नक्सली आतंक से झारखण्ड भी अछूता नहीं है जिसके कारण झारखण्ड विकास से अन्य प्रदेशो की अपेक्षा इसका काम विकास हो पाया है। लेकिन अब पूर्वी सिंह भूम के सात गाँवो में विकास की नई इबारत लिखी जा रही है. जंगल में उगने वाली बबुई नामक घास जहाँ इन लोगो के सरदर्द का कारण बन चुकी थी अब वही ही इन लोगो के कमाई का जरिया बन चुकी है।
आप को बता दे की यहाँ के लोग अब इस घास की खेती करने लगे है। यही घास ही अब इन गांवों की अर्थवस्था की रीढ़ बन चुकी है। झाटीझरना ,बालामऊ ,भमरा डीह , सिनरीवा और फूलझोर आदि गांव जिले अति दुर्गम इलाको में सुमार होते है। झोपड़ियों में रहने वाले लोगो के लिए बबुई घास ही सहारा बन चली है। ये लोग इसी घास का उपयोग करके रस्सी तैयार करते है और इन रस्सी को सप्ताहिक राजग्राम बाजार में ले जाकर बेच देते है।
आप को बता दे की कई लोग इस रस्सी को बेचने पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल भी चले जाते है। बड़े बड़े व्यापारी इन रस्सी को सस्ते दामों में खरीद लेते है और दूर ले जाकर महगें दामों में बेच देते है। एक परिगवार पूरे दिन मेहनत करके लगभग तीन से चार किलो रस्सी बना लेता है जिसकी कीमत बाजार में 100 -150 रूपये होती है।
बबुई घास की रस्सी चारपाई बनाने के काम आती है
कुछ लोगो ने हमे ये बताया की बबुई घास की बनी हुई रस्सी बहुत से काम में आती है लेकिन जयादातर लोग इसका इस्तेमाल चारपाई बनाने में करते है। इन इन्ही घासो से टोपी भी बनाई जाती है. इन घासो से बनी रस्सी का उपयोग ज्यादातर पश्चिम बंगाल ,बिहार ,झारखण्ड और इन राज्यों के पड़ोसी इलाके में होता है।
भारत में ही नहीं कई देशो में पाई जाती है ये घास
इसका बैज्ञानिक नाम इयूलालोपीपस है , ये भारत में उड़ीसा और बंगाल में ज्यादातर पाई जाती है। आमतौर पर ये घास पहाड़ो के ढलानों पर मिलती है। इसकी ऊंचाई औसतन 30 सेमी होती है। अफगानिस्तान, जापान, चीन फिलीपीन्स आदि में पाई जाती है।
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