हिन्दी साहित्य जगत में महिला सशक्तिकरण का उदाहरण रही व प्रमुख कवयित्रियों में से एक महादेवी वर्मा 110 वी जंयती के अवसर पर आज देश उनको स्मरण कर रहा है. गूगल ने उनके सम्मान में उनका डूडल बनाकर उन्हे श्रदांजली दी है. महादेवी वर्मा हिन्दी साहित्य जगत में छायावादी युग की चार प्रमुख स्तंभो में एक रही है. लोग उन्हे 'मॉर्डन मीरा' के नाम सें भी बुलाते थे. और निराला ने तो उन्हे हिन्दी के विशाल मंदिर की सरस्वती की उपाधि भी दे डाली थी.
महादेवी वर्मा उन चुनिंदा कवियों में से एक है. जिन्होने आजादी से पहले और आजादी के बाद का भारत देखा था. उन्होने अपने काव्य के माध्यम से ना केवल स्वतंत्रता संग्राम में योगदान दिया था. अपितु वह हर कवि सम्मेलन में भाग लेकर महिलाओं को भी स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए प्रेरित कर उनका नेतृत्व करती थी. उन्होने मन की पीडा को इतने स्नेह और श्रंगार से सजाया की दीपशिखा में वह जन-जन की पीड़ा के रुप में स्थापित हुई.
उनकी कविताओं की बोली खड़ी थी परंतु इसमे भी उन्होने उस कोमल शब्दावली का विकास किया जो इसे पूर्व केवल बृज भाषा में ही संभव था. इसके लिए उन्होने संस्कृत और बांग्ला के शब्दो को हिन्दी का जामा पहनाया. संगीत की जानकार होने के कारण उनके गीतो का नाद-सौंदर्य और पैनी उक्तियो की कटाक्ष शैली अत्यंत दुर्लभ है. वह इलाहाबाद प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधान अध्यापक और बाद में कुलपति के रुप में कारर्यत रह चुकी है. वह बौद्ध भिक्षु की दीक्षा लेना चाहती थी. लेकिन महात्मा गांधी के संर्पक में आने के बाद वह समाज सेवा के कार्यो में लग गई.
उनकी प्रमुख काव्य संग्रह इस प्रकार है. नीहार,रश्मि,नीरजा,संध्यगीत,दीपशिखा,अग्निरेखा आदि बहुत सी प्रसिद्ध रचनांए है.
विर्सजन (नीहार संग्रह से)
निशा की,धो देता राकेश
चांदनी में जब अल्के खोल,
कली से कहता था मधुमास
बता दो मधिमदिरा का मोल;
बिछाती थी सपनों के जाल
तुमहारी वह करुणा की कोर,
गई वह अधरों की मुस्कान
मुझे मधुमय पीडा में बोर;
झटक जाता था पागल वात
धूलि में तुहिन कणों के हार;
सिखाने जीवन का संगीत
तभी तुम आये थे इस पार.
गये तब से कितने युग बीत
हुए कितने दीपक निर्वाण
नहीं पर मैंने पाया सीख
तुम्हारा सा मनमोहन गान.
भूलती थी मैं सीखे राग
बिछ्लते थे कर बारम्बार,
तुम्हे तब आता था करुणेश.
उन्ही मेरी भूलों पर प्यार.
नही अब गाया जाता देव.
थकी अंगुली है ढीले तार
विश्ववीणा में अपनी आज
मिला लो यह अस्फुट झंकार.
रश्मि
चुभते ही तेरा अरुण बान
बहते कन कन से फूट फूट,
मधु के निर्झर से सजल गान.
इन कनक रश्मियों में अथाह
लेता हिलोर तम-सिन्धु जाग;
बुदबुद से बह चलते आपार,
उसमे विहगों के मधुर राग;
बनती प्रवाल का मृदुल कूल
जो क्षितिज रेख थी कुहर-म्लान.
नव कुन्द-कुसुम से मेघ-पुंज,
बन गए इंद्रधनुषी वितान;
दे मृदु कलियो की चटक, ताल,
हिम-बिन्दु नाचती तरल प्राण;
धो स्वर्णप्रात में तिमिरगात,
दुहराते अलि निशि-मूक तान.
सोरभ का फैला केश-जाल,
करती समीरपरियां विहार;
गीलीकेसर मद झूम-झूम,
पीते तितली के नव कुमार;
मर्मर का मधु संगीत छेड,
देते है हिल-पल्लव अजान
फैला अपने मृदु स्वपन पंख,
उड गई नींदनिशि क्षितिज पार;
अधखुले द्दगों के कंजकोष--
पर छाया विस्मृति का खुमार;
रंग रहा ह्दय ले अश्रु हास,
यह चतुर चितेरा सुधि विहान
नीरजा
प्रिय इन नयनो का अश्रु नीर
दुख से अविल सुख से पंकिल,
बुदबुद से सपनो से फेनिल,
बहता है युग-युग अधीर
जीवन पथ का दुर्गम तल
अपनी गति से कर सजल सरल,
शीतल करता युग तृषित तीर
इसमे उपजा यह नीरज सित,
कोमल कोमल लज्जित मीलित;
सौरभ सी लेकर मधुर पीर
इसमे ना पंक चिन्ह शेष,
इसमे ना ठहरता सलिल-लेश,
इसको ना जगाती मधुप भीर
तेरे करुणा कण से विलसित,
हो तेरी चितवन में विकसित,
छू तेरी श्वासों का समीर
दीपशिखा
दीप मेरे जल अकम्पित,
घुल अचंचल
सिन्धु का उच्छवास घन है,
तडित तम का विकल मन है,
भीती क्या नभ है व्यथा का
आंसुओ से सिक्त अंचल
स्वर प्रकम्पित कर दिशायें,
मीड सब भू की शिरायें,
गा रहे आंधी-प्रलय
तेरे लिए ही आज मंगल..........(कुछ छंद दीपशिखा से)
अग्निरेखा
किसी लौ का कभी संदेश
या आहुवान आता है
शलभ को दूर रहना ज्योति से
पल भर ना भाता है.
चुनौती का करेगा क्या, ना जिसने ताप को झेला... (अग्निरेखा संग्रह से कविता अग्नि-स्तवन के कुछ छंद)
पुरुस्कार व सम्मान
1956 में भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवा के लिए 'पद्म भूषण' की उपाधि और 1969 में 'विक्रम विश्वविघालय' ने उन्हे डी.लिट. की उपाधि से आलंकृत किया. इससे पूर्व महादेवी वर्मा को 'नीरजा' के लिए 1934 में 'सेकसरिया पुरस्कार',1942 में स्म़ृति की रेखाओ के लिए 'द्विवेदी पदक' प्राप्त हुए. 1943 में उन्हे 'मंगला प्रसाद' पुरुस्कार एंव उत्तर प्रदेश सरकार के भारत भारती पुरुस्कार से सम्मानित किया गया. 'यामा' नामक काव्य संकलन के लिए उन्हे भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञान पीठ पुरुस्कार से नव़ाजा गया.
महादेवी वर्मा की मृत्यु
अपना संपूर्ण जीवन प्रयाग इलाहाबाद में ही रहकर साहित्य की साधना की और काव्य जगत में आपका योगदान अविस्मरणीय रहेगा. आपके कार्य में उपस्थित विरह-वेदना अपनी भावनात्मक गहनता के लिए अद्भभुत मानी जाती है. और इन्ही कारणों से आपको आधुनिक युग की मीरा भी कहा जाता है. 11 सिंतबर 1987 को महादेवी वर्मा का स्वर्गवास हुआ.
भानु प्रताप
Share your comments