उर्दू अदब में मीर, ग़ालिब से लेकर अहमद फराज तक कई बड़े शायर हुए लेकिन मुनीर नियाजी की शख्सियत सबसे अलहदा और बेमिसाल थी. अपने अकेलेपन को जिस तरह से उन्होंने अल्फाजों में समेटा वह कमाल उनके अलावा कोई और शायर नहीं कर सकता था. वे उदासियों में से क्लासिक नज्म़ें और गज़लें रचने में माहिर थे. इसकी बानगी उनके इस शेर से देखी जा सकती है.
"लाखों शक्लों के मेले में तन्हा रहना मेरा काम
भेस बदलकर देखते रहना तेज हवाओं का कोहराम"
इसी तरह एक और शेर,
''बरसों से इस मकान में आया नहीं कोई
अंदर है इसके कौन ये समझा नहीं कोई''
वे अकेले थे लेकिन सत्ताधीशों से हमेशा सवाल करते रहे. उनकी शायरी के जो शब्द होते थे वे ऐसे होते थे, जैसे वे इन अल्फाजों को आम लोगों के दुख दर्द की गलियों से घूमकर लाये हों. यही वजह है कि उनकी ग़ज़लें और नज़्में सुनने वालों के दिल में सीधे उतर जाती है. यही बात मुनीर को मुनीर बनाती थी. वे जब नज़्में सुनाते थे तो सुनने वालों की अक्सर आँखें भर आती थी. मंटों की तरह मुनीर को भी बंटवारे का दर्द ता-उम्र सालता रहा. वे बंटवारें के बाद भले ही पाकिस्तान चले गए लेकिन उनकी ग़ज़लें हिंदुस्तान ही नहीं यूरोप तक पहुंची. यही वजह हैं कि उनकी किताबों का अनुवाद कई यूरोपीय भाषाओं में हुआ. उनका वास्तविक नाम मुनीर अहमद था और उनका जन्म पंजाब के होशियारपुर में हुआ था. वैसे, तो अधिकांश लोग मुनीर को बतौर उर्दू शायर जानते हैं लेकिन उन्होंने पंजाबी में भी कई शायरियां कही. जो दिल को सीधे छू लेती है. उनकी कई शायरी दुःख और दर्द तथा तन्हाई के समंदर में गोता लगाती दिखती है लेकिन बेबाकी का भी एक अलग आलम था.
''किसी को अपने अमल का हिसाब क्या देते
सवाल सारे ग़लत थे जवाब क्या देते''
ग़ालिब की तरह मुनीर को भी अपने समकालीन शायर कभी पसंद नहीं रहे. वे अपने कई इंटरव्यू में यह बयान करते रहे कि ''मुझे कोई पसंद नहीं आता है.'' एक बार तो उन्होंने यहां तक कह दिया कि बंटवारे के बाद पाकिस्तान में कोई बड़ा शायर नहीं हुआ. पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जुल्फ़िकार भुट्टो को लेकर भी उनका एक दिलचस्प किस्सा है. दरअसल, उनसे किसी ने कहा कि चलो भुट्टो से मिलते हैं और उनके साथ स्कॉच पीएंगे. तब उन्होंने उस शख्स कहा कि ''एक शायर के हुक्मरान से मिलना तो ठीक है लेकिन उनके साथ स्कॉच पीना ठीक नहीं. स्कॉच ही पीना है तो यहीं घर में पड़ी है पी लीजिए.''
इसी तरह एक बार किसी ने उन्हें अपने समकालीन और बड़े शायर अहमद नदीम कासमी का एक शेर सुनाया, ''कौन कहता है कि मौत आएगी तो मर जाऊंगा, मैं तो दरिया हूं समंदर में उतर जाऊंगा.'' यह सुनते ही मुनीर साहब ने कहा कि ''मौत के साथ क्या तुम कबड्डी खेल रहे हो?'' पाकिस्तान के बड़े पत्रकार हसन निसार उनके बारे में कहते हैं कि जैसे ''ग़ालिब कोई दूसरा नहीं हुआ वैसे मुनीर भी एक ही है. वह सिर से पांव तक शायर थे.'' उनकी एक नज़्म भारतीय युवाओं में बेहद पसंद है.
''जरूरी बात कहना हो,
कोई वादा निभाना हो,
उसे आवाज देनी हो,
उसे वापस बुलाना हो,
हमेशा देर कर देता हूं.''
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