आज हम ऐसी सच्ची कहानी आपके लिए लाये है वो ऐसे युवाओं की है जिन्होंने अपने साथ-साथ अपने देश के भविष्य के बारे भी सोचा और एक नई पहल लेकर सामने आये |
उत्तरप्रदेश के कानपुर मुख्यालय से 25 किमी कि दूरी पर भौन्ति गांव में " हेल्प अस ग्रीन" नाम से उनका ऑफिस है | यह वो कंपनी है जो कानपुर के 29 गांव के मंदिरों से रोज 800 ग्राम बेकार फूल इकठ्ठे करती है फिर उन्हें अगरबत्तियों और वर्मीकम्पोस्ट में बदलती है |अंकित अग्रवाल और करण रस्तोगी कि कंपनी कि वजह से ही आज कानपुर के मंदिरों में चढ़ाया जाने वाला एक भी फूल नदी नालों में नहीं फेंका जाता है 72000 हज़ार रुपये से शुरू हुई इस कंपनी का सालाना टर्न -ओवर 2.25 करोड़ रुपये है | 28 साल के अंकित बताते है कि वह अपने एक दोस्त के साथ 2014 में कानपुर के बिठूर मंदिर में दर्शन करने गए थे |गंगा तट पर सड़ते हुआ फूलों और गंदा पानी पीते हुए लोगों को देखा था | फूल सड़कर पानी को गन्दा कर रहे थे और फूलों पर डाले जाने वाले कीटनाशक पानी में रहने वाले जीवों के लिए भी खतरनाक थे |
उन्होंने बताया कि मेरे दोस्त ने मुझे गंगा कि तरफ दिखाते हुए बोला कि तुम लोग इसके लिए कुछ क्यों नहीं करते है तभी मन में ऐसा विचार आया कि क्यों न कोई ऐसा काम शुरू किया जाये जिस से प्रदूषण भी ख़त्म हो और आमदनी के स्तोत्र भी बने |अंकित ने बताया कि मेरा दोस्त करण फॉरेन से पढ़ कर भारत वापिस आया था | तब मैंने उसे इस विचार के बारे बताया तब हमने गंगा में फेंके जाने वाले फूलों पर बात कि उन्होनें तय किया कि उन्होनें नदियों को हर हाल में प्रदूषण से बचाने के लिए कुछ अलग करना होगा |जब हमने लोगों को बताया कि हम नदियों को फूलों से होने वाले प्रदूषण से बचाने के लिए कुछ अलग काम करना चाहते है तब लोगों ने हमारा मज़ाक उड़ाया था लेकिन हमने किसी कि परवाह नहीं की वह बताते है कि 2014 तक में पुणे कि एक सॉफ्टवेयर कंपनी में ऑटोमेशन वैज्ञानिक के तौर पर काम कर रहा था वही पोस्ट ग्रेजुएट की पढ़ाई करने के बाद भारत आ कर अपना खुद का काम कर रहा था |
2015 में 72000 हज़ार रुपये में उन्होनें "हेल्प अस ग्रीन " नाम से कंपनी लॉन्च की हर किसी ने सोचा हम पागल है 2 हफ्ते बाद हमने अपना पहला उत्पाद वर्मीकम्पोस्ट लांच किया |इस उत्पाद में 17 कुदरती चीज़ों का मेल है इस उत्पाद के उत्पादन के बाद आईआईटी कानपुर भी हमारे साथ जुड़ गया | कुछ समय बाद हमारी कंपनी कानपुर के सरसौल गांव में पर्यावरण अनुकूल अगरबत्तियां भी बनाने लग गयी | अगरबत्तियों के डिब्बों पर भगवान की तस्वीरें होने की वजह से डस्टबिन में फेंकने से श्रद्धलुओं को दिक्कत होती थी |लिहाज़ा हमने अगरबत्तियों को तुलसी से बने कागजों में बेचना शुरू कर दिया था |आज उनकी कंपनी 22,००० एकड़ में फैली हुई है उनकी कंपनी में 80 से ज्यादा महिलाए काम करती हैं उन्हें रोजाना 200 रु.मजदूरी मिलती है उनकी कंपनी का सालाना टर्न -ओवर 3 करोड़ से ज्यादा है |
कंपनी का बिज़नेस कानपुर ,कन्नौज , उन्नाव जैसे कई शहरों में फ़ैल रहा है | उन्होनें अगरबत्तियों और वर्मीकम्पोस्ट उत्पाद के साथ -साथ ऐसी बायो-डिग्रेडेबल (प्राकृतिक तरीके से स्वयं गलना ) थर्माकोल लॉन्च की है जो पानी में जाते ही उसमें घुल के नष्ट हो जायेगी | अंकित और करण को "बिल एंड मेलिंडा फाउंडेशन" की तरफ से "गोल कीपर पुरस्कार "के लिए नॉमिनेट किया गया है |
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