जलवायु में परिवर्तन एक वैश्विक समस्या के रूप में उभर रहा हैं. तापमान में वृद्धि, गैसीय असंतुलन, अनियमित मानसून आदि का बुरा प्रभाव कृषि पर भी पड़ रहा हैं. सोयाबीन खरीफ की फसल हैं यह असमय वर्षा, बाढ़, सूखा से अत्यधिक प्रभावित होती हैं. भारत में सोयाबीन की उत्पादकता 800 किलोग्राम/हैक्टेयर हैं जो कि विश्व (2700 किलोग्राम/हैक्टेयर) की तुलना मे 70 प्रतिशत कम हैं. परिवर्तित होती जलवायु में हमें जलवायु स्मार्ट कृषि की तरफ अग्रसर होना होगा.
मौसम पूर्वानुमान
मौसम पूर्वानुमान की सटीक जानकारी होने पर कृषक अपने खेत में किये जाने वाले कार्य को बिना किसी त्रुटि के साथ संपन्न कर सकते हैं. राष्ट्रीय सोयाबीन अनुसंधान संस्थान प्रत्येक सप्ताह सोयाबीन कृषको के लिए उपयोगी सलाह जारी करता हैं जिसे संस्थान की वेबसाइट https://iisrindore.icar.gov.in/FarmerAdvisory.htm पर देखा जा सकता हैं. भारतीय मौसम विभाग मौसम पूर्वानुमान से जुडी कृषि सलाह राज्य तथा तालुका स्तर पर जारी करता है जिसे विभाग वेबसाइट http://imdagrimet.gov.in/imdproject/AGDistrictBulletin.php से प्राप्त किया जा सकता हैं तथा मौसम आधारित फार्म प्रबंधन, भारतीय मौसम विभाग एवं भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के संयुक्त प्रयासों द्वारा बनाये मेघदूत मोबाइल ऐप से किया जा सकता हैं.
अंकुरण परिक्षण
सोयाबीन एक ऐसी फसल हैं जिसके बीजों की जीवंतता भंडारण के समय उचित तापमान, वातावरण की नमी, ऑक्सीजन की मात्रा आदि से काफी प्रभावित होती हैं. अच्छा उत्पादन लेने के लिए प्रथम शर्त यही हैं कि खेत में पौधों की संख्या उपयुक्त हो इसलिए फसल के बुवाई से पूर्व बीजो का अंकुरण परीक्षण करना चाहिए जिससे बीज की गुणवत्ता तथा प्रति हैक्टेयर लगने वाले बीज की मात्रा ज्ञात हो सके.
बीजों के अंकुरण परिक्षण के लिए टाट के बोरे को जमीन पर बिछा देते हैं, फिर विभिन्न गहराइयों से 3 बार करके 100 बीजो का नमूना लेते हैं, फिर टाट के बोरे पर 25-25 बीज की 4 कतार गीले बोरे पर थोड़ी-थोड़ी दूरी पर रखते हैं,और उसे पानी से गीला कर रस्सी से बांध, छाव में रख देते हैं, 4-5 दिन तक नमी बनाये रखते हैं. फिर रस्सी को सावधानी पूर्वक खोल अंकुरित बीजो को गिन लेते हैं. अगर 70-80 प्रतिशत अंकुरित हैं तो बीज उच्च गुणवत्ता (चित्र 1) का हैं और 60 प्रतिशत हो तो खेत में बीज की मात्रा बढ़ा देना चाहिए और 50 प्रतिशत से भी कम अंकुरण हो तो बीज को बदल देना चाहिए.
अवधि अंतरण वाली क़िस्मों का चुनाव
सोयाबीन फसल की कटाई के समय मौसम की मार से फलियों से काफी दाने गिर जाते हैं और जो बचे रह जाते हैं उनकी चमक कम हो जाती हैं, यही बरसात लगे समय तक बनी रहे तो फलियों में दानो का अंकुरण प्रारंभ हो जाता हैं इस प्रकार कृषक अच्छा प्रबंधन करने के बाद भी अच्छा उत्पादन नही प्राप्त कर पाते हैं.
इस समस्या से निजात पाने के लिए आवश्यक हैं कि कृषक अपने सम्पूर्ण खेत मे केवल एक ही किस्म ना लगाएं. कृषक को अपने खेत मे शीघ्र अवधि में पकने वाली, मध्यम अवधि में पकने वाली तथा देरी से पकने वाली तीनों क़िस्मों का चुनाव करना चाहिए. जिससे यदी मौसम एक किस्म की कटाई के समय प्रतिकूल होगा तो दूसरी किस्म से अच्छा उत्पादन प्राप्त हो जाएगा. इस प्रकार कृषक बंधुओ को प्रतिकूल मौसम परिस्थितियों में सम्पूर्ण फसल हानि नही होगी. सारणी -1 में शीघ्र, मध्यम व देरी से पकने वाली किस्मो को दर्शाया गया हैं, कृषक उनमे से क़िस्मों का चुनाव कर सकते हैं-
शुष्क काल में फसल प्रबन्ध
भारतीय मानसून काफी अनिश्चितताओं से भरा हुआ हैं कभी मानसून देरी से प्रारंभ होता हैं तो कभी-कभी उम्मीद से पहले ही दस्तक दे देता हैं तथा कभी-कभी तो फसल को बीच अवस्था में ही उसे सूखे का सामना करने के लिए छोड़ देता हैं. मौसम की इन विपरीत परिस्थितियों में किस प्रकार से फसल का प्रबंधन करना चाहिए, जिससे कि फसल से अधिकतम या संतोषप्रद उत्पादन प्राप्त किया जा सके.
1. प्रारंभिक वानस्पतिक अवस्था में सूखा पड़ने पर
जहाँ तक संभव हो सुरक्षात्मक सिंचाई करें.
अगर पौधों की संख्या 60 प्रतिशत के आसपास हो तो, बीजों की खाली जगह में बुवाई कर दें.
यदि अंकुरण 50 प्रतिशत से कम हो तो बारिश के तुरंत बाद पुनः बुवाई करें.
एम.ओ.पी. के 2 प्रतिशत घोल का छिड़काव करें.
खरपतवार प्रबंधन के लिए निदाई गुड़ाई करें.
फसल अवशेषों को मृदा की सतह पर पलवार के प्रयोग करें.
2. वानस्पतिक अवस्था में सूखा पड़ने पर
फसल अवशेषों का पलवार बिछाकर मृदा नमी का संरक्षण करें.
पी.एम.ए. के 3 पीपीएम घोल का पौधो पर छिड़काव करें.
निंदाई गुडाई करके मृदा मल्च (पलवार) तैयार करें.
सुरक्षात्मक सिंचाई दें.
खरपतवारो को नष्ट कर मृदा जल हानि को रोके.
3. फूल तथा दाने बनाने की अवस्था में सूखा पड़ने पर
2 प्रतिशत यूरिया या डी.ए.पी. के पर्ण स्प्रे का प्रयोग करें.
मृदा नमी संरक्षण के लिए मेड़ और नाली पद्धति को अपनाएं.
पौधे से 20 प्रतिशत पत्तियों को झड़ा दें.
4. फसल पकने (टर्मिनल) की अवस्था में सूखा पड़ने पर
यदि जल उपलब्ध हो तो जीवन रक्षक पूरक सिंचाई दें.
फसल की भौतिक परिपक्वता पर हीं कटाई करे.
वर्षा की तीव्रता/अधिकता में फसल प्रबंध
जलवायु परिवर्तन द्वारा न सिर्फ वर्षा की कमी अपितु अतिवृष्टि व तीव्रता से भी फसलें काफी प्रभावित होती हैं. अतिवृष्टि से फसल में फूल आने के पहले, फूल आने पर, फूल से फलिया बनते समय तथा दाना भराते समय काफी अधिक हानि पहुंचाती हैं, जिससे उत्पादन में काफी गिरावट आ जाती हैं. फसलों की इन अवस्थाओं पर वर्षा होने से यदि प्रतिकूल प्रभाव पौधो पर पड़ता दिखे तो तुरंत ही यदि पोषक तत्वों व वृध्दि कारको का पर्णीय छिड़काव कर दिया जाए तो काफी हद तक इन समस्याओं से निजात पाया जा सकता हैं. किसानों को फसल की किस अवस्था में कौन सा पोषक तत्व व वृध्दि कारक देना उचित रहेगा जिसे सारणी 2 मे प्रदर्शित किया गया हैं-
जल तनाव प्रबंध
भारत में सोयाबीन की खेती वस्तुतः वर्षा पर निर्भर करती हैं तथा इस वर्षधारित परिस्थितियों में फसल की किसी भी अवस्था में अधिक वर्षा हो सकती हैं पिछले कुछ वर्षो के आकड़े बताते हैं औसतन अधिक वर्षा की अवस्था वर्षा ऋतू में दो बार बनती हैं जिस कारण फसल को जलभराव का सामना करना पड़ता हैं जिससे फसल की बढ़वार तथा उत्पादन में काफी कमी देखी गई हैं. यह समस्या उन खेतों में ज्यादा नुकसान पहुंचाती हैं जहां पर सोयाबीन फसल की बुवाई समतल भूमि में की जाती हैं और जल निकास की समुचित व्यवस्था नहीं होती हैं. इस समस्या के समाधान के लिए आवश्यक हैं कि कृषक अपने खेत में सोयाबीन की बुवाई मेड़ तथा नाली पद्धती से करें या रेज्ड बेड पद्धति से करें इन दोनों पद्धतियों से सोयाबीन की बुवाई करने से यदि वर्षा अधिक मात्रा में होती हैं तो वर्षा का जल कुड़ या नालियों द्वारा खेत से बाहर निकल जाता हैं और यदि वर्षा कम मात्रा में होती हैं तो यह कुड़ या नालिया वर्षा जल संग्रहण का कार्य करती हैं जिससे फसल को इन पद्धतियों में ना ही अधिक और ना ही काम जल तनाव का सामना करना पड़ता हैं, फलतः अधिक उत्पादन प्राप्त होता हैं.
लेखक : आस्था पांडे, आकाश, दिव्या भायल, ललिता भायल, संजय कुमार
कृषि विज्ञान संस्थान, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-221005 (उ.प्र.)
जे.ने.कृ.वि.वि., कृषि महाविद्यालय, जबलपुर-482004 (म.प्र.)
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