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Budget 2024: देश के 85% खेत हो रहे बांझ, असल जिम्मेदार कौन? बजट से पूर्व पढ़ें यह विशेष आलेख

बजट 2024 की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं. बजट 2024 में क्या-क्या बदलाव हो सकते हैं? किस क्षेत्र को बजट से क्या उम्मीदें हैं? उसको लेकर कयास लगाए जाने लगे हैं. इस बीच डॉ राजाराम त्रिपाठी, राष्ट्रीय समन्वयक, अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा) ने एक विशेष आलेख- देश के 85% खेत हो रहे बांझ, असल जिम्मेदार कौन? लिखा है.

Dr Rajaram Tripathi
डॉ . राजाराम त्रिपाठी, राष्ट्रीय समन्वयक, अखिल भारतीय किसान महासंघ (आईफा)

कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

  • देश की 85% खेती (कुल 14.2 करोड़ हे. कृषि भूमि में से 12 करोड़ हे.भूमि) उत्पादकता ह्रास का शिकार: राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण एवं भू उपयोग नियोजन ब्यूरो
  • खेती में 'तकनीकी-थकान' सच्चाई है अथवा सच्चाई छुपाने की कवायद?
  • केवल 0.01 प्रतिशत जहरीले कीटनाशक सही तरह कीट तक पहुंचता है, जबकि 99.99 प्रतिशत पर्यावरण में मिल जाता है: डेविड पीटमेंटल, कॉर्नेल यूनिवर्सिटी
  • लाखों-करोड़ों रुपये के पॉलीहाउस, हाइड्रोपोनिक्स, ड्रोन आद किसानों की आय बढ़ाने के बजाय उन पर बन रहे बोझ: डॉ राजाराम (आईफा)
  • पिछले दो सालों में दो करोड़ से ज्यादा किसानों ने खेती छोड़ दिया,वहीं दूसरी ओर जहरीली खाद, दवाइयों तथा जीएम बीजों ने आज किसानों को पर्यावरण,धरती एवं मानवता के विरुद्ध खड़ा कर दिया है: डॉ.राजाराम त्रिपाठी (आईफा)

एक और नई सरकार चुनकर आ गई है। पिछले 5 सालों में विभिन्न कारणों से किसान लगातार आंदोलित रहे हैं। पर आज हम ना तो आंदोलनों की बात करेंगे ना किसी सरकार पर कोई आरोप लगाएंगे। हम यहां भारतीय खेती की वर्तमान दशा-दिशा का एक निष्पक्ष समग्र आंकलन करने की ईमानदार कोशिश करेंगे। इस कार्य में में हम भक्तिकाल के निर्गुण शाखा के मूर्धन्य कवि रहीम 'खानखाना' की भी कुछ मदद ले रहे हैं। आशा है इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होगी।

देश में खाद्यान्न उत्पादन के घटते-बढ़ते, सच्चे-झूठे आंकड़ों से परे असल हकीकत यही है कि वर्तमान में खेती घाटे का सौदा बन गई है। देश का किसान दिनों दिन बढ़ती कृषि लागत, उत्पादन की मात्रा एवं गुणवत्ता की अनिश्चितता तथा उत्पादन का वाजिब लाभकारी मूल्य न मिल पाने के कारण बेहद परेशान है। आलम यह है कि पिछले 2-दो सालों में 2-दो करोड़ से ज्यादा किसानों ने खेती छोड़ दिया है।

दूसरी ओर रासायनिक खाद, जहरीली दवाइयों तथा जीएम बीजों ने आज कृषि और किसानों को पर्यावरण, धरती एवं मानवता के विरुद्ध खड़ा कर दिया है। जहरीली रासायनिक और घातक कीटनाशकों ने पर्यावरण को ही प्रदूषित नहीं किया, बल्कि मानव स्वारथ्य के लिए भी गंभीर खतरा पैदा कर दिया है। कीटनाशकों की अनेक नई किस्में किसानों के लिए बर्बादी लेकर आ रही हैं। कृषि वैज्ञानिक इसे ‘तकनीकी-थकान’ बता रहे हैं। शायद यह तकनीकी असफलता को छुपाने के लिए गढ़ा गया एक शालीन नाम है।

  • आयातित मंहगी कृषि तकनीकें भारतीय किसान के लिए सहारा या बोझ?

रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि, जहां काम आवे सुई, कहा करे तरवारि

इन दिनों सरकार ड्रोन उड़ाकर खेती करने, पॉलीहाउस, ग्रीन हाउस व हाइड्रोपोनिक्स तकनीक को बढ़ावा दे रही है और इसके लिए लाखों करोड़ों का अनुदान भी देती है।

लाखों रुपए के अनुदान का लालच दिखाकर इन्हें बेचने वाली कंपनियों के एजेंट भोले-भाले किसानों को हर साल लाखों की कमाई का सब्जबाग दिखाकर अपने जाल में फँसाते हैं और फिर शुरू होता है सब्सिडी तथा बैंक ऋण का खेल, जिसमें हर मोड़ पर घूस का चढ़ावा देकर और लागत की आधी से भी कम कीमत की घटिया दर्जे की सामग्रियां प्रदान की जाती हैं, क्योंकि किसान इन सामग्रियों की तकनीकी मापदंडों एवं गुणवत्ता को नहीं समझ पाता इसलिए बिना जोखिम ज्यादा से ज्यादा फायदा कमाने के लिए किसान सहज उपलब्ध सॉफ्ट टार्गेट है। खेती में निरंतर घाटे से परेशान किसान जिस फसल अथवा तकनीक में मुनाफे की बात सुनता है उसकी ओर ठीक उसी तरह दौड़ पड़ता है जैसे दीपक की लौ की ओर पतंगा दौड़ता है, और अंत में किसान का हाल भी पतंगे वाला ही होता है।

उदाहरण के लिए पॉलीहाउस से अगर बात करें एजेंट के जरिए बीस लाख की सब्सिडी का लालच दिखाकर भोले वाले किसानों को पटाकर, बैंक से ऋण, अनुदान दिलवाने की कमीशन सेटिंग करके घटिया सामग्रियों से येन-केन प्रकरेण पॉलीहाउस खड़ा करके तैयार किसानों थमा दिए जाते हैं। इस खेल में पाली हाउस निर्माता सब्सिडी देने वाले विभाग की अधिकारी बैंक वाले तथा किसानों को फांसकर लाने वाले एजेंट सभी मोटा मुनाफा कमाकर अलग हो जाते हैं। अब बचता है किसान और उसका पॉलीहाउस जो कि पहली या दूसरी बारिश में ही जवाब दे जाता है। ऐसे एक नहीं, कितने ही उदाहरण मौजूद हैं, जहां किसान अब अपना सब कुछ गवां कर कर्ज के जाल में फँसकर फड़फड़ा रहे हैं और बिना अपनी जमीनों को बेचे उन्हें इसमें से निकलने की कोई राह नहीं दिख रही है।

जाहिर है कि हाईटेक अथवा उच्च तकनीकीयुक्त खेती के नाम पर विदेशों की अंधानुकरण की प्रवृत्ति के चलते सरकार तथा किसान दोनों को चूना लगाया जा रहा है। देश के सैंकड़ों नवाचारी किसानों के पास ऐसी-ऐसी परंपरागत टिकाऊ कृषि तकनीकें हैं जो कम से कम लागत में खेती की लाभदायकता  बेहतरीन तरीके से बढ़ा सकती हैं जरूरत है उनकी पीठ थपथपाने की और उनके मॉडल को हर किसान के खेतों तक पहुंचाने की, जो कि कोई भी नवाचारी किसान स्वयं नहीं कर पाता।

  • हरित-क्रांति के दुष्प्रभाव अथवा 'तकनीकी-थकान' का बहाना:-

संपत्ति भरम गंवाई के हाथ रहत कछु नाहिं

खाद्यान्न उत्पादन का सीधा संबंध जनसंख्या से है। भारत ने जनसंख्या वृद्धि में चीन को भी पीछे छोड़ दिया है। इस बढ़ती हुई जनसंख्या का पेट भरने के लिए कृषि उत्पादन बढ़ाने पर जोर दिया गया और पश्चिमी देशों की तर्ज पर 1966-67 में हरित-क्रांति का अभियान चलाया गया और “अधिक अन्न उपजाओ” का नारा दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप अधिक उपज प्राप्त करने के लिए रासायनिक खाद, रासायनिक कीटनाशकों एवं रासायनिक खरपतवारनाशकों के कारखाने लगाए गए और आयात भी किया गया। रासायनिक खाद, रासायनिक कीटनाशकों एवं रासायनिक खरपतवारनाशकों का अन्धाधुन्ध व असंतुलित उपयोग प्रारम्भ हुआ। 1966-67 की हरित क्रांति हुए पचास साल से अधिक बीत चुके हैं।

कहा जाता है कि आवश्यक खाध्यान्न के समान उत्पादन के लिए जितनी भूमि की जरूरत होती उसमें से हरित-क्रांति के जरिए 580 लाख हेक्टेयर भूमि बचा ली गयी है। जबकि आज चालीस साल बाद यह सामने आ रहा है कि हमने इससे दोगुनी भूमि पर्यावरणीय दृष्टि से बर्बाद कर दी है, जिसका निकट भविष्य में कोई उपचार भी दिखाई नहीं देता। इस बीच सघन खेती के लगभग सभी क्षेत्रों में भूजल स्तर घटकर रसातल मे पहुंच गया है। रासायनिक खादों ने जमीन नष्ट करनी शुरू कर दी।

कीटनाशकों ने पर्यावरण को ही प्रदूषित नहीं किया, बल्कि मानव तथा सभी जीवों के लिए स्वारथ्य के लिए भी गंभीर खतरा पैदा कर दिया है। कीटनाशकों की अनेक नई किस्में किसानों के लिए बर्बादी लेकर आ रही हैं। कृषि वैज्ञानिक इसे ‘तकनीकी थकान’ बता रहे हैं। शायद यह तकनीकी असफलता को छुपाने के लिए दिया गया एक शालीन नाम है।

खेती और पानी:-
रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून...
अब पछताए होत क्या, चिड़िया चुग गई खेत..।

पानी के मोर्चे पर हमने अपनी लगातार गलतियों से भी कोई सबक नहीं सीखा और ज्यादातर राज्यों में हम बेहद खतरनाक स्थिति में पहुंच चुके हैं। कई राज्यों में भूजल लगभग समाप्त हो गया है और पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची हुई है। सिंचाई के क्षेत्र में अव्वल, पांच नदियों के प्रदेश एवं हरित क्रांति का पुरोधा कहे जाने वाले पंजाब का मामला देखिए यहां 138 ब्लाकों में से 108 पहले भी भूजल के स्तर के मामले में डार्क जोन घोषित कर दिए गये हैं। इन क्षेत्रों में भूजल के दोहन का स्तर खतरे के निशान 80 प्रतिशत को भी पारकर 97 प्रतिशत तक पहुंच गया है, जितने अधिक भूजल का दोहन किया जायेगा, खेती की लागत उतनी ही बढ़ती जायेगी। पानी के लिए किसानों को अधिक गहराई तक बोर करना पडेगा, जिससे ट्‌यूबवेल लगाने का खर्च बढ़ जायेगा।

 उत्तर प्रदेश में भी स्थिति बहुत नाजुक है। केंद्रीय भूजल बोर्ड ने अधिक दोहन के कारण भूजल का स्तर खतरनाक स्थिति में पहुंचाने वाले 22 ब्लाकों की पहचान की है। इनमें से 19 ब्लाक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में है। गन्ना उत्पादक किसान, जो मिलों के साथ गन्ना आपूर्ति का बांड भरते हैं, उनकी गन्ने की फसल हर साल 240 क्यूबिक मीटर पानी पी जाती है। गेहूं और चावल के मुकाबले यह करीब ढाई गुना अधिक है। गिरता भूजल स्तर जमीन को अनुत्पादक और बंजर बना देता है।  राष्ट्रीय मृदा सर्वेक्षण एवं भू उपयोग नियोजन ब्यूरो का अनुमान है कि देश की कुल 14.2 करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि में से 12 करोड़ हेक्टेयर भूमि अलग-अलग तरह से उत्पादकता ह्रास का शिकार हो रही है।

 यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि हम जिस कृषि तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं, क्या उसी में असल गड़बड़ी है?

  • खेती और रासायनिक खाद:-
    कह रहीम कैसे निभय बेर केर के संग

 सालों तक हमें बताया जाता रहा कि फसल की पैदावार बढ़ाने के लिए रासायनिक खाद बहुत जरूरी है। शुरुआती दौर में रासायनिक खाद ने पैदावार जरूर बढाई, लेकिन इसके साथ-साथ कृषि भूमि क्रमशः रोगग्रस्त और अनुपजाऊ होते चली गयी। पर्यावरण के विनाश के निशान दृष्टिगोचर थे, लेकिन खेतों की कम हो रही उर्वरता बढ़ाने के लिए खाद कंपनियों के खाद से खेत पाट दिए। जैसे इतना ही काफी न हो, भूजल में नाइट्रेट मिलते जाने से जन-स्वास्थ्य के लिए भी खतरा बढ़ता ही जा रहा है। अब यह साबित हो गया है कि दस साल पहले जितनी फसल लेने के लिए उस समय की तुलना में दोगुनी खाद डालनी पड़ रही है। इससे किसान कर्ज के जाल में फंस रहे हैं।

हालिया अध्ययन में खाद की खपत और उत्पादन के बीच नकारात्मक सह-संबंध के बारे में साफ-साफ बताया गया है। जिन क्षेत्रों में खाद की खपत कम  रही है वहां आज फसल की उपज अधिक है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि खाद कंपनियों को कभी ऐसे निर्देश नहीं दिए गये कि वे मिट्टी के पोषक तत्वों में सतुलन का ध्यान रखें, ताकि विविध प्रकार से भूमि में रासायनिक तत्वों का जमावड़ा न हो।

किसानों द्वारा फसलों पर कीटनाशकों का छिड़काव किया जाना भी आधुनिक खेती का अभिन्न अंग है। चावल और अन्य फसलों पर कीटनाशक छिड़कना इसलिए जरूरी हो गया, क्योंकि खाद की जरूरत वाली ऐसी बौनी प्रजातियां तैयार की गयी जिनके प्रति कीट आकर्षित होते थे। कीटनाशक सही जगह तक पहुंचे, इसके लिए किसानों की कमर पर कीटनाशकों से भरी केन लाद कर स्प्रे मशीन से फसलों पर छिड़काव करने के लिए कहा गया। इन स्प्रे मशीन से फसलों की अलग-अलग फसल के अनुकूल विविध प्रकार की नली बनी होती है। कुछ फसलों के लिए ट्रैक्टर से भी छिड़काव किये जाते हैं।

कॉर्नेल यूनिवर्सिटी के डेविड पीमेंटल ने 1980 के शुरू में निष्कर्ष निकाला था कि केवल 0.01 प्रतिशत कीटनाशक सही तरह कीट तक पहुंचता है, जबकि 99.99 प्रतिशत पर्यावरण में मिल जाता है। इसके बावजूद किसानों को और अधिक स्प्रे करने के लिए कहा गया, और यह बढ़ाते हुए क्रम में आज भी जारी है।

अध्ययन से यह सामने आया है कि इस बात से कीटनाशक की क्षमता का कोई प्रभाव नहीं पड़ता कि उसका छिड़काव मशीन से किया जाता है या फिर कीटनाशकों को सिंचाई के पानी के स्रोत पर रख दिया जाता है।

वर्तमान में ग्रामीण भारत के हर कोने पर मौजूद संकट फौरी कृषि तकनीकों का परिणाम है, जिनका सामाजिक सरोकारों से कोई वास्ता नहीं। यह देखने की जरूरत महसूस नहीं की जाती कि तकनीक खेत के क्षेत्रफल, बदलते कृषि-वातावरण, पर्यावरण और इन सबसे बढकर कृषक समुदाय के दीर्घकालिक हित में हैं या नहीं? अब भी समय है कि हम इन तकनीकों की समीक्षा करें और इनके कारण होने वाली परेशानियों से छुटकारा पाने के उपायों पर विचार करें।

आंख मूंदकर विदेशों से आयातित तकनीकों को स्वीकार कर लेने की प्रवृत्ति किसानों पर बहुत भारी पड़ रही है।

वास्तव में इन महंगी तकनीकों के प्रलोभन ने कृषक समुदाय की खाल ही उतार दी है। बैंक कर्ज की रकम से इन असंगत तकनीकों की खरीद और रख-रखाव में खर्च जाती है। इस अवांछित ऋणग्रस्तता से खेती पर संकट और बढ़ रहा है।

वर्तमान में भारतीय खेती अपने कठिनतम दौर से गुजर रही है, पर यही वह महत्वपूर्ण समय भी है जब हम मिल-बैठकर अपनी खेती की इस दुरावस्था के असल कारकों की सही पहचान कर उनके निवारण हेतु सही रणनीति बनाकर देश की खेती एवं किसानों का भविष्य संवार सकते हैं। आज जरूरत है भारतीय तकनीकों के विकास की, जो सस्ती, टिकाऊ, उपयोगी और पर्यावरण हितैषी हों।

इसलिए लेख का अंत रहीम की इस दोहे के साथ करना चाहूंगा-
रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय,
हित अनहित या जगत में, जान परत सब कोय।

English Summary: Budget 2024 read the special article of Richest Farmer of India Dr Rajaram Tripathi before the budget Published on: 27 June 2024, 06:34 IST

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