फसलों में सिंथेटिक कवकनाशी के उपयोग को कम करने व मृदा में रोगजनकों को नियंत्रित करने के लिये के लिए जैविक एजेंटों का उपयोग किया जा रहा है। एफएओ 1988 के अनुसार जैविक एजेंटों जो कि एक सूक्ष्मजीव है जो या तो प्राकृतिक रूप से पाये जाते हैं
जैसे कि बैक्टीरिया, कवक, वायरस और प्रोटोजोआ और आनुवंशिक रूप से संशोधित सूक्ष्मजीव हैं. जो कि कीटों को नियंत्रित करने के लिए उपयोग किया जाता है। प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला ट्राइकोडर्मा एसपी जो एक प्रकार का कवक है। ट्राइकोडर्मा में ऐंटिफंगल गतिविधि पाई जाती है। ट्राइकोडर्मा पादप रोग प्रबंधन में विशेष तौर पर मृदा जनित बीमारियों के नियंत्रण के लिए बहुत की प्रभावशाली जैविक विधि है। ट्राइकोडर्मा एक कवक फफूंद है। यह लगभग सभी प्रकार के कृषि योग्य भूमि में पाया जाता है। मुख्यतया प्राकृतिक वनों में ट्राइकोडर्मा मिट्टी और कृषि योग्य भूमि में पाए जाते हैं। ट्राइकोडर्मा का उपयोग मृदा.जनित पादप रोगों के नियंत्रण के लिए सफलतापूर्वक किया जा सकता है।
हमारे देश में फसलों को बीमारियों से होने वाले कुल नुकसान का 50 प्रतिशत से भी अधिक मृदा. जनित पादप रोग कारकों से होता हैंए जिसका नियंत्रण अन्य विधियों द्वारा सफलतापूर्वक नहीं हो पा रहा है। इसलिए ट्राइकोडर्मा की विभिन्न प्रजातियों द्वारा रोंगों का नियंत्रण जैविक विधि द्वारा प्रभावशाली रूप से किया जाता हैं इनमें से ट्राइकोडर्मा हरजीनियम एवं विरिडी का प्रयोग होता है। मृदाजनित कारकों जैसे राजोक्टोनियाए स्केलेरो, स्केलेरोटीनिया एमैक्रोफोमिना एपीथियम फाइटोफथेरा व फ्यूजेरियम आदि का पूर्ण अथवा आंशिक रूप से विनाश करके उनके द्वारा होने वाली विभिन्न बीमारियों जैसे बीज सड़न आर्द्र मूल विलन अंगमारी एवं म्लानि रो के नियंत्रण में सहायक सिद्ध हुई है।
फसलों में लगने वाले जड़ गलनए उखटाए तना गलन आदि मृदा जनित फफूंद रोगों की रोकथाम के लिए ट्राइकोडर्मा नामक मित्र फफूंद बहुत उपयोगी है। बीजोपचार जड़ोपचार एवं मृदा उपचार में इसका प्रयोग करते हैं. जिससे फसलों की जड़ो के आसपास इस मित्र फफूंद की भारी संख्या कृत्रिम रुप से निर्मित हो जाती है। ट्राइकोडर्मा मृदा में स्थित रोग उत्पन्न करने वाली हानिकारक फफूंद की वृद्धि रोककर उन्हें धीरे-धीरे नस्ट कर देता है। जिससे ये हानिकारक फफूंद फसल की जाड़ों को संक्रमित कर रोग उत्पन्न करने में असमर्थ हो जाती है।
ट्राइकोडर्मा के बायोकेन्ट्रोल तंत्र
ट्राइकोडर्मा प्रतिस्पर्धा के माध्यम से प्रकंद में रोगजनक की वर्दी को कम करता है और इस प्रकार राग के विकास का विकास कम होता है। ट्राइकोडर्मा एएंटीबायोटिक्स और टॉक्सिंस जैसे कि ट्राइकोथेसिन और सेस्काइटरपीन ट्राइकोडर्मिन का उत्पादन करता है. जिसका सीधा असर अन्य जीवों पर पड़ता है। प्रतिपक्ष ;ट्राइकोडर्मा, हाइप या तो मेजबान हाइप या इसके चारों ओर कुंडली के साथ बढ़ता है और विभिन्न लिटिक एंजाइमों जैसे कि चिटिनास ग्लूकेनेज और पेक्टिनेज का स्राव करता है जो मायकोपरैटिस्म की प्रक्रिया में शामिल हो जाता हैं।
उत्पादन विधि
ट्राइकोडर्मा के उत्पादन की ग्रामीण घरेलू विधि में कण्डों यगोबर के उपलोंद्ध का प्रयोग करते हैं। खेत में छायादार स्थान पर उपलों को कूट कूट कर बारिक कर देते हैं। इसमें 28 किलो ग्राम या लगभग 85 सूखे कण्डे रहते हैं। इनमें पानी मिला कर हाथों से भली भांति मिलाया जाता है। जिससे कि कण्डे का ढेर गाढ़ा भूरा दिखाई पड़ने लगे। अब उच्च कोटी का ट्राइकोडर्मा शुद्ध कल्चर 60 ग्राम इस ढेर में मिला देते हैं। इस ढेर को पुराने जूट के बोरे से अच्छी तरह ढक देते है और फिर बोरे को ऊपर से पानी से भिगो देते हैं। समय समय पर पानी का छिड़काव बोरे के ऊपर करने से उचित नमी बनी रहती है। 12 से 16 दिनों के बाद ढ़ेर को फावडे से नीचे तक अच्छी तरह से मिलाते हैं। और पुनः बोरे से ढ़क देते है। फिर पानी का छिड़काव समय समय पर करते रहते हैं।
लगभग 18. 20 दिनों के बाद हरे रंग की फफूंद ढ़ेर पर दिखाई देने लगती है। इस प्राकर लगभग 28 से 30 दिनों में ढे़र पूर्णतया हरा दिखाई देने लगता है। अब इस ढे़र का उपयोग मृदा उपचार के लिए करें। इस प्रकार अपने घर पर सरल व सस्ते व उच्च गुणवत्ता युक्त ट्राइकोडर्मा का उत्पादन कर सकते है। नया ढे़र पुनः तैयार करने के लिए पहले से तैयार ट्राइकोडर्मा का कुछ भाग बचा कर सुरक्षित रख सकते हैं और इस प्रकार इसका प्रयोग नये ढे़र के लिए मदर कल्चर के रूप में कर सकते हैं। जिससे बार बार हमें मदर कल्चर बाहर से नही लेना पडेगा।
उत्पादन हेतु ध्यान में रखने योग्य बातें
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उत्पादन हेतु छायादार स्थान का होना ज़रूरी है। जिससे कि सूर्य की किरणें ढे़र पर सीधी नहीं पड़ें। ढे़र में उचित नमी बनाए रखें।
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25 . 30 डिग्री सेन्टीग्रड़ तापमान का होना ज़रूरी है।
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समय-समय पर ढे़र को पलटते रहना चाहिए।
खेत में प्रयोग करने की विधि
उपरोक्त विधि से तैयार ट्राइकोडर्मा को बुवाई से पूर्व 20 किलो ग्राम प्रति एकड़ की दर से मृदा में मिला देते है। बुवाई के पश्चात भी पहली निराई गुड़ाई के समय पर भूमि में इसे मिलाया जा सकता है । ताकि यह पौधों की जड़ों तक पहुँच जाएं।
बीजोपचारः बुआई से पहले 6 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर प्रति किलोग्राम बीज के हिसाब से मिलाएं।
नर्सरी उपचारः नर्सरी बेड के प्रति 100 एम 2 में 10 . 25 ग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर लगाएं। उपचार से पहले नीम केक और थ्ल्ड का अनुप्रयोग प्रभावकारिता को बढ़ाता है।
कटाई और अंकुर की जड़ डुबानाः 100 ग्राम अच्छी तरह से सड़े हुए थ्ल्ड प्रति लीटर पानी के साथ 10 ट्राइकोडर्मा पाउडर मिलाएं और कटिंग और पौध को रोपण से पहले 10 मिनट के लिए डुबोएं।
मृदा उपचारः हरी खाद के लिए सन हेम्प या ढैंच को मिट्टी में बदलने के बाद प्रति किग्रा में 5 किलोग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर लगाएं। या 100 किलोग्राम खेत की खाद में 1 किलो ट्राइकोडर्मा फार्मूलेशन मिलाएं और इसे 7 दिनों तक पॉलीथिन से ढक दें। पानी के साथ ढेर को छिड़कें। मिश्रण को हर 3.4 दिनों के अंतराल में घुमाएं और फिर क्षेत्र में प्रसारित करें।
पादप उपचारः एक लीटर पानी में 10 ग्राम ट्राइकोडर्मा पाउडर के साथ तने क्षेत्र के पास की मिट्टी को डुबोएं
ट्राइकोडर्मा के लाभ
रोग नियंत्रणः ट्राइकोडर्मा एक शक्तिशाली बायोकंट्रोल एजेंट है और मिट्टी जनित रोगों के लिए बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाता है। यह विभिन्न जेनेराए अर्थात् रोगजनक कवक के खिलाफ सफलतापूर्वक उपयोग किया गया है। फुसैरियमए फाइटोपथाराए स्केलेरोटिया आदि।
प्लांट ग्रोथ प्रमोटरः ट्राइकोडर्मा स्ट्रेन फॉस्फेट और माइक्रोन्यूट्रिएंट्स को घोलता है। पौधों के साथ ट्राइकोडर्मा उपभेदों के आवेदन से गहरी जड़ों की संख्या बढ़ जाती हैए जिससे पौधे की सूखे का विरोध करने की क्षमता बढ़ जाती है.
रोग के जैव रासायनिक तत्वः ट्राइकोडर्मा उपभेद पौधों में प्रतिरोध को प्रेरित करने के लिए जाने जाते हैं। ट्राइकोडर्मा द्वारा उत्पादित यौगिकों के तीन वर्ग और पौधों में प्रतिरोध को प्रेरित किया जाता है। ये यौगिक पौधे की खेती में एथिलीन उत्पादनए हाइपरसेंसिटिव प्रतिक्रियाओं और अन्य रक्षा संबंधी प्रतिक्रियाओं को प्रेरित करते हैं।
ट्रांसजेनिक पौधेः ट्राइकोडर्मा से एंडोसाइटिनज जीन जो कि तंबाकू और आलू के पौधों में फंगल विकास के लिए उनके प्रतिरोध में वृद्धि हुई है। चयनित ट्रांसजेनिक रेखाएं फोलियर रोगजनकों जैसे अल्टरनेरिया अल्टरटाटा। सोलानी और बोट्रीटिस सिरेरिया के साथ-साथ मृदा जनित रोगजनक रेजेक्टोनिया एसपीपी के प्रति अत्यधिक सहिष्णु हैं।
बायोरेमेडिएशनः ट्राइकोडर्मा उपभेद मिट्टी के बायोरेमेडिएशन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जो कीटनाशकों और शाकनाशियों से दूषित होते हैं। वे कीटनाशकों की एक विस्तृत श्रृंखला को नीचा दिखाने की क्षमता रखते हैं. ऑर्गेनोक्लोरिन ऑर्गनोफोस्फेट्स और कार्बोनेट।
ट्राइकोडर्मा उपज के साथ उपज की गुणवत्ता अंकुरण दर शूट और रूट लंबाई व वृद्धि में सहायक होता है व नाइट्रोजन फिक्सिंग में सहायक होता है
सावधानियां
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सूखी मिट्टी में ट्राइकोडर्मा का उपयोग न करें।
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मृदा में ट्राइकोडर्मा का उपयोग करने के 4 .5 दिन बाद तक रासायनिक फफूंदीनाशक का उपयोग न करें।
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ट्राइकोडर्मा के विकास एवं अस्तित्व के लिए उपयुक्त नमी बहुत आवश्यक है।
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ट्राइकोडर्मा उपचारित बीज को सीधा धूप की किरणों में न रखें
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ट्राइकोडर्मा द्वारा उपचारित गोबर की खाद; फार्म यार्ड मैन्योरद्ध को लंबे समय तक न रखें।
ट्राइकोडर्मा उपयोग के तरीकों की अनुशंसा
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ट्राइकोडर्मा बीज या मेटाक्सिल या थाइरम के साथ उपयोग कर सकते हैं।
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टैंक मिश्रण के रुप में रासायनिक फफूंदीनाशक के साथ मिलाया जा सकता है।
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ट्राइकोडर्मा कार्बनिक खाद के साथ उपयोग कर सकते हैं। कार्बनिक खाद को ट्राइकोडर्मा राइजोबियम एजोस्पाईरिलियमए बेसीलसए सबटीलिस फास्फोबैक्टिरिया के साथ उपयोग कर सकते हैं।
ट्राइकोडर्मा के उपयोग हेतु फसलों की संस्तुतिः
ट्राइकोडर्मा सभी पौधे व सब्जियों जैसे मिर्च, आलू, प्याज, मूंगफली, मटर, सूरजमुखी, हल्दी, फूलगोभी एक पास तम्बाकू, सोयाबीन, राजमा, चुकन्दर, बैंगन, केला, टमाटर, आदि के लिये उपयोगी है।
लेखक: अनीता मीणा, नीरुपमा सिंह, जीतेन्द्र कुमार, माधुरी मीना एवं नीतू मीना
भाकृअनुप केन्द्रीय शुष्क बागवानी संस्थान बीछवाल बीकानेर
भाकृअनुप भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान नई दिल्ली
डॉल्फिन पीजी इंस्टीट्यूट ऑफ बायोमेडिकल एंड नेचुरल साइंस देहरादून
Email - [email protected]
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