देश में हरित क्रांति से पहले 1970 के दशक में भारत अनाज के आयात पर दूसरे देशों पर निर्भर था, हरित क्रांति के फलस्वरूप देश में नए एवं आधुनिक प्रजातियों का उत्पादन शुरू किया गया और हमारा देश अनाज व लोगों के भरण पोषण में आत्मनिर्भर हो गया. यह परिवर्तन इतना तीव्र था कि केवल लोगों के भरण पोषण में ध्यान दिया गया और उर्वरकों के अधिक प्रयोग से मृदा स्वास्थ्य में खराबी आयी. मृदा उत्पादकता में गिरावट के कारण मृदा संघनन, मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की कमी, जल धारण क्षमता में कमी, और जैविक गतिविधि की हानि, और सिंचित खेती वाले क्षेत्रों में मिट्टी और सिंचाई के पानी की लवणता, अतिवृष्टि के कारण बहुत सी जमीन की उत्पादकता में कमी आ गयी है. साथ ही आज कृषि को अन्य व्यवसायों की अपेक्षा कम लाभप्रद माना जा रहा है. क्योंकि लागत अधिक एवं मुनाफा कम होने से खेती में लोगों की रूचि घट रही है. वर्तमान समय में खेती में रसायनों के अधिक प्रयोग से सबसे बडा नुकसान मानव स्वास्थ को हो रहा है जो कि एक सोचनीय विषय है. अतः कार्बनिक खेती अब अपनाना जरुरी हो गया है.
शून्य बजट प्राकृतिक खेती क्या है? (What is Zero Budget Natural Farming?)
शून्य बजट प्राकृतिक खेती (Zero budget natural farming) एक ऐसी पद्धति है जो लागत कम करने के साथ ही जलवायु स्थायी कृषि तथा किसानों को स्थानीय स्तर पर इनपुट का उपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करती है और कृत्रिम उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग को समाप्त करती है. तथा मृदा स्वास्थ्य एवं मानव स्वास्थ्य को नुकसान से बचाती है. शून्य बजट प्राकृतिक खेती, एक अनूठा तरीका है, जिसमें बाजार से बीज, उर्वरक और पौधों के संरक्षण रसायनों जैसे महत्वपूर्ण आदानों की खरीद के लिए बिल्कुल कोई मौद्रिक निवेश की आवश्यकता नहीं होती है. किसान उर्वरकों और कीटनाशकों के बिना फसल की स्थानीय किस्मों को उगा सकते हैं. चूंकि यह एक शून्य बजट खेती है इसलिए किसी संस्थागत ऋण की आवश्यकता नहीं होगी और मानव श्रम पर निर्भरता भी कम से कम न्यूनतम हो जाएगी. शून्य बजट प्राकृतिक खेती विभिन्न कृषि सिद्धांतों के माध्यम से मिट्टी की उर्वरता में सुधार करने के बारे में है.
शून्य बजट प्राकृतिक खेती गाय के गोबर एवं गोमूत्र पर आधारित है. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि एक देसी गाय के गोबर एवं गोमूत्र से एक किसान तीस एकड़ ज़मीन पर ज़ीरो बजट खेती कर सकता है. देसी प्रजाति के गौवंश के गोबर एवं मूत्र से जीवामृत, घनजीवामृत तथा बीजामृत बनाया जाता है. यह जानना और भी रुचिकर होगा कि खेत में इनका उपयोग करने से मिट्टी में पोषक तत्त्वों की वृद्धि के साथ-साथ जैविक गतिविधियों का भी विस्तार होता है. इस विधि के अंतर्गत 90 फीसद पानी और खाद की बचत होती है. गाय के एक ग्राम गोबर में असंख्य सूक्ष्म जीव होते हैं जो भूमि उपलब्ध तत्वों से फसलों के लिये आवश्यक सभी तत्त्वों की पूर्ति करते हैं. इस पद्धति को अपनाने से गौ संरक्षण को भी बल मिलेगा गाय का भारतीय संस्क्रति में बहुत महत्व है तथा गाय को माता का दर्जा दिया गया है. उत्तर भारत में पाली जाने वाली देशी गाय की मेंवाती, तराई, गिर, गंगातीरी व साहीवाल आदि प्रजातियां शून्य बजट प्राकृतिक खेती के लिए उपयोग में लायी जा सकती है. खेती की इस पद्धति से उत्तर प्रदेश में नमामि गंगे स्वच्छता अभियान को बल मिला है जिसमें गंगा नदी के किनारे स्थित 26 जनपदो में गंगा किनारे के क्षेत्रों में शून्य बजट प्राकृतिक खेती अपनाने के लिए कृषि विभाग, उ0प्र0 द्वारा जागरुकता अभियान चलाया गया है.
शून्य बजट प्राकृतिक खेती अपनाने के फायदे (Advantages of adopting zero budget natural farming)
कम लागतः जीरो बजट प्राकृतिक खेती तकनीक के जरिए जो किसान खेती करते हैं उन्हें किसी भी प्रकार के केमिकल और कीटनाशकों तत्वों को खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती है और इस तकनीक में किसान केवल अपने द्वारा बनाई गई चीजों का इस्तेमाल केमिकल की जगह करते हैं. जिसके चलते इस प्रकार की खेती करने के दौरान कम लागत लगती है.
मृदा स्वास्थः केमिकल और कीटनाशकों तत्वों का इस्तेमाल खेती के दौरान इसलिए किया जाता है ताकि फसलों में किसी भी प्रकार का कीड़ा ना लग सके और फसल का अच्छे से विकास हो सकें. हालांकि, जब किसानों द्वारा केमिकल और कीटनाशकों तत्वों का छिड़काव फसलों पर किया जाता है तो इनके कारण जमीन के उर्वरकता को नुकसान पहुंचता है और कुछ समय बाद जमीन पर फसलों की पैदावार अच्छे से नहीं हो पाता है मगर जीरो बजट प्राकृतिक खेती तकनीक का इस्तेमाल किसानों द्वारा खेती के दौरान किया जाए तो इसकी मदद से जमीन का उर्वरकता बना रहता हैं और फसलों की पैदावार अच्छी होती है.
अधिक आयः जीरो बजट प्राकृतिक खेती के तहत केवल खुद से बनाई कई खाद का इस्तेमाल किया जाता है और ऐसा होने से किसानों को किसी भी फसल को उगाने में कम खर्चा आता है और कम लागत लगने के कारण उस फसल पर किसानों को अधिक मुनाफा होता है.
अच्छी पैदावारः जीरो बजट प्राकृतिक खेती के तहत जो फसल उगाई जाती है उसकी पैदावार काफी अच्छी होती है. इसलिए अगर आपको लग रहा है कि जीरो बजट प्राकृतिक खेती के तहत खेती करने से फसलों की पैदावार कम होगी तो ऐसा बिल्कुल नहीं है.
शून्य बजट प्राकृतिक खेती के निम्नलिखित चार स्तम्भ है-
जीवामृतः एक किण्वित सूक्ष्म जीवाणुओं की विधि है. यह पोषक तत्व प्रदान करता है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण, एक उत्प्रेरक एजेंट के रूप में कार्य करता है जो मिट्टी में सूक्ष्म जीवों की गतिविधि को ब्याव है. जीवमृत को केवल संक्रमण के पहले 3 वर्षों के लिए आवश्यक है, जिसके बाद प्रणाली आत्मनिर्भर हो जाती है.
जीवामृत तैयार करने की विधिः एक बैरल में 200 लीटर पानी डालें, 10 किलोग्राम ताजा देसी गाय का गोबर और 5 से 10 लीटर गोमूत्र, 2 किलोग्राम गुड़, 2 किलोग्राम दाल के आटे और एक मुट्ठी भर मिट्टी को खेत के बाँध से. घोल को अच्छी तरह से फेंट लें और इसे छाँव में 48 घंटे के लिए फेंटने दें. दिन में 2 बार लकडी से घडी की दिशा में घुमाकर घोले. 48 घन्टे बाद जीवामृत प्रयोग के लिए तैयार है.
प्रयोग विधिः एक एकड़ भूमि के लिए 200 लीटर जीवामृत पर्याप्त होता है. जीवामृत प्रयोग सिंचाई के पानी में या 10 प्रतिशत पर्ण छिडकाव के रूप में फसलों पर महीने में दो बार जीवमृथा लगायें.
बीजामृतः यह बीज, रोपाई या किसी भी रोपण सामग्री के लिए उपयोग किया जाने वाला उपचार है. बीजामृत कवक के साथ-साथ मिट्टी जनित और बीज जनित बीमारियों से बचाने में कारगर है जो आमतौर पर मानसून की अवधि के बाद पौधों को प्रभावित करते हैं. यह देसी गाय के गोबर, एक शक्तिशाली प्राकृतिक कवकनाशी, और गोमूत्र, एक मजबूत एंटी-बैक्टीरियल तरल, चूना, मिट्टी के समान सामग्री से बना है.
बीजामृत तैयार करने की विधिः 5 किलोग्राम ताजा देसी गाय का गोबर, 5 लीटर गोमूत्र, 50 गरम चूना, और एक मुट्ठी भर मिट्टी को 20 लीटर पानी में 24 घंटे रखे. दिन में 2 बार लकड़ी से घड़ी की दिशा में घुमाकर घोले. 24 घन्टे बाद जीवामृत प्रयोग के लिए तैयार है
प्रयोग विधिः बीज उपचार के रूप में बीजामृत का प्रयोग किसी भी फसल के बीज में बीजामृत सें कोट करें, हाथ से मिलाएं. उन्हें अच्छी तरह से सुखाएं और बुवाई के लिए उपयोग करें. फलीदार बीज के लिए, बस उन्हें जल्दी से डुबोएं और सूखने के लिए रख दें और बुवाई के लिए उपयोग करें.
आच्छादनः मिट्टी की नमी का संरक्षण करने के लिए व उत्पादन क्षमता बनाये रखने के लिए निम्नलिखित तीन प्रकार के आच्छादन का प्रयोग किया जाता हैं.
क) मृदा आच्छादन : यह खेती के दौरान मृदा की ऊपरी सतह की रक्षा करता है और झुकाव द्वारा इसे नष्ट नहीं करता है. यह मिट्टी में वायु संचारण और जल प्रतिधारण कोबढ़ा देता है.
ख) काष्टाच्छादन : काष्टाच्छादन पिछली फसलों के सूखे पत्ती, डंठल व अपशिष्ट द्वारा आच्छादन को संदर्भित करता है, साथ ही यह किसी भी जीवित प्राणी (पौधों, जानवरों, आदि) की मृत सामग्री से बना हो सकता है. जो कि सूक्ष्म जीवो द्वारा विघटित होकर मिटटी में कार्बन का निर्माण करेगी.
ग) सजीव आच्छादन (सहजीवी अन्तःफसल और मिश्रित फसलें) : क्षेत्र, मिट्टी और फसलों के लिए सभी आवश्यक तत्वों की आपूर्ति करने के लिए सहजीवी अन्तःफसल और मिश्रित फसलें लेनी चाहिए. उदाहरण के लिए, फलियां डायकोट समूह की हैं और नाइट्रोजन-फिकिंसग संयंत्र हैं. चावल और गेहूं जैसे मोनोकॉट अन्य तत्वों जैसे पोटाश, फॉस्फेट और सल्फर की आपूर्ति करते हैं. साथ ही सहअस्तित्व के आधार पर कीटो एवं रोगो से बचाव व प्राकृतिक संसाधनो का बटवारा कर एक दूसरे की बढ़वार में सहयोग करते है.
अन्तः फसल मुख्य रूप से शून्य बजट प्राकृतिक खेती को “शून्य बजट“सिद्ध करती है इसका यह अर्थ नहीं है कि किसान के पास कोई लागत नहीं है, बल्कि यह है कि किसी भी लागत का भुगतान अन्तः फसल-की आय से किया जाएगा, जिससे खेती शून्य बजट गतिविधि के करीब हो जाएगी.
वापसा नमीः हरित क्रांति की खेती में सिंचाई पर निर्भरता का सामना करना पड़ता है. वापसा वह स्थिति है जहां मिट्टी में हवा के अणु और पानी के अणु दोनों मौजूद होते हैं, और वह सिंचाई को कम करने के लिए प्रोत्साहित करता है, केवल दोपहर में सिंचाई करना, शून्य बजट प्राकृतिक खेती में सिंचाई की आवश्यकता में महत्वपूर्ण गिरावट करता हैं. कंटूर और बंड्स बारिश के पानी को संरक्षित करने के लिए लाभदायक है.
संपूर्ण शून्य बजट प्राकृतिक खेती पद्धति भारतीय गाय पर केंद्रित है, जो ऐतिहासिक रूप से भारतीय ग्रामीण जीवन का हिस्सा रही है. निष्कर्षः शून्य बजट प्राकृतिक खेती छोटे और सीमांत किसानों के लिए खेती के संकट को दूर करने के लिए एक कृषि मॉडल के रूप में उभरा है और आजीविका को बनाए रखने के बाद प्राकृतिक खेती के आधार और परिवार के स्वास्थ्य को प्राथमिकता पर रखा गया है. यह बाहरी इनपुट्स को समाप्त करने और इन-सीटू संसाधनों का उपयोग करके मिट्टी को फिर से जीवंत करने के लिए, साथ ही साथ आय में वृद्धि, पारिस्थितिकी तंत्र/मिट्टी के स्वास्थ्य को बहाल करने और विविध, बहु-स्तरित फसल प्रणालियों के माध्यम से जलवायु लचीलापन को कम करने के माध्यम से किसानों की लागत को कम करता है. पिछले कुछ समय से किसानों के रासायनिक खेती के प्रति रुझान में कमी आई है. इस तकनीक का इस्तेमाल करने वाला किसान कर्ज़ के झंझट से भी मुक्त रहता है. अतः हमें इस संदर्भ में और अधिक गंभीरता के साथ विचार करने की आवश्यकता है ताकि पर्यावरण को सुरक्षित रखते हुए अन्नदाताओं की उपज एवं आय में वृद्धि का विकल्प भी संभव हो और आमदनी में वृद्धि के मार्ग को प्रशस्त किया जा सके. अतः शून्य बजट प्राकृतिक खेती के कृषि मॉडल के जीवंत, उत्साहजनक परिणाम को अपनाया जाना चाहिए
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