आम का भारत में उत्पादित होने वाले फलों में प्रमुख स्थान है. इसके अद्वितीय स्वाद, आकर्षक रंग व आकार, मनमोहक खुशबू, क्षेत्रों एवं जलवायु के अनुकूल उत्पादन क्षमता, व्यावसायिक किस्मों की उपलब्धता एवं जनसाधारण में लोकप्रियता के कारण इसे फलों का राजा भी कहा जाता है. प्रायः ऐसा देखा गया है कि 40-60 वर्ष पुराने आम के बागों में उत्पादन क्षमता का ह्यस होने लगता है. ऐसे बागों की उत्पादकता मात्र 35-40 प्रतिशत तक ही रह जाती है. अतः इन पुराने बागों के व्यावसायिक उत्पादन एवं गुणवत्ता को पुनः स्थापित करने हेतु जीर्णोंद्धार तकनीक विकसित की गई है, जिसके अनुसरण से बागवान अपने पुराने जीर्ण शीर्ण एवं अनुत्पादक बागों को पुनः उत्पादक बना सकते हैं.
जीर्णोंद्धार तकनीक
जीर्णोंद्धार तकनीक में मुख्य रूप से पुराने एवं अनुत्पादक वृक्षों से काष्ठीय भाग (अनुत्पादक लकड़ी) को कम किया जाता है. इस तकनीक में दिसम्बर-जनवरी माह में पौधों को जमीन की सतह से 2.5 से 3 मीटर की ऊँचाई पर आरी से काटा जाता है. कटाई के लिए शक्ति चालित आरी अधिक उपयुक्त होती है. कटाई उपरान्त कटे भागों पर गाय का गोबर या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड का लेप लगाना चाहिए, ताकि इसमें फफूंद का प्रकोप न हो पाये. इसके साथ ही कटे हुए भाग से नई कलियों का प्रस्फुटन होता है. एक माह पश्चात चारों दिशाओं में बाहर की और कम से कम 4-6 शाखाओं को छोड़कर बाकी की कलियों का विरलीकरण किया जाता है. जीर्णोंद्धार हेतु बागों के सभी वृक्षों की कटाई एक साथ करते है.
छत्रक (कैनोपी) प्रबंधन
जीर्णोंद्धार के बाद जून-जुलाई में छत्रक प्रबंधन का कार्य किया जाता है. छत्रक प्रबंधन में कलियों की कुल लम्बाई का 50 प्रतिशत भाग काट दिया जाता है, ताकि पुनः नई कलियों का सृजन हो सके. शाखाओं की कटाई-छँटाई से प्राप्त लकड़ी की बिक्री कर तथा अंत फसलों को उगाकर आय में वृद्धि कर जीर्णोंद्धार की प्रारंभिक लागत एवं उत्पादन के दौरान हुई हानि की भरपाई की जा सकती है.
पोषण प्रबंधन
जीर्णोंद्धार के उपरांत वृक्ष को पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है. अतः इस समय बाग में पोषक तत्वों का प्रबंधन अत्यंत महत्वपूर्ण है. वृक्षों में कटाई-छँटाई के उपरान्त 50 किग्रा सड़ी गोबर की खाद, 4 किग्रा नीम की खली, 2.5 किग्रा नत्रजन, 3 किग्रा फॉस्फोरस तथा 1.5 किग्रा पोटाश प्रति वृक्ष प्रति वर्ष दिया जाना चाहिए. नत्रजन की आधी मात्रा एवं फॉस्फोरस तथा पोटाश की पूर्ण मात्रा जनवरी-फरवरी माह में एवं शेष नत्रजन को जुलाई माह में देना चाहिए. खाद के मिश्रण को थाले में तने से 50 सेंटीमीटर दूर चारों ओर डालकर 8-10 सेंटीमीटर गहरी गुड़ाई कर पूर्ण रूप से मिला देना चाहिये. गुड़ाई उपरान्त हल्की सिंचाई कर देनी चाहिये.
सिंचाई प्रबंधन
नव विकसित कलियों के समुचित विकास के लिए जीर्णोंद्धार की प्रक्रिया के दौरान बाग में सिंचाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए. सिंचाई के आभाव में जीर्णोंद्धार की प्रक्रिया प्रभावित हो सकती है. वृक्षों के उचित छत्रक विकास हेतु ग्रीष्म ऋतु में 10-15 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करना अत्यंत आवश्यक है. सिंचाई के विभिन्न तरीकों में टपक सिंचाई सर्वोत्तम परिणाम (फलों के उत्पादन एवं गुणवत्ता में वृद्धि) देती है.
पलवार (मल्चिंग)
जीर्णोद्धरित वृक्षों की सतह पर मिट्टी के ऊपर काली पॉलीथीन (100 माइक्रोन) या सूखी घास अथवा धान का अवशेष आदि की 15 से 20 सेंटीमीटर मोटी परत बिछा देनी चाहिये. पलवार हेतु काली पॉलीथीन के प्रयोग से पौधों में सिंचाई की आवश्यकता कम पड़ती है.
अन्तः फसल
वृक्षों की कटाई-छंटाई के पश्चात बाग में काफी खुली जगह मिल जाती है एवं जीर्णोद्धरित वृक्षों के छत्रक विकसित होने में 2-3 वर्ष लगते हैं. अतः ऐसे बागों में अन्तःफसलें उगाकर अतिरिक्त आमदनी अर्जित की जा सकती है. अन्तः फसल के रूप में रबी मौसम में फूलगोभी, मटर, आलू, पत्तागोभी, गेंदा तथा जायद में लौकी, खीरा, तोरई, परवल, लोबिया आदि फसलें लेने से प्रारंभिक अवस्था में अच्छा लाभ प्राप्त हो सकता है. इसके अतिरिक्त औषधीय फसलें जैसे तुलसी, मेथी, सतावर, कालमेघ इत्यादि भी सफलतापूर्वक उगाई जा सकती हैं.
कटाई-छँटाई
आर्थिक दृष्टि से अनुपयोगी वृक्षों की सभी अवांछित शाखाओं को चिन्हित कर दिसंबर-जनवरी माह में सतह से 2.5 से 3 मीटर की ऊँचाई पर काट दिया जाता है. सूखी, रोग ग्रसित एवं पेड़ों के बीच की घनी शाखाओं को काटकर निकाल देते हैं. पर्णीय क्षेत्र के विकास के लिए वृक्षों पर केवल 4-6 शाखायें ही रखी जाती हैं. कटाई करते समय यह ध्यान अवश्य रखें कि शाखायें अनावश्यक रूप से निचले भाग से फट न जायें. अतः पहले आरी से नीचे की तरफ लगभग 15-20 सेंटीमीटर कटाई कर, फिर शाखा के ऊपरी भाग की कटाई करते हैं. इसके पश्चात फरवरी माह के मध्य में वृक्षों के तनों के पास थाले एवं सिंचाई की नालियां अवश्य बना देनी चाहिए.
सृजित कलियों का विरलीकरण
दिसंबर माह में कटाई-छँटाई के लगभग तीन से चार माह के बाद (मार्च-अप्रैल) इन काटी-छांटी गयी शाखाओं पर बहुत सारी नई कलियां निकलती हैं, जिनका विरलीकरण आवश्यक है. बेहतर छत्रक विकास के लिए 8-10 स्वस्थ कलियां प्रति शाखा रखकर शेष अवांछनीय कलियों को जून एवं अगस्त में हटा दिया जाता है. अप्रैल-मई माह में नई पत्तियों को कीट से बचाव हेतु कार्बरिल 3 ग्राम/लीटर का छिड़काव करना चाहिये.
कीट एवं रोग प्रबंधन
कटाई के तुरंत बाद कटी सतहों को फफूँद संक्रमण से बचाव के लिए वृक्ष की कटी सतहों पर कॉपर ऑक्सीक्लोराइड या बोर्डो पेस्ट का लेपन करें. तना भेदक से बचाव के लिए डाईक्लोरोवास दवा को (5 मिलीलीटर/लीटर पानी) रुई के फाहे में लगाकर प्रभावित छिद्र में डालकर छिद्र के प्रवेश द्वार को चिकनी मिट्टी से बंद कर दें. जून-जुलाई माह में यदि पत्ती खाने वाले कीट का प्रकोप दिखे, तो डाईमेथोएट 30 ई.सी. 2 मिलीलीटर का 15 दिन के अंतराल पर 2 छिड़काव करें. नई पत्तियों को एन्थ्रक्नोस रोग से बचाने के लिए कॉपर हाइड्रोऑक्साइड (0.3%), 3 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिलाकर 12-15 दिन के अंतराल पर 2 छिड़काव करें.
पुष्पन एवं फलन
जीर्णोंद्धार के उपरांत वृक्षों की सामयिक देखभाल करने पर कृंतित शाखाओं पर बनी कलियों में लगभग 2 वर्ष उपरांत पुष्पन एवं फलन आने लगता है. प्रयोगों के आधार पर पाया गया है कि जीर्णोद्धरित वृक्षों से गुणवत्तापूर्ण आम की औसतन 60-70 किग्रा प्रति वृक्ष उपज प्राप्त हो जाती है. इस प्रकार जीर्णोंद्धार तकनीक द्वारा पुराने एवं अनुत्पादक आम के बाग 20-25 वर्ष के लिए पुनः फलदायक हो जाते हैं.
राष्ट्रीय बागबानी मिशन के अंतर्गत देश के विभिन्न राज्यों के जनपदों में पुराने बागों के जीर्णोंद्धार हेतु विस्तृत कार्यक्रम चलाया जा रहा है तथा इस तकनीक की सफलता से बागबानों की आर्थिक दशा में सुधार हो रहा है.
डॉ. पूजा पंत
सहायक प्राध्यापक,
कृषि संकाय, एस.जी.टी. विश्वविद्यालय, गुरुग्राम, हरियाणा
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