केला एक अधिक पोषण तत्व ग्रहण करने वाली फसल है. खाद एवं उर्वरक की मात्रा मृदा की उर्वराषक्ति, रोपण पद्वति, किस्म, उर्वरक देने की विधि एवं कृषि जलवायु दषा पर निर्भर करती है.
सामान्य वृद्वि एवं विकास हेतु 100-250 ग्राम नत्रजन, 20-50 ग्राम स्फुर एवं 200-300 ग्राम पोटाष प्रति पौधा आवष्यक होता है. नत्रजन एवं पोटाष को 4-5 भागों में बांटकर देना चाहिए एवं स्फुर की सम्पूर्ण मात्रा को रोपण के समय ही देना चाहिए.
सिंचाई जल के साथ उर्वरक उपयोग
टपक पद्वति द्वारा सिंचाई के साथ जल में घुलनषील उर्वरकों का प्रयोग फर्टिगेषन कहलाता है.
जल प्रबन्धन
केला को रोपण से लेकर तुड़ाई तक 1800-2200 मिली. मीटर जल की आवष्यकता होती है. केले में मुख्यतः कूंड, थाला एवं टपक सिंचाई पद्वित द्वारा सिंचाई की जाती है. केले को ग्रीष्म ऋतु में 3-4 दिन एवं शरद ऋतु में 8-10 दिन के अन्राल पर सिंचाई की आवश्यकता होती है. ड्रिप पद्वति द्वारा सिंचाई की विधि भी कृषकों के बीच लोकप्रिय हो रही है. इस पद्वति से सिंचाई करने पर 40-50 प्रतिषत पानी की बचत होने के साथ ही प्रति इकाई क्षेत्रफल से उत्पादन भी अधिक प्राप्त होता है. ड्रिप सिंचाई पद्वति में 5 से 18.6 लीटर पानी/दिन/पौधा की दर से विभिन्न अवस्थाओं में आवष्यक होता है.
मल्च का प्रयोग
मल्च के प्रयोग से भूमि में नमी का संरक्षण होता है. साथ ही खरपतवारों की वृद्वि भी रूकती है। गुजरात कृषि विष्वविद्यालय, नवसारी में ड्रिप सिंचाई पद्वति के साथ गन्ने की खोई अथवा सूखी पत्ती 15 टन प्रति हैक्टेयर की दर से मल्च द्वारा केले के उत्पादन में 49 प्रतिषत तक की वृद्वि दर्ज की गई है तथा 30 इसके साथ ही 30 प्रतिषत पानी की बचत भी होती है. इसके अतिरिक्त पॉलिथिन सीट द्वारा मल्चिंग से भी अच्छे परिणाम प्राप्त हुए हैं.
देखभाल
मिट्टी चढ़ाना
पौधों पर मिट्टी चढ़ाना आवष्यक होता है, क्योंकि इसकी जड़ें उथली होती हैं। कभी-कभी कंद भूमि से बाहर आ जाते हैं तथा इस कारण उनकी वृद्वि रूक जाती हैं.
अनाचष्यक सकर निकालना
केले के पौधों में पुष्प गुच्छ निकलने से पूर्व तक सकर्स को नियमित रूप से निकालते रहना चाहिए। जब 3/4 पौधों में पुष्पन हो जाए तब एक सकर को छोड़कर अन्य सब काटते रहें.
सहारा देना
केले के फलों का गुच्छा भारी होने के कारण पौधे नीचे की ओर झुक जाते हैं. पौधों को गिरने से बचाने हेतु बांस की बल्ली या दो बांसों को आपस में बांधकर कैंची की तरह बनाकर फलों के गुच्छों को सहारा देना चाहिए.
गुच्छों को ढ़ंकना
गुच्छों को सूर्य की सीणी तेज धूंप से बचाने एवं फलों का आकर्षक रंग प्राप्त करने के लिए, गुच्छों को छिद्रदार पॉलीथिन बैग अथवा सूखी पत्तियों से ढ़ंकना चाहिए.
केला पौध संरक्षण
कीट
प्रकन्द छेदक कीट
ठस कीट का वैज्ञानिक नाम कॉस्मोपोलाइट्स साडिडस है. इस कीट का प्रकोप पौध लगाने के एक या दो माह बाद ही शुरू हो जाता है. प्रारम्भ में इस कीट के ग्रब तने में छिद्र करके तने को खाते हैं, जो बाद में राइजोम की तरफ स्थानान्तरित हो जाते हैंय इसके प्रकोप से पौधों की वृद्वि मंद पड़ जाती है. पौधें बीमार से प्रतीत होने लगते हैं तथा उनकी पत्तियों पर पीली धारियां उभर आती है. इस कीट के अधिक प्रकोप से पत्ती एवं धार का आकार छोटा हो जाता है.
नियन्त्रण
-
स्वस्थ सकर का ही चुनाव करें
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एक ही खेत में लगातार केला की फसल न लें
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स्कर को रोपण से पूर्व 0.1 प्रतिषत कीनाॅलफाॅस के घोल में डुबोएं
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श्रोपण के समय क्लोरोपायरीफाॅस चूर्ण प्रति गड्ढ़े की दर से मिट्टी में मिलाएं
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प्रभावित एवं सूखी पत्तियों को काटकर जला दें
-
कार्बोफ्यूराॅन 20 ग्राम प्रति पौधा के उपयोग से इस कीट का प्रभावी नियन्त्रण होता है
तना बेधक कीट
इस का वैज्ञानिक नाम वैज्ञानिक नाम ओडोइपोरस लांगिकोल्लिस है. इस कीट के प्रकोप से पत्तियां धीरे-धीरे पीली पड़नी शुरू हो जाती हैं, बाद में तने पर पिन के षिर के आकार के छिद्र दिखाई पड़ने लगते हैं। तत्पष्चात् तने से गोंद जैसा लिसलिसा पदार्थ निकलना शुरू हो जाता है। ग्रब प्रारम्भ में पर्णवृन्त को खोते हैं, बाद में तने में लम्बी सुरंग बना देते हैं जो बाद में सड़कर दुर्गन्ध पैदा करती है। इस कीट के अधिक प्रकोप से पौधों पर फूल नही आते हैं अथवा फूलों की संख्या बहुत कम हो जाती है. घार का आकार बहुत छोटा रह जाता है एवं फलों का विकास अच्छी प्रकार से नही हो पाता है.
नियन्त्रण
1. प्रभावित पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर दें
2. प्रकन्द छेदक कीट के नियन्त्रण के समान उपाय करें
3. माहू
इस कीट का वैज्ञानिक नाम पेन्टालोनिया नाइग्रोनर्वोसा है. यह कीट पौधों से रस चूसकर पौधों की वृद्वि को प्रभावित करता है तथा शीर्ष गुच्छ रोग पैदा करने वाले विषाणु का प्रसार करता है.
नियन्त्रण
1. प्रभावित पौधों को उखाड़कर नष्ट कर दें।
2. प्रभावित क्षेत्रों में पेड़ी फसल न लें।
3. डायमिथोएट 2 मिली/लीटर की दर से पानी में घोलकर छिड़काव करें.
रोग
सिगाटोका पत्ती धब्बा
यह रोग सरकोस्पोरा म्यूजीकोला नामक फफॅंूद से होता है. इस रोग के प्रारम्भ में पत्ती की वाह्य सतह पर पीले धब्ब बनना शुरू होकर बाद में लम्बी काली धारियों के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं और कालान्तर में बड़े-बड़े धब्बों का रूप ले लेते हैं. इस प्रकार के धब्बे पत्तियों के किनारें एवं अग्र भाग में अधिक पाए जाते हैं. संवेदनषील किस्मों में 2-3 पत्तियों को छोड़कर शेष सभी पत्तियां इस रोग से ग्रसित होकर सूख जाती है. साथ ही फलों का आकार भी छोटा रह जाता है, समय से पूर्व ही फल पक जाते हैं एवं उनकी गुणवत्ता कम हो जाती है. वातावरण में आर्द्रता अधिक होने एवं औसत तापमान के कम होने के कारण इस रोग का प्रकोप अधिक होता है.
1. खेत को खरपतवारों से मुक्त रखें.
2. खेत में जल निकास का समुचित प्रबन्ध रखें.
3. रोग एवं कीटों से प्रभावित सूखी पत्तियों को काटकर जला देना चाहिए.
4. कवक नाषी जैसे कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर अथवा कवच 2 ग्राम प्रति लीटर या सन 0.7 मि.ली. प्रति लीटर की दर से छिड़काव करें.'
पर्ण धब्बा
यह रोग ग्लोइयोस्पोरियम म्यूजी एवं टोट्रायकम ग्लोइयोस्पोरियोडियम नामक विषाणु से हेती है. इस रोग में पत्तियों के सिरे पर हल्के भूरे अथवा काले धब्बे दिखाई पड़ते हैं, जिसके बाद में पत्तियां सूख जाती है तथा उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.
नियन्त्रण
कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम या कवच 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें.
उकठा रोग
यह रोग फ्यूजेरियम आॅक्सीस्पोरम किस्म की यूबेन्स नामक फफॅंूद से होता है. इस रोग के लक्षण पौध लगाने के 5-8 माह के बीच दिखाई देने लगते हैं. पुरानी पत्तियों में पीलापन पत्तियों के किनारे से प्रारम्भ होकर मध्य षिरे की ओर बढ़ता है. बाद में पत्तियों का रंग पीला पड़ जाता है. प्रभावित पत्तियां तने के चारों ओर गोलाई में लटक जाती हैं. तने का निचला भाग लम्बाई में फट जाता है. प्रभावित पौधे के तने एवं कन्द को लम्बवत् काटने पर वैस्क्युलर ऊतक लाल से लेकर भूरे रंग के दिखाई देने के 1 से 2 माह के भीतर पौधा मर जाते हैं.
नियन्त्रण
1. रोपण से पूर्व कन्द को कार्बेन्डिाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल में डुबोकर रोपण करें.
2. रोपण के पांच माह बाद से कार्बेन्डाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर दो माह में एक बार टोआ दें.टिप ओवर
यह रोग इर्विनया केरोटोवोरा नामक जीवाणु के कारण होता है. इस रोग में राइजोम में सड़न पैदा होती है. प्रभावित तन्तु मुलायम हो जाता है. पत्तियां पीली पड़ जाती हैं.
नियन्त्रण
1. स्ट्रप्टोसाइक्लिन 750 पीपीएम काॅपरआक्सीक्लोराइड 2.5 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें.
सिगार गलन
यह रोग वर्टीसिलियम थियोब्रामी नामक फफूंद से होता है. यह रोग वर्षा ऋतु में अधिक प्रभावी रहती है. अपरिपक्व फलों के अग्र भाग से काली भूरी सड़न शुरू होकर धीरे-धीरे 2.0-2.5 से.मी. आगे तक फलों को प्रभावित करता हैं।.प्रभावित भाग जली हुई सिगार जैसा प्रतीत होता है, जिसके कारण इस रोग का नाम सिगार गलन रोग के नाम जाना जाता है.
नियन्त्रण
इस रोग की रोकथाम हेतु फल बनने की अवस्था पर थायोफेनेटमिथाइल या बिटरटेनाल 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें.
शीर्ष विषाणु रोग
यह रोग विषाणु के द्वारा होता है। इस रोग में पत्तियों की भीतरी मध्य षिरा की द्वितियक नसों के साथ गहरी धारियां प्रारम्भिक लक्षण के रूप में दिखाई देते हैं. ये असामान्य लक्षण गहरे रंग की रेखाओं में 2.5 से.मी. या अधिक अनियमित रूप से पत्तियों के किनारों के साथ होते हैं. पत्तियों का आकार बहुत ही छोटा हो जाता है, जो असामान्य रूप से ऊपर की ओर गुच्छों के रूप में निकलती हैं. इस रोग से प्रभावित पत्तियों से तैयार पौधों की वृद्वि बहुत ही कम होती है जिनमें फूल नही आते हैं. इस विषाणु का फैलाव माहू के द्वारा होता है.
नियन्त्रण
1. रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर नष्ट कर दें
2. रोग वाहक कीट माहू की रोकथाम करें
3. माहू के नियंत्रण हेतु डायमिथोएट 2 मि.ली. प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें.
केला का धारी विषाणु
यह रोग विषाणु के द्वारा होता है. इस रोग में पत्तियों पर छोटे-छोटे पीले धब्बे बनते हैं बाद में सुनहरी पीली धारियों का विकास एवं पीली धारियों वाली पत्तियां सड़न युक्त हो जाती है. इस रोग के चलते उत्पादन में 30-40 प्रतिषत तक का ह्रास हो सकता है. यह रोग मिली बग द्वारा फैलता है.
नियन्त्रण
1. रोग रहित सकर का रोपण करें
2. मिली बग कीट का नियंत्रण करें
नेमाटोड़
नेमाठोड द्वारा केला उत्पादन में लगभग 20 प्रतिषत का ह्रास होता है. केला मुख्यतः बुरोइंग नेमाटोड रेडोफोलस सिमिलिस, लीजन नेमाटोड, प्रैटिलेंकस काफफिडर्, स्पाइरल नेमाटोड, हेलाकोटीलेप्चस मल्टीसिनकट्स एवं सिस्ट नेमाटोड, हेटेरोठोरा स्पी के आक्रमण से होता है.
लक्षण
सूत्रकृमि के संक्रमण से पौधों की वृद्वि मंद पड़ जाती है। तना पतला रह जाता है. पत्तियों पर धब्बे बन जाते हैं. घार का आकार बहुत छोटा रह जाता है। सूत्रकृमि के लक्षण जडों और कंदों पर अधिक स्पष्ट होते हैं. सूत्रकृमि से प्रभावित पौधे खेत में नमी होने पर थोड़ी तेज हवा से ही गिर जाते हैं.
नियन्त्रण
1. सूत्रकृमि प्रभावित क्षेत्रों से रोपण सामग्री का चयन न करें.
2. गन्ना अथवा धान फसल चक्र अपनाएं.
3. सनई, धनिया एवं गैंदा को अन्तः फसल के रूप में उगाएं.
4. नीम केक 400 ग्राम प्रति पौधा रोपण के समय एवं रोपण के 4 माह बाद प्रयोग करें.
5. रोपण के समय तथा उसके बाद 3 माह के अन्तराल से कार्बोफ्यूरान 20 ग्राम प्रति पौधा की दर से प्रयेग करें.
केला की खेती पर होने वाले आय-व्यय का आंकलित ब्यौरा प्रति हेक्टेयर (रूपये में)
क्र0 सं0 |
विवरण |
मुख्य फसल |
पेडी फसल |
1- |
खेत की तैयारी- (अ) 2 जुताई ट्रैक्टर चालित कल्टीवेटर द्वारा 5 घण्टा (350 रूपये प्रति घण्टा) (ब) खेत का समतलीकरण |
1750.00
700.00 |
----
----- |
2- |
गड्ढ़ों की खुदाई- 4444 गड्ढ़े (60 ग 60 ग 60 से.मी. आकार के) 5 रूपये प्रति गड्ढ़ा |
22220 |
----- |
3- |
रोपण सामग्री- 4500 सकर 5 रूपये प्रति सकर |
22500 |
----- |
4- |
खाद एवं उर्वरक- 1.गोबर की खाद 40 टन 200 रूपये प्रति टन। 2.यूरिया 2451 कि.ग्रा. 5.02 रूपये प्रति कि.ग्रा.। 3.सिंगल सुपर फास्फेट 1388 कि.ग्रा. 3.53 रूपये प्रति कि.ग्रा.। 4.म्यूरेट आफ पोटाष 1851 कि.ग्रा. 4.63 रूपये प्रति कि.ग्रा.। |
8000.00 12304.00 4900.00
5870.00 |
8000.00 12304.00 4900.00
8570.00 |
5- |
निड़ाई-गुड़ाई- 4 बार 25 मजदूर प्रति निंदाई, 100 रूपये प्रति मजदूर की दर से |
10,000.00 |
10,000.00 |
6- |
सिंचाई- 40 सिंचाई 200 रूपये प्रति सिंचाई की |
8000.00 |
8000.00 |
7- |
मिट्टी चढ़ाना- 25 मजदूर, 100 रूपये प्रति मजदूर |
2500.00 |
2500.00 |
8- |
सहारा देना- सामग्री 15 रूपये प्रति पौधा |
60,000.00 |
60,000.00 |
9- |
पौध संरक्षण- |
10,000.00 |
10,000.00 |
10- |
तुड़ाई- 50 मजदूर, 100 रूपये प्रति मजदूर |
5000.00 |
5000.00 |
11- |
केला पकाना- |
6000.00 |
4200.00 |
12- |
परिवहन व्यय- विक्रय हेतु खेत से बाजार तक |
10,000.00 |
7000.00 |
13- |
कुल व्यय- |
192444.00 |
140474.00 |
14- |
कुल व्यय पर 9 प्रतिषत वार्षिक दर से ब्याल |
17320.00 |
12643.00 |
15- |
कुल व्यय |
209764.00 |
153117.00 |
16- |
उत्पादन- मुख्य फसल- 25 कि.ग्रा. प्रति पौधा 4000 पौधों से पेड़ी फसल- 20 कि.ग्रा. प्रति पौधा 3500 पौधों से |
1000 क्विंटल |
700 क्विंटल |
17- |
विक्रय- 5000 रूपये प्रति क्विंटल |
500,000.00 |
350,000.00 |
18- |
शुद्व आय- |
290236.00 |
196883.00 |
19- |
लाभ-लागत अनुपात |
2-38 |
2-28 |
तुड़ाई
फलों की तुड़ाई किस्म, बाजार एवं परिवहन के साधन आदि पर निर्भर करती है. केला की बोनी किस्में 12 से 15 माह बाद और ऊॅंची किस्में 15 से 18 माह बाद तोड़ने योग्य हो जाती हैं. सामान्यतः फल की धारियों के पुर्णतया गोल होने पर गुच्छों की तुड़ाई तेज धारदार हासिए से करनी चाहिए। केले दूरस्थ बाजारों में भेजने के लिए जब उनका 3/4 भाग पक जाए तो उन्हे काट लेना चाहिए.
पकाना
केला एक क्लाईमैक्टेरिक फल है, जिसे सही अवस्था में पौधे से ताड़ने के बाद पकाया जाता है। केला को पकाने के लिए इथिलिन गैस का उपयोग किया जाता है. इथिलिन गैस फलों को पकाने का एक हार्मोन है, जो फलों के अन्दर श्वसन क्रिया को बढ़ाकर उनकी परिपक्वता में तीव्रता लाता है. केले को एक बन्द कमरे में एकत्र कर 15-18 डिग्री तापक्रम पर इथिलिन (1000 पीपीएम) से 24 घण्टे तक फलों को उपचार के द्वारा पकाया जाता है.
पैकिंग
केले को आकार के अनुसार श्रेणीकरण कर उन्हे वर्ग के अनुसार अलग-अलग गत्ते के 5 प्रतिषत छिद्रों वाले छोटे-छोटे (12-13 कि.ग्रा.) डिब्बों में भरकर बाजार भेजना चाहिए.
टिशू कल्चर केले के पौधों को उगाने के फायदेः
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वृद्धि में समानता
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अधिक उपज एवं उत्पाद में एकरूपता
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रोगाणुध्संक्रामक रोग से मुक्त
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फूल का शीघ्र आना और फसल का शीघ्र तैयार होना
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अधिक पैदावार।
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6 से 28 महीने में तीन फसलें-
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पहली फसल पौध लगाने के ११ से १२ माह के अंदर
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ब. दूसरी फसल 8 से 9 माह के अंदर
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स. तीसरी फसल 7 से 8 महीने के अंदर
साल भर पौध का उपलब्ध होना.
यह सर्वविदित है कि केला हमारे देश की एक महत्वपूर्ण नकदी फसल है. केला उत्पादन में भारत दुनिया में पहली रैंक हासिल करता है. परम्परागत रूप से केले का प्रचार वानस्पतिक साधनों के माध्यम से किया जाता है यानि स्टेम सकर रोग-मुक्त गुणवत्ता वाले रोपण सामग्री की उपलब्धता एक इष्टतम केले की उपज पैदा करने के लिए पहली आवश्यकता है. आजकल, टिशू कल्चर के माध्यम से केले के प्रसार का चलन बहुत अधिक है और किसान फसल की गुणवत्ता और पैदावार के कारण टिशू कल्चर के पौधों का उपयोग कर केला उगा रहे हैं.
बढ़ रही है केले की मांग
केले की मांग दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है. गुणवत्तापूर्ण रोपण सामग्रियों की किसान की आवश्यकताओं की पूर्ति वैज्ञानिकों की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए. केले की खेती को बढ़ावा देने और लोकप्रिय बनाने के लिए, डीबीटी वित्त पोषित अनुसंधान परियोजना ‘‘टिशू कल्चर तकनीक के माध्यम से रोग.मुक्त केला पौधों का उत्पादन व नर्सरी की स्थापना और किसानों के बीच कम लागत के पौधों के वितरण‘‘ वर्तमान में कृषि जैव प्रौद्योगिकी विभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि विश्वविद्यालय, मेरठ, उत्तर प्रदेश में डॉ0 आर. एस. सेंगर की देखरेख में चल रही है. इस शोध परियोजना के निष्कर्ष बकाया हैं और यह भी पता चला है कि इस परियोजना का कार्यान्वयन पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के लिए सहायक है. वे केले की खेती के प्रति अपनी रुचि दिखा रहे हैं और इससे लाभ प्राप्त कर रहे हैं.
केला हमारे देश की एक प्रमुख फल फसल है. नकदी फसल होने के नाते, यह फसल विविधीकरण के लिए भी एक महत्वपूर्ण फसल है.
केले की खेती में मुख्य बाधाएं
किसानों के लिए रोग.मुक्त रोपण सामग्री की अनुपलब्धता हैं, ताकि, फसल की पैदावार को बनाए रखने के लिए केले की खेती के लिए गुणवत्ता वाले रोपण सामग्री बनाने की तत्काल आवश्यकता हो. केले की खेती को बढ़ावा देने और लोकप्रिय बनाने के लिए, डीबीटी वित्त पोषित अनुसंधान परियोजना ‘‘टिशू कल्चर तकनीक के माध्यम से रोग.मुक्त केला पौधों का उत्पादन व नर्सरी की स्थापना और किसानों के बीच कम लागत के पौधों के वितरण‘‘ वर्तमान में कृषि जैव प्रौद्योगिकी विभाग, सरदार वल्लभभाई पटेल कृषि विश्वविद्यालय, मेरठ, उत्तर प्रदेश में डॉ0 आर. एस. सेंगर की देखरेख में चल रही है. इस परियोजना के कार्यान्वयन को किसान की आय और फसल विविधीकरण को बढ़ाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम कहा जा सकता है. हालाँकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान गन्ने की खेती के शौकीन हैं, लेकिन इसके साथ ही वे अपनी आजीविका हासिल करने और आय को बनाए रखने के लिए केले को एक वैकल्पिक फसल के रूप में अपना रहे हैं.
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