Sorghum Farming: भारत में ज्वार की खेती प्राचीन काल से होती आ रही है. ज्वार एक मोटे दाने वाली फसल है. खाने के अलावा इसका उपयोग हरे चारे के रूप में भी किया जाता है. ज्वार की खेती कम वर्षा वाले राज्यों में अनाज के साथ-साथ चारा के तौर पर भी की जाती है. भारत की कुल खेती योग्य भूमि में इसकी पैदावार लगभग सवा चार करोड़ एकड़ में की जाती है. ज्वार का उपयोग खाने के अलावा एल्कोहल और ईथेनॉल बनाने में भी किया जाता है. ज्वार एक खरीफ की मोटे आनाज वाली गर्मी की फसल है. यह फसल 45 डिग्री के तापमान को सहन कर आसानी से विकास कर सकती है. ऐसे में आज हम आपको ज्वार की खेती के दौरान होने वाले रोग और उससे बचने के तरीके के बारे में बताने जा रहे हैं.
फफूंदी रोग
यह कवक से होने वाला एक संक्रमिक रोग है, यह पौधे के एक भाग में होने के बाद धीरे-धीरे पूरे पेड़ पर फैल जाता है. यह संक्रमण पौधे के फूलों के रंग को बदल देता है और ज्वार का वजन हल्का हो जाता है और इसमें पोषण की गुणवत्ता में कमी और अंकुरण शक्ति खराब हो जाती है. इस फफूंद से बचाव के लिए फसल पर प्रोपीकोनाज़ोल का छिड़काव करें और ध्यान रखें कि इसका छिड़काव 15 से 20 दिन के अंतराल पर करते रहना चाहिए.
डाउनी मिल्ड्यू रोग
यह रोग ज्वार की पत्तियों में लगता है. इसका सबसे विशिष्ट लक्षण पत्तियों पर हरे और सफेद रंग की धारियों का बनना होता है. इसकी पत्तियों की निचली सतह पर ओस्पोर्स के सफेद धब्बे बन जाते हैं. इसके कारण पौधे पर निकलने वाले पुष्पगुच्छ बहुत छोटे होते हैं और उनमें बहुत कम ही संख्या में बीज निकल पाता हैं. इस रोग से बचने के लिए मिट्टी की गहरी जुताई करनी चाहिए ताकि यहां पैदा होने वाले ओस्पोर्स को कम किया जा सके. इसके अलावा पौधो पर मेटालेक्सिल का छिड़काव करने के साथ ज्वार के बीज की ड्रेसिंग भी करना चाहिए.
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ग्रेन स्मट
इस रोग से ज्वार के दानों का रंग बदल जाता है और इसका डंठल पूरी तरह से कमजोर होने लगता है. इस रोग के लगने से ज्वार की फसल धीर-धीरे पूरी तरह से सड़ने लगती है. इससे बचाव के लिए मेनकोजेब का छिड़काव फसलों पर कुछ अवधि के अंतर पर करते रहना चाहिए.
ज्वार की खेती कर आप किसान भाई काफी अच्छा खासा मुनाफा कमा सकते हैं. इस फसल में लगने वाले रोगों से बचाव का तरीका आपको यहां बताया गया. ज्वार से जुड़ी खेती की अन्य जानकारी के लिए आप कृषि जागरण पर सर्च कर सकते हैं.
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