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तिल में लगने वाले प्रमुख रोग एवं कीट और उनका प्रबन्धन

तिल की खेती मैदानी क्षेत्र में अच्छी होती है लेकिन इस फसल की खेती समुन्द्र सतह से 1200 मीटर की ऊंचाई तक सफलतापूर्वक की जा सकती है।

KJ Staff
रोगों के कारण फसल की पैदावार में कमी आती है
रोगों के कारण फसल की पैदावार में कमी आती है

तिल को सामान्यतः तीली के नाम से भी जाना जाता है । भारत मे तिल का उत्पादन क्रमशः उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात आदि प्रदेशो में किया जाता है। तिल उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र में खरीफ में ली जाने वाली प्रमुख फसलों में से एक तिलहनी फसल है। तिल की खेती मैदानी क्षेत्र में अच्छी होती है लेकिन इस फसल की खेती समुन्द्र सतह से 1200 मीटर की ऊंचाई तक सफलतापूर्वक की जा सकती है। यह फसल फूल या फल आने की अवस्था में अधिक पाला, सूखा, नम मौसम या पानी का जमाव हो जाने की स्थिति को सहन नहीं कर सकती है एवं अधिक नुकसान होता है।

तिल की खेती में अनेक प्रकार के कीट और रोग की समस्या आती है और ये फसल को बहुत नुकसान पहुंचाते है अतः सही समय पर इनका नियंत्रण करना आवश्यक होता है। तिल की फसल में विभिन्न अवस्थाओं में लगने वाले रोगो में से फाइटोफ्थोरा अंगमारी, तना एवं जड़ सड़न, अल्टरनेरिया पत्तीधब्बा, सरकोस्पोरा पत्तीधब्बा, पाउडरी मिल्डयू एवं पर्णताभ रोग (फायलोड़ी रोग) आदि प्रमुख रोग हैं इन रोगों के कारण फसल की पैदावार में कमी आती है जिससे किसानो को आर्थिक हानि होती है इसलिये हमें समय-समय पर अच्छा उत्पादन लेने के लिये इन रोगों के नियंत्रण के लिये उपाय करते रहना चाहिये। 

प्रमुख रोग

फाइटोफ्थोरा अंगमारी

यह मुख्यतः फाइटोफ्थोरा पैरसिटिका नामक कवक से होता है सभी आयु के पौधों पर इसका हमला हो सकता है। इस रोग के लक्षण पौधों की पत्तियो एवं तनों पर दिखाई देते हैं। इस रोग में प्रारम्भ में पत्तियों पर छोटे भूरे रंग के शुष्क धब्बे दिखाई देते हैं ये धब्बे बड़े होकर पत्तियों को झुलसा देते हैं तथा ये धब्बे बाद में काले रंग के हो जाते हैं। रोग ज्यादा फैलने से पौधा मर जाता है।

रोकथाम

  • एक खेत में लगातार तिल की बुआई न करें

  • खड़ी फसल में रोग दिखने पर रिडोमिल 5 ग्राम प्रति लीटर पानी का घोल बनाकर 10 दिन के अन्तराल पर छिड़काव करना चाहिए

  • फसल पर रोग के लक्षण दिखने पर मैकोजेव 1.5 किग्रा. या कैप्टान 2 से 2.5 किग्रा. प्रति हेक्टेयर कि दर से छिड़काव करें व 15 दिन बाद पुनः छिड़काव करें

  • रोग रोधी किस्मों का उपयोग करें

तना एवं मूल विगलन

यह रोग मैक्रोफोमिना फैसियोलिना कवक के द्वारा होने वाला तिल का प्रमुख रोग है इस रोग से प्रभावित पौधे की जड़ रोगग्रस्त व तना भूरे रंग के हो जाते हैं। पौधे का संक्रमण वाला भाग काला रंग का हो जाता है और कोयले जैसा दिखाई देने लगता है जो कि कवक के ही स्केलेटोशिया होते हैं।

रोकथाम

  • कम से कम 2 साल तक फसलचक्र अपनायें

  • खड़ी फसल में रोग प्रारम्भ होने पर 1 ग्राम कार्बेडाजिम को 3 लीटर पानी में घोल बना कर छिड़काव करना चाहिये एवं प्रकोप अधिक होने पर एक सप्ताह बाद पुनः उसे दोहराना चाहिये

  • रोग प्रतिरोधक प्रजातियों का प्रयोग करना चाहिये

अल्टरनेरिया पत्ति धब्बा

यह मुख्यतः अल्टानेरिया सिटेजी नामक कवक से होता है इस रोग में पौधों की पत्तियों में छोटे-छोटे भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं और कुछ दिन बाद पत्तियाँ सूख कर झड़ जाती हैं।

रोकथाम

  • कम से कम 2 साल तक फसलचक्र अपनायें

  • इस रोग के बचाव के लिये प्रभावित व स्वस्थ बीज का चयन करना चाहिये

  • बुवाई से पहले बीज उपचार करना चाहिए जिसके लिये ट्राइकोडर्मा विरडी 5 ग्राम प्रति किग्रा. बीज दर से उपयोग करना चाहिये

  • खड़ी फसल में लक्षण दिखाई देने पर मैन्कोजेब 2 ग्राम प्रतिलीटर पानी का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये

पर्णताभ रोग या फायलोडी रोग

इस रोग को फायलोडी रोग के नाम से भी जाना जाता है यह रोग माईकोप्लाज्मा के द्वारा होता है एवं इस रोग में पुष्प के विभिन्न भाग विकृत होकर पत्तियों के समान हो जाते हैं। संक्रमित पौधों में पत्तियाँ गुच्छों में छोटी-छोटी दिखाई देती हैं और पौधों की वृद्धि रुक जाती है।

रोकथाम

  • इस रोग में ग्रसित पौधे के बचाव के लिये रोग ग्रस्त पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिये

  • रोग रोधी किस्मों का उपयोग करें

  • डाइमेथोएटे 30 ईसी 500 ml/हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें

सरकोस्फोरा पत्ती धब्बा

यह मुख्यतः सरकोस्फोरा सिसमी नामक कवक से होता है इस रोग को टिक्का रोग के नाम से भी जाना जाता है इस रोग में पत्तियों में छोटे-छोटे अनियंत्रित भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं और पत्तियाँ सूख कर गिर जाती हैं।

रोकथाम

  • रोग रोधी किस्मों का उपयोग करें

  • इस रोग से बचाव के लिये वेवीस्टीन 0.05 प्रतिशत का 1:1 बीजोपचार का बीज बोना चाहिये

  • फसल में रोग के लक्षण दिखने पर मैंकोजेब 2.5 ग्राम लीटर पानी का छिड़काव करना चाहिये तथा एक सप्ताह बाद अगर रोग अधिक हो तो पुनः छिड़काव करना चाहिये

पाउडरी मिल्डयू

यह रोग कवक के द्वारा होता है इस रोग के लक्षण पत्तियों पर दिखाई देते हैं। इस रोग में पौधों की पत्तियों के ऊपरी सतह पर पाउडर जैसा सफेद चूर्ण दिखाई देता है। इस रोग का संक्रमण फसल में 45 दिन से लेकर फसल पकने तक होता है।

रोकथाम

  • इस रोग के नियंत्रण के लिये 25 किग्रा. सल्फर धूल का प्रयोग करना चाहिये। घुलनशील सल्फर का छिड़काव खड़ी फसल में 10 दिन के अन्तराल में 3 बार करना चाहिये

  • रोगरोधी किस्मों का उपयोग करना चाहिये जैसे – RT-125 श्वेता आदि।

यह भी पढ़ेंः जानिये तिल की उन्नत खेती और उसके फ़ायदे

प्रमुख कीट:

पत्ती एवं फली छेदक कीट

यह कीट पत्तियों को गुथकर फलों में घुसकर भीतरी भाग दबाकर तथा फल में अंदर भाग को खाकर फसल को नुकसान पहुंचाता है। इस कीट के प्रकोप से जड़ की वृद्धि रुक जाती है एवं पौधे की प्रारम्भिक अवस्था में आक्रमण होने से पौधा नष्ट हो जाता है। इसकी इल्लिया फूल और फली बनने के समय अधिक आक्रमण करती हैं फसल पर पहली बार आक्रमण 15 दिन की अवस्था पर होता है।

नियंत्रण  

  • इस कीट के लिए रासायनिक क्वीनालफास 0.05 प्रतिशत का 750 लीटर पानी प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें

  • सहनसील किस्मों को उगायें

  • फसल की बुआई जल्दी करें, इलियों को हाथ से पकड़कर नष्ट कर दे

तिल की मक्खी

यह फूल के आवश्यक अंगों को नष्ट कर पीत बनाते हैं, इनका आक्रमण खरीफ के मौसम में सितम्बर के महीने में कालियां निकलते समय होता है और नवम्बर के अंत तक सक्रिय रहते हैं

नियंत्रण

  • प्रतिरोधक किस्मों का उपयोग करें

  • कलियाँ निकलते समय फसल पर 0.03 प्रतिशत डाइमेथोएटे का या 0.05 प्रतिशत मोनोक्रोटोफास का 650 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें

बिहार की रोयेदार इल्ली

यह एक बहु भक्षी कीट है इसे  रोमिल या कम्बल कीट के नाम से भी जाना जाता है। इसकी नवजात इल्ली तिल की पत्तियों को समूह में खाती हैं। पत्तियां छनने की तरह दिखाई देती हैं, जिससे पौधे कमजोर हो जाते हैं और फलिया कम बनती हैं इसका आक्रमण सितम्बर और अक्टूबर माह में अधिक होता है।

नियंत्रण

  • प्रतिरोधक किस्मों का उपयोग करें

  • हानिकारक कीटो की विभिन्न अवस्था को प्रारम्भ में ही हाथों से एकत्रित कर नष्ट करे

लेखक 

अरविन्द कुमार, ऋषि नाथ पाण्डेय

शोध छात्र, पादप रोग विज्ञान विभाग, बाँदा कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, बाँदा, उत्तर प्रदेश

arvindkumarak638419@gmail.com

English Summary: Major diseases and pests of sesame and their management Published on: 11 January 2023, 03:46 PM IST

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