तमाम विवादों और दबावों के बीच सरकार ने जेनेटिकली मोडिफाइड मस्टर्ड यानी जीएम सरसों को मंजूरी न देने का निर्णय किया है। पर्यावरण मंत्रालय की जेनेटिक इंजीनिर्यंरग अनुमोदन समिति की सहमति ऐसी फसलों के लिए अनिवार्य होती है। उसी ने इसे नामंजूर कर दिया। देश में कई संगठन इसका लगातार विरोध करते रहे हैं। संसद की दो समितियों की रिपोर्ट में भी जीएम फसलों के स्वास्थ्य व पर्यावरण पर प्रभावों के आकलन बिना मंजूरी न देने की बात कही गई थी। देश में अभी तक केवल जीएम फसलों के रूप में बीटी कपास की ही व्यावसायिक खेती हो रही है। साल 2010 में बीटी बैंगन को भी मंजूरी दिलाने की कवायद शुरू हुई थी, पर नौ राज्य सरकारों, कई पर्यावरण विशेषज्ञों, कृषि वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों और किसानों के व्यापक विरोध के कारण सरकार को अपना कदम वापस लेना पड़ा था। साल 2003 में हमारे देश में बीटी कपास की व्यावसायिक खेती को मंजूरी मिली थी। बीटी कपास से देश के कपास उत्पादक किसानों पर क्या प्रभाव पड़ा, इसको लेकर संसद की कृषि मामाले की स्थायी समिति ने अपनी 37वीं रिपोर्ट में काफी कुछ कहा था। ‘कल्टीवेशन ऑफ जेनेटिक मोडिफाइड फूड क्रॉप- संभावना और प्रभाव’ नामक रिपोर्ट में बताया गया है कि बीटी कपास की व्यावसायिक खेती करने से कपास उत्पादक किसानों की माली हालत सुधरने की बजाय बिगड़ गई। बीटी कपास में कीटनाशकों का अधिक प्रयोग करना पड़ा।
महाराष्ट्र में ही इन दिनों अपनी कपास को कीड़े से बचाने की जुगत में किसानों द्वारा अनजाने में मौत को गले लगाने के कितने मामले सामने आए। बीते कुछ दिनों में ही यवतमाल में ही 20 किसानों की मौत हो चुकी है। इन मौतों की वजह किसानों द्वारा खरीदा गया वह कीटनाशक बताया जा रहा है, जिसे उन्होंने फसल पर कीड़े खत्म करने के लिए छिड़का था। पिछले कुछ दिनों में कीटनाशकों के छिड़काव के कारण हुई 25 में से 20 किसानों की मौत अकेले यवतमाल जिले में ही हुई है। बीटी कपास उगाने वालों के लिए जिस कीटनाशक के उपयोग का प्रचार किया गया, उस वक्त किसानों को यह बताया ही नहीं गया कि इसको इस्तेमाल करते समय किन चीजों का खास ध्यान रखना जरूरी है। यह भी नहीं बताया गया कि इसको छिड़कने से पहले सावधानी नहीं बरती गई, तो मौत भी हो सकती है।
जेनेटिकली मोडिफाइड मस्टर्ड, जिसे जीएम सरसों कहते हैं, डीएमएच-11 का ही रूप है, जिसे दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर जेनेटिक मेनिपुलेशन ऑफ क्रॉप प्लांट्स ने विकसित किया है। इसे भारत सरकार की संस्थाओं ने ही आर्थिक सहयोग दिया है। जीएम सरसों से उत्पादकता में 30-35 प्रतिशत की बढ़ोतरी का दावा भी किया जा रहा था, जिससे हम खाद्य तेल का आयात कम कर सकेंगे। आलोचक कहते हैं कि जीएम मस्टर्ड की उत्पादकता का परीक्षण सरसों की जिस वेरायटी की तुलना में किया गया है, वह सही नहीं है। आरएच-749 किस्म से एक हेक्टयेर में 2,600- 2,800 किलो सरसों हो जाता है। डीएमएच-11 सरसों से एक हेक्टेयर में 2,626 किलो प्रति हेक्टेयर उत्पादन का दावा है। जीएम फसलों की खेती केवल छह देशों- अमेरिका, ब्राजील, कनाडा, चीन, भारत और अर्जेंटीना में ही हो रही है। दुनिया में कुल 18 करोड़ हेक्टेयर में इसकी खेती हो रही है और उसमें 92 प्रतिशत हिस्सा इन छह देशों की कृषि भूमि का ही है।
इसमें अमेरिका का हिस्सा 40 प्रतिशत और ब्राजील का हिस्सा 25 प्रतिशत है, जबकि बाकी 27 प्रतिशत भारत, चीन, कनाडा और अर्जेंटीना की कृषि भूमि है, जहां जीएम पैदावार हो रही है।
जीएम फसलें आम उपभोग और पर्यावरण के लिए अहितकर हैं, यह बात वर्षों से कई वैज्ञानिक, कृषक और पर्यावरणविद् करते आ रहे हैं। यह बात सही है कि हमें हर नई तकनीक का विरोध नहीं करना चाहिए, लेकिन यदि यह कृषि और किसान के हित को नजरअंदाज कर सिर्फ कुछ विदेशी कंपनियों के मुनाफे के लिए हो, तो उसका विरोध जरूरी है। इन सबके बीच जीएम सरसों को लेकर चल रही बहस पर फिलहाल इस नामंजूरी के बाद एक अल्पविराम लग गया है।
लेखक : केसी त्यागी, वरिष्ठ जद-यू नेता
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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