आजकल किसानों का रूझान वेटिवर(खस) की खेती की ओर हो रहा है. जिसके लिए नगला स्थित केंद्रीय औषध एवं सगंध पौध संस्थान इस खेती को किसानों के बीच बढ़ावा देने का प्रयास कर रहा है. इसकी फसल जल भराव और सूखाग्रस्त क्षेत्र के लिए भी फायदेमंद साबित हो सकती है. संस्थान के वैज्ञानिक वीआर सिंह और राजेन्द्र पडालिया ने बताया कि इसके लिए मुख्य रूप से समशीतोष्ण जलवायु उपयुक्त होती है.
यह जल भराव वाले स्थान जैसे नदी किनारे की भूमि और असिंचित क्षेत्र जैसे कच्छ के स्थान पर एवं 9.5 पीएच मान वाली भूमि में खस की खेती सफलता पूर्वक की जा सकती है. उन्होने बताया कि संस्थान ने खस की सात किस्में केएस-1, धारिणी, केशरी, गुलाबीद्व सिम वृद्धि, सीमैप खस-15, सीमैप खस-22 और सिमैप खस-खुसनालिका विकसित की है. उन्होंने बताया कि सामान्य तौर पर किसान इसकी रोपाई जुलाई-अगस्त में करते है
लेकिन खस की एक वर्षीय फसल के लिए स्लिप रोपण का उपयुक्त समय उत्तर भारत में अगस्त-सितंबर एवं फरवरी-मार्च है. इसकी जड़ों की खुदाई 11 माह में की जाती है. अक्टूबर-नवम्बर में रोपी खस के साथ गेहूं या मसूर तथा जनवरी-फरवरी में रोपी खस के साथ मेंथा आर्वेन्सिस, मेंथा पीपरेटा एवं तुलसी की फसल उगाई जा सकती है. जिससे अधिक लाभ अर्जित किया जा सकता है. जिसमें एक एकड़ में लगभग एक से डेढ़ लाख रूपये तक का मुनाफा हो सकता है. उन्होंने बताया कि खस की उपज 15 से 25 कुंतल प्रति हेक्टेयर होती है. जिससे 18-25 किग्रा प्रति हेक्टेयर तेल प्राप्त किया जा सकता है. इसकी खेती में व्यय प्रति हेक्टेयर 90 हजार रूपये है जबकि कुल आय प्रति हेक्टेयर तीन लाख 25 हजार रूपये है. जिससे प्रति हेक्टेयर लगभग सवा दो लाख से दो लाख 35 हजार तक का मुनाफा कमाया जा सकता है.
खस की खेती में संस्थान करता है सहयेाग
सीमैप संस्थान किसानों को खस की खेती के लिए स्लिप उपलब्ध कराता है. साथ ही संस्थान की परियोजनाओं के अंर्तगत किसानों को विशेष छूट भी दी जाती है. इसके अलावा समय-समय पर किसानों को इसकी खेती का प्रशिक्षण भी दिया जाता है.
खस का उपयोग
सीमैप के वैज्ञानिकों ने बताया कि खस की जड़ो से सुगंधित तेल, कास्मेटिक, साबुन, इत्र आदि का निर्माण होता है. इसका तेल उच्च श्रेणी का स्थिरक होने के कारण चंदन, लेवेंडर एवं गुलाब के तेल पर ब्लेंडिग में प्रयेाग किया जाता है. इसके अलावा तंबाकू, पान मसाला और शीतल पेय पदार्थों भी इसका प्रयोग किया जाता है.
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