बिहार के सीवान में जिला मुख्यालय से कुल 31 किलोमीटर दूर प्रखंड मुख्यालय से पूर्व में 15 किमी की दूरी पर रिसवन करा ग्यासरपुर गांव वर्षों पहले कंबल उद्योग के रूप में जाना जाता था. इन दोनों ही गांवो के लोगों का मुख्य पेशा भेड़पालन का था. इन दोनों ही गांवों में 50 वर्षों से अधिक समय पहले तक यहां रहने वाले लोग पाल जाति के थे जो भेड़ पालन करते थे और साथ ही वे घरों में कंबल बनाने का कार्य भी कुशलता से करते थे. इसके व्यापार से उनको काफी लाभ होता था. घरों की सभी महिलाएं और पुरूष दोनों मिलकर साथ में कार्य करते थे. लेकिन आज आधुनिकता की दौड़ में मशीनों के आने से यह पूरा उद्योग चौपट हो गया है. इसका सीधा असर रोजगार पर पड़ रहा है क्योंकि भेड़पालन की आय से उनको इस व्यापार से अच्छा मुनाफा होता था. परिवार फिलहाल भेड़पालन की आय से अपना जीवन यापन कर रहे हैं.
कंबल व्यापार का खर्चा
फिलहाल भेड़पालन के साथ अगर कंबल व्यापार किया जाता है तो इसमें काफी मेहनत की आवश्य़कता होती है. किसान कहते हैं कि सबसे पहले भेड़ को पकड़कर उसके बाल काटने के बाद रूई से धुनाई का कार्य किया जाता है. इसके बाद चरखे पर कताई करके जमीन पर पेंच लगाकर सूत काटने का कार्य किया जाता है. इसके बाद सूत को थोड़ा मुलायम बनाने का कार्य किया जाता है. इसके बाद 6 फीट लंबे और 6 फीट चौड़े एक कंबल के लिए सूत काटने में लगभग तीन दिन का समय लगता है. इसीलिए इसकी बुनाई में भी समय लगता है. आज चूंकि इस कार्य पर लागत आती है इसीलिए लोगों के बीच उत्साह पूरी तरह से खत्म हो गया है.
कारीगारों को नहीं मिल रहा लाभ
दरअसल गांवों वालों का भेड़पालन का कार्य तो अच्छा चल रहा है लेकिन अब किसान और युवा कंबल के व्यापार को छोड़कर खेती-बाड़ी और मजदूरी की ओर आकर्षित हो रहे हैं. कारीगंरों का कहना है कि मशीन वाले कंबल फैशनेबल होते हैं लेकिन वह पूरी तरह से टिकाऊ नहीं होते हैं. जो कारीगर इन कंबलों को बनाते हैं उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं हो पाती है और काफी समस्या का सामना भी करना पड़ता है.
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