झांसी से 50 किलोमीटर दूर हमारी मुलाकात 55 साल के हरीराम से होती है. हरीराम ने पिछले एक साल में अपने खेतों में यूरिया का इस्तेमाल 75% घटा दिया है और वो गोमूत्र और गाय के गोबर का इस्तेमाल कर रहे हैं. जैविक खेती उनके लिये उम्मीद की नई किरण बन रही है. हरीराम ने हमें बताया कि "हम सब्जियों के अलावा धान और फलों की खेती करते हैं. जैविक खाद बनाने का तरीका सीखकर हमने खेती की लागत काफी घटाई है. लेकिन यहां पानी न मिलना एक बड़ी दिक्कत है जिसकी वजह से हमें काफी तकलीफ होती है." लेकिन उन्हें उम्मीद है कि जैसे-जैसे जैविक खेती में उनके कदम आगे बढ़ेंगे, परेशानी कम होती जाएगी.
हरीराम जैसे किसानों का अनुभव बताता है कि यूरिया का अधिक इस्तेमाल पानी की बेतहाशा मांग करता है और जैविक खेती में पानी की मांग अपेक्षाकृत काफी कम होती है. "अब हमें खेतों में हर रोज पानी नहीं लगाना पड़ता. इतनी गर्मी के मौसम में भी छठे या सातवें दिन पानी लगाने से काम चल जाता है."
हरीराम के खेत झांसी के तालबेहट ब्लॉक में हैं जहां नहरों का निर्माण हुआ है और उसके ज़रिए पानी पहुंच रहा है. हरीराम के उलट बुंदेलखंड के बहुत सारे किसानों के पास जैविक खेती की जानकारी या नहरों का नेटवर्क नहीं है. लिहाज़ा यूपी के इस हिस्से से लगातार पलायन हो रहा है. खासतौर से जब सूखे की मार पड़ती है तो लोगों के पास खाने को कुछ नहीं होता और वह लखनऊ, दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों को चले जाते हैं.
खेती के जानकार देविन्दर शर्मा कहते हैं, "बुंदेलखंड जैसे इलाकों में जहां पानी एक प्रचंड समस्या है वहां से पलायन होना कोई हैरानी की बात नहीं है. ऐसे में जैविक खेती ही एक विकल्प बचता है जिसमें पानी की ज़रूरत अपेक्षाकृत काफी कम होती है."
तालबेहट ब्लॉक के जगभान कुशवाहा दो साल पहले तक नरेगा (ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना) के तहत 20 किलोमीटर दूर मज़दूरी करने जाते थे अब वो जैविक तरीके से अपने खेतों में सब्जियां और अनाज उगा रहे हैं. जगभान बताते हैं, "यहां किसानों को बीस से पच्चीस हज़ार रुपये हर महीने कमाई इस खेती से हो रही है. जैविक खेती ने नरेगा जैसी सरकारी योजना पर निर्भरता घटाई है."
उत्तर प्रदेश में नरेगा के तहत 175 रुपये मज़दूरी दी जाती है. यानी हर महीने अधिकतम करीब साढ़े पांच हज़ार रुपये की कमाई. लेकिन समस्या ये है कि बुंदेलखंड में नरेगा के तहत काम नहीं मिल पा रहा है और जिन लोगों को काम मिलता है उनको भुगतान बहुत देर से होता है. यूपी में नरेगा के लिये संघर्ष कर रही संगतिन किसान मज़दूर संगठन की ऋचा सिंह कहती हैं, "नरेगा बहुत बुरे हाल में है. इस साल 26 जनवरी के बाद से मज़दूरों को कोई भुगतान नहीं हुआ है. अधिकारी हमें बताते हैं कि सरकार के पास इस योजना के लिए कोई रकम नहीं है."
जगभान बताते हैं कि जहां काम मिलने की संभावना होती है वहां ग्राम प्रधान अपने करीबियों और रिश्तेदारों को ही काम दिलवाते हैं. इस लिहाज से जैविक खेती उनके लिए कई गुना कमाई वाला एक सुरक्षित रोज़गार है.
मौसम के मनमौजी रवैये और आसपास के इलाकों में बरसात न होना भी पूरे बुंदेलखंड के लिये परेशानी का सबब बन रहा है. तालबेहट ब्लॉक के कराली गांव में रहने वाले आज़ाद कहते हैं, "ज़मीन में पानी का जलस्तर तो गिर ही रहा है और अगर आसपास के इलाकों में भी बरसात न हो तो नहरों में पानी की उपलब्धता पर असर पड़ता है."
लेकिन जैविक खेती से जुड़े किसानों और सामाजिक उद्यमियों की एक दिक्कत अपने उत्पादों के लिये बाज़ार ढूंढने की है. जैविक उत्पाद रासायनिक खेती के उत्पादों की तुलना में महंगे होते हैं और जब तक ग्राहक बड़े शहरों के कुछ हिस्सों तक सीमित रहेंगे और मांग नहीं बढ़ेगी ये दिक्कत कम होने वाली नहीं है.
जैविक खेती के जानकार श्याम बिहारी गुप्ता पिछले कई सालों से जैविक उत्पादों और ग्राहकों के बीच एक नेटवर्क बनाने की कोशिश में हैं. श्याम बिहारी गुप्ता कहते हैं, "जैविक तरीके से उगने वाली सब्ज़ियां, फल और अनाज महंगे होते हैं. उन्हें दिल्ली में हिंडन या यमुना नदी के किनारे नहीं उगाया जा सकता है क्योंकि ये तो खतरनाक रसायनों से भरी हुईं हैं. ग्राहकों को समझना होगा जब शुद्ध उत्पाद 500-600 किलोमीटर दूर से आएंगे तो उनकी कीमत थोड़ी अधिक होगी. ज़हर खाने और पैसा दवाइयों में खर्च करने से बेहतर है थोड़ा महंगा लेकिन सुरक्षित खाना खाना. इससे सैकड़ों किलोमीटर दूर बैठे किसी किसान का भी भला होता है."
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