसान 10% से कम होता है, लेकिन अनुकूल पारिस्थितियों में 30% तक नुकसान हो सकता है. भूरा रतुआ 15 से 25 डिग्री सेल्सियस तापमान के साथ नमीयुक्त जलवायु में विस्तार करता है.
भूरा रतुआ रोग के लक्षण
- सामान्यतः रोग के लक्षण पत्तियों पर पाये जाते हैं, किन्तु कभी-कभी तनों में भी संक्रमण के लक्षण दिखाई देते हैं.
- इसमें नारंगी से लेकर भूरे रंग के बिखरे हुए धब्बे पत्तियों और तनों पर पाये जाते हैं.
- नारंगी स्पोर आसानी से अलग होकर कपड़े, हाथ या उपकरणों पर लग जाते हैं.
- अत्यधिक संक्रमण की स्थिति में पत्ते सुख एवं मर जाते हैं. फफूंदी के स्पोर हवा के माध्यम से आने के कारण सामान्यतः पत्तियों के ऊपरी सतह पर लक्षण पहले दिखाई पड़ते हैं.
- फसल पकने के साथ-साथ नारंगी यूरेडियोस्पोर काले टेलियोस्पोर में परिवर्तित हो जाते है.
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भूरा रतुआ रोग का प्रबंधन
इस रोग से बचने के लिए फसल चक्र अपनाएं. इसके साथ ही रोग-रोधी किस्म को लगायें. खेत को खरपतवार से मुक्त रखें. बीज का उपचार करें, इसके लिए कार्बेन्डाजिम 50 घुलनशील चूर्ण का 2 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से बीज का उपचार कर बुवाई करें. मैन्कोजेब 75 घुलनशील चूर्ण का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करें. टेबुकोनाजोल 25.9 ई.सी. 1 मिलीलीटर प्रति लीटर की दर से पानी में घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करें.
काला रतुआ
काला या तना रतुआ एक समय में पूरे विश्व में गेहूं का सबसे ज्यादा डराने वाला रोग था. इस रोग से डर के कारण का अंदाजा आप इस बात से आसानी से लगा सकते हैं कि कटाई के 3 सप्ताह पहले बिलकुल स्वस्थ फसल भी इस रोग के प्रकोप होने पर कटाई के समय काले उलझे तनों एवं सिकुड़े दाने बनकर रह जाते हैं. काला रतुआ रोग को लगने के लिए 20 डिग्री सेल्सियस से ऊपर का तापमान और नमी रहित जलवायु आवश्यक है. ये रोग ज्यादातर मुख्य दक्षिणी पहाड़ी क्षेत्रों जैसे की नीलगिरी,पालिनी पहाड़ी क्षेत्र और कुछ हद तक मध्य भारत क्षेत्रो में भी देखा जा सकता है.
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काला रतुआ रोग के लक्षण
- संक्रमण के 7 से 15 दिनों बाद रोग के लक्षण पौधों के सभी हिस्सों में दिखाई पड़ते हैं. परन्तु तना, पर्णच्छद एवं पर्ण सतह पर ज्यादा होते हैं.
- युरेडियल फुसी (पस्च्युल) या सोरी अंडाकार से धुराकार एवं गहरे लाल भूरे (रस्ट) रंग के होते हैं.
- युरेडियल स्पोर पौधे के उपत्वक (एपिडर्मिस) से फूटकर निकलते हैं जो पौधे के उत्तक से घिरे होते हैं.
- अत्यधिक स्पोर निकलने के कारण फुंसी धूधुल से भरा दिखाई पड़ता है एवं छुने से यह स्पोर आसानी से बाहर आ जाते हैं.
- अग्रिम संक्रमण की अवस्था में उसी फुंसी से टेलीओस्पोर बनते हैं जिससे फुंसी गहरे लाल भूरे से काला हो जाता है.
- ज्यादा फुंसी बनने पर तने कमजोर होकर गिर जाते हैं. यह फफूंदी बरबेरी के पौधे पर अपना जीवन चक्र पूर्ण करती है जिसमे रोग के लक्षण बिल्कुल ही अलग होते हैं.
इस रोग का संक्रमण होने पर गहरे रक्ताभ भूरे रंग के फफोले मुख्यतः तने पर उत्पन्न होते हैं. उसके बाद पर्णच्छद व पत्तियों पर भी बन जाते हैं. यह फफोले आपस में मिलकर तने व पत्तियों पर बड़े क्षेत्रों को घेर लेते हैं जिसके परिणामस्वरूप तने कमजोर हो सकते हैं और भारी हवाओं और बारिश में पौधे गिर भी सकते हैं. अगर संक्रमण गंभीर हो जाता है, तो दाने कमजोर व झुर्रीदार बनते जिससे उपज बहुत कम हो जाती है.
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काला रतुआ रोग का प्रबंधन
अनुमोदित नवीनतम प्रजातियां का चयन करें.
एक ही किस्म की बुवाई ज्यादा क्षेत्र में नहीं करें.
खेतों का लगातार निरीक्षण करते रहें और वृक्षों के आसपास उगाई गई गेहूं की फसल पर ज्यादा ध्यान दें.
काला रतुआ रोग के लक्षण नजर आते ही प्रोपीकोनाजोल 25 ई.सी. (टिल्ट) या टेब्यूकोनाजोल 25 ई.सी. का 0.1 प्रतिशत घोल बनाकर छिड़कें. इसके साथ ही रोग के प्रकोप और विस्तार के मद्देनजर दूसरा छिड़काव 10-15 दिन के अंतराल पर कर दें.
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