अलसी का वनस्पतिक नाम लिनम यूसिटाटिसिमम हैं, जो लिनेसी परिवार के लिनम जीनस (जाति) का सदस्य हैं. अलसी रबी मौसम में उगाई जाने वाली एक महत्वपूर्ण तिलहनी फसलों में से एक है. भारत में प्राय: इसकी खेती असिंचित क्षेत्र में की जाती हैं, परंतु जिस क्षेत्र में सिंचाई के उपयुक्त साधन हैं, वहां पर एक या दो सिंचाई में अच्छी पैदावार ली जा सकती हैं.
तालिका 1. भारत में अलसी का क्षेत्रफल, उत्पादन और उपज (2009-10 से 2019-20)
वर्ष |
2009-10 |
2010-11 |
2011-12 |
2012-13 |
2013-14 |
2014-15 |
2015-16 |
2016-17 |
2017-18 |
2018-19 |
2019-20 |
क्षेत्रफल (लाख हेक्टेयर) |
3-42 |
3-592 |
3-226 |
2-963 |
2-931 |
2-855 |
2-628 |
3-212 |
3-262 |
1-727 |
1-799 |
उत्पादन(लाख टन) |
1-537 |
1-465 |
1-525 |
1-485 |
1-417 |
1-546 |
1-254 |
1-843 |
1-738 |
0-991 |
1-207 |
उपज (किलोग्राम/ हैंक्टेयर) |
449 |
408 |
473 |
501 |
484 |
541 |
477 |
574 |
533 |
574 |
671 |
स्रोत: तिलहन विकास निदेशालय
भारत में पिछले सालो में अलसी बुवाई का क्षेत्र कम हुआ हैं,परंतु प्रति हेक्टेयर उपज में वृद्धि हुई हैं. भारत सरकार तिलहन फसलों के उत्पादन में वृद्धि के लिए हर संभव प्रयास कर रही हैं.
भारत में अलसी की खेती मुख्यतः मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, असम, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में की जाती हैं. देश में अलसी की खेती का कुल क्षेत्रफल का 60 प्रतिशत मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश रखते हैं. अलसी के उत्पादन व क्षेत्रफल की दृष्टि से मध्यप्रदेश का देश में प्रथम स्थान हैं. अलसी की खेती बीज और रेशा दोनों के लिए की जाती हैं. अलसी के पौधे की लंबाई 40 सेंटीमीटर से 120 सेंटीमीटर तक हो सकती हैं. पौधे में नीले, सफ़ेद और बैगनी फूल आते हैं. अलसी के बीज चपटे, अंडाकार और एक सिरे से नुकीले व बीज भूरे व पीले रंग के होते हैं, इनकी सतह चमकीली और चिकनी होती हैं.
अलसी के स्थानीय नाम : अलसी, तीसी (हिंदी, पंजाबी, गुजराती), जावस/ अतासी (मराठी), तिशी (बंगाली), अगासी (कन्नड़), अविसेलु (तेलुगु), पेसि (उड़िया), अली विताई (तमिल), चेरुचना विथु (मलयालम).
अलसी के बहुयामी उपयोग
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अलसी एक बहुमूल्य औद्योगिक तिलहन फसल हैं. अलसी के बीजों में औसतन 30 से 43 प्रतिशत तेल एवं 22 प्रतिशत प्रोटीन होता हैं.
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अलसी के संपूर्ण पौधे का अपना अलग ही आर्थिक महत्व हैं. इसके तने से लिनेन नामक रेशा प्राप्त होता हैं, जिसे विश्व का सर्वाधिक ठंडा रेशा माना जाता हैं.
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इसके बीज से गुणकारी तेल मिलता हैं, जिसका उपयोग औषधि की तरह किया जाता हैं. अलसी के कुल उत्पादन का 20 प्रतिशत खाद्य तेल और 80 प्रतिशत उद्योगों में प्रयोग होता हैं.
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इसके तेल का उपयोग पेंट, वार्निस, तेलिय कपड़े, छपाई की स्याही, टफीलोन साबुन आदि बनाने में किया जाता हैं.
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अलसी के बीज से निकलने वाले तेल का प्रयोग खाने तथा दवाई बनाने में किया जाता हैं. अलसी में सबसे ज्यादा ओमेगा- 3 वसा (अल्फा लिनोलेनिक एसिड ) के साथ अन्य पोषक तत्व होते हैं जैसे फाइबर, लिग्नेन, खनिज आदि.
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अलसी का उपयोग प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से विभिन्न प्रकार के उद्योगों में किया जाता हैं.
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अलसी की खली दूध देने वाले जानवरों के लिये पशु आहार के रूप में उपयोग की जाती हैं तथा खली में पौधो के लिये आवश्यक विभिन्न पौषक तत्वों की उचित मात्रा होने के कारण इसका उपयोग खाद के रूप में किया जाता हैं.
अलसी की खेती के लिए महत्वपूर्ण घटक
- भूमि और जलवायु
अलसी की खेती के लिए काली और दोमट मिट्टी उपयोगी होती हैं. मध्यम उपजाऊ मिट्टी इसके लिए उपयुक्त हैं, अगर सिंचाई और उर्वरक के साधन उपलब्ध हो तो सभी प्रकार की मिट्टी में खेती की जा सकती हैं. इसके लिए ठंडे और शुष्क जलवायु की जरूरत होती हैं. इसके बुवाई के लिए 15 से 20 डिग्री तापमान तथा कटाई के समय 30 से 40 डिग्री सेल्सियस तापमान होना चाहिए.
भारत में अलसी की उन्नत किस्में-
असिंचित क्षेत्रों के लिये अलसी की उन्नत किस्में: जे.एल.एस.-67, जे.एल.एस.-66, जे.एल.एस.-73, शीतल और शारदा आदि.
सिंचित क्षेत्रों के लिये अलसी की उन्नत किस्में: सुयोग, जे.एल.एस.-23, टी-397, पूसा-2 और पीकेडीएल- 41आदि.
द्विउद्देशीय हेतु उन्नत किस्में: अलसी की वे उन्नत किस्में हैं जिनका उपयोग बीज के साथ साथ रेशा प्राप्त करने के लिए किया जाता हैं जैसे की गौरव, शिखा,
रश्मि, रूचि और पार्वती आदि.
बुआई का समय
किसी भी फसल की अच्छी पैदावार के लिए समय पर बुआई बहुत जरूरी होती हैं क्योंकि पैदावार पर्यावरण की परिस्थितियों पर निर्भर करती हैं. देश के विभिन्न प्रदेश की जलवायु अलग-अलग हैं. अत: इसकी बुआई मध्य अक्टूबर से नवंबर के पहले सप्ताह तक कर सकते हैं. बुवाई करते समय खेत की जुताई अच्छे से करनी चाहिए तथा उपयुक्त नमी रहते हुए बुवाई कर देनी चाहिए.
बीज और बीज उपचार
सिंचित क्षेत्र में 25 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और वर्षा आधारित क्षेत्र में 30 से 35 किलोग्राम प्रति हैंक्टेयर बीज की आवश्यकता होती हैं. अच्छी पैदावार के लिए बुवाई पंक्तियों में करनी चाहिए. पंक्ति से पंक्ति के बीच की दूरी 30 सेंटीमीटर तथा पौधे से पौधे की दूरी 5 से 10 सेंटीमीटर होनी चाहिए और चार से पांच सेंटीमीटर गहरी बुवाई करनी चाहिए.
बुवाई से पूर्व बीज को कार्बन्डजिम 2 से 3 ग्राम प्रति किलोग्राम अथवा ट्राइकोडरमा 5 ग्राम एवं कार्बक्सिन 5 ग्राम प्रति किलोग्राम की से उपचारित करें.
खाद व उर्वरक की मात्रा
खाद व उर्वरक खेत में आवश्यकता के अनुसार मिट्टी की जांच उपरांत देने चाहिए. पोषक तत्वों की उपलब्धता अनुरूप खाद और उर्वरक मिलने पर फसल की अच्छी गुणवत्ता और पैदावार मिलेगी.
सिंचित क्षेत्र में 60 से 80 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस, 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से डाले. बुआई के समय पर फास्फोरस और पोटाश की पूरी मात्रा व नाइट्रोजन आधी मात्रा डाले और नाइट्रोजन शेष भाग पहली सिंचाई के समय दे.
जिंक 5 किलोग्राम, सल्फर 5 किलोग्राम प्रति एकङ की दर से डाले.
असिंचित क्षेत्र में अच्छी पैदावार के लिए 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 किलोग्राम फास्फोरस, 40 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर बुआई के समय पर डाले.
सिंचाईं
अलसी की फसल में मुख्यता दो सिंचाई की जरूरत होती हैं. पहली सिंचाई बुवाई के 30 से 40 दिन बाद तथा दूसरी सिंचाई 80 से 90 दिन के पश्चात फूल आने आरंभ होने के उपरांत पर करनी चाहिए. अतिरिक्त सिंचाई पानी की उपलब्धता, मिट्टी के प्रकार और वातावरण के अनुसार करनी चाहिए.
फसल की देखभाल
- खरपतवार नियंत्रण
अलसी की फसल में मुख्यत: चौड़ी पत्तीवाले खरपतवार जैसे प्याजी, बथुआ, सेंजी, हिरनखुरी, पोहली, कृष्णनील तथा दूब घास आदि उत्पादन क्षमता को प्रभावित करते हैं. फसल में खरपतवार नियंत्रण के लिए बुवाई के 20 से 25 दिन बाद निराई गुड़ाई करें तथा दूसरी बार 40 से 45 दिन बाद निराई गुड़ाई करें.
इसके अतिरिक्त खरपतवारनाशी रसायनों का उपयोग कर के भी नियंत्रण किया जा सकता हैं. खरपतवार नियंत्रण के लिए पेन्डामेथिलिन 1 किलोग्राम सक्रिय तत्व को बुवाई के पश्चात एवं अंकुरण पूर्व 500 से 600 लीटर पानी में मिलाकर खेत में छिडकाव करें. खरपतवारनाशी रसायन का छिड़काव करते समय भूमि में नमी का होना अत्यंत आवश्यक होता हैं. खरपतवारनाशी रसायन का उपयोग निर्देशों के अनुसार एवं सावधानीपूर्वक करना चाहिए.
अलसी की फसल में मुख्य रोग तथा उनसे बचाव
अलसी की फसल को मुख्यतः गेरूआ, उकठा, चूर्णिल आसिता तथा अंगमारी रोग से भारी क्षति होती हैं. इनका प्रबंधन निम्नानुसार किया जा सकता हैं:-
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गेरुआ (रस्ट) रोग- यह रोग मेलाम्पेसोरा लाईनाई नामक फफूंद से होता हैं. रोग का प्रकोप प्रारंभ होने पर चमकदार नारंगी रंग के धब्बे पत्तियों के दोनों तरफ बनते हैं. धीरे- धीरे यह रोग पौधे के सभी भागों में फैल जाता हैं. रोग ग्रस्त पौधों की पत्तियाँ नीचे से ऊपर की ओर पीली पड़ने लगती हैं तथा बाद में पूरा पौधा सूख जाता हैं. इस रोग के नियंत्रण हेतु रोगरोधी किस्में लगायें. रसायनिक दवा के रुप में लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से या कॅप्टन हेक्साकोनोज़ोले का 500-600 ग्राम मात्रा को 500 लीटर पानी मे घोलकर छिड़काव करना चाहिए. कार्बेन्डाजिम (बाविस्टीन) 1-5 ग्राम दवा प्रति किलो बीज की दर से बोने के पूर्व बीजोपचार करें.
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उकठा(विल्ट)- उकठा (विल्ट) बीज जनित और मृदा जनित रोग हैं जो फुसैरियम ऑक्सीस्पोरम नामक कवक के कारण होता हैं. यह कवक पौधे के विकास के दौरान जड़ों के माध्यम से पौधों पर आक्रमण करता हैं. रोग ग्रस्त पौधों की पत्तियों के किनारे अन्दर की ओर मुड़कर मुरझा जाते हैं. खेत में जलभराव के कारण ये रोग ज्यादा देखने को मिलता हैं. इसलिए जल निकासी का उचित प्रबंधन होना चाहिए. रोग के लक्षण दिखाई देते ही आइप्रोडियोन की 0.2 प्रतिशत अथवा मैंकोजेब की 2.25 प्रतिशत अथवा कार्बेन्डाजिम 12 प्रतिशत, मैंकोजेब 63 प्रतिशत की 2 ग्राम मात्रा का प्रति लीटर पानी की दर से छिड़काव करना चाहिए.
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चूर्णिल आसिता (ख़स्ता फफूंदी, भभूतियारोग, पाउडरी माइल्ड)- इस रोग के संक्रमण में पत्तियों पर सफेद चूर्ण जैसा फफूंद जम जाता हैं. रोग की तीव्रता अधिक होने पर दाने सिकुड़ कर छोटे रह जाते हैं. देर से बुवाई करने पर एवं शीतकालीन वर्षा होने तथा अधिक समय तक आर्द्रता बनी रहने की दशा में इस रोग का प्रकोप बढ़ जाता हैं. कवकनाशी के रुप मे थायोफिनाईल मिथाईल 70 प्रतिशत डब्ल्यू-पी- 300 ग्राम प्रति हेक्टयेर तथा बाविस्टीन 2 ग्राम प्रति लीटर अथवा घुलनशील गंधक 2-5 ग्राम दवा प्रति लीटर पानी के हिसाब से 15 दिन के अंतराल पर दो बार छिड़काव करें.
प्रमुख कीट व उनका प्रबंधन
अलसी के प्रमुख कीट हैं: कर्तनकीट, टिड्डी, फली- मक्खी, पर्णसूरंगक कीट, अलसी की इल्ली, अर्धकुण्डलक इल्ली व चने की इल्ली द्वारा भारी क्षति पहुचाई जाती हैं. अलसी के उत्पादन में कीटों की समस्या बहुत ही कम होती हैं. इनका प्रबंधन निम्नानुसार किया जा सकता हैं:-
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फलीमक्खी (बड फ्लाई)- यह प्रौढ़ आकार में छोटी तथा नारंगी रंग की होती हैं तथा इसके के पंख पारदर्शी होते हैं. मादा दिन के समय एकल या गुच्छ़ों में 8 से 17 कली व फूल के बाह्य दल पर 29 से 103 पारदर्शी और चिकने अंडे देती हैं और 2 से 5 दिन में ये अंडो से बहार निकल जाते हैं. इसकी इल्ली कली में छेद करके अन्दर प्रवेश कर जाती है, और अन्दर से खाती रहती हैं. एक कली में 3 से 4 इल्ली विकसित हो जाती हैं. इल्ली अण्डाशय को खाती हैं जिससे कैप्सूल एवं बीज नहीं बनते हैं. यह अलसी को सर्वाधिक नुकसान पहुँचाने वाला कीट हैं जिसके कारण उपज में 60 से 80 प्रतिशत तक क्षति हो सकती हैं.
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अर्धकुण्डलक इल्ली- इस कीट के प्रौढ़ शलभ के अगले पंख पर सुनहरे धब्बे होते हैं. इल्ली हरे रंग की होती हैं जो प्रारंभ में मुलायम पत्तियों तथा फलियों के विकास होने पर फलियों को खाकर नुकसान पहुँचाती हैं.
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चने की इल्ली- इस कीट का प्रौढ़ भूरे रंग का होता हैं जिनके अगले पंखों पर सेम के बीज के आकार के काले धब्बे होते हैं. इल्लियों के रंग में विविधता पाई जाती हैं जैसे यह पीले, हरे, नारंगी, गुलाबी, भूरे या काले रंग की होती हैं. शरीर के पाश्र्व हिस्सों पर हल्की एवं गहरी धारिया होती हैं. छोटी इल्ली पौधों के हरे भाग को खुरचकर खाती हैं. बड़ी इल्ली फूलों एवं फलियों को नुकसान पहुँचाती हैं.
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पर्णसूरंगक कीट– अलसी का बहुभक्षी कीट हैं. वयस्क मक्खी चमकीले गहरे रंग की होती हैं. इसका प्रकोप अधिकतर फरवरी व मार्च में होता हैं. पर्णसूरंगक कीट पत्ती के निचले व ऊपर के बीच का भाग को खाती हैं और पत्ती की शिराओं पर सुरंग बना लेते हैं.
कीटो से बचाव- जब किटो की संख्या अधिक हो जाये तो एसिफेट या प्रोफेनोफॉस अथवा क्विनाल्फोस 2 मि.ली./ ली. पानी के घोल का 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करे. इसके अतिरिक्त अन्य रसायनों जैसे साइपरमेथ्रिन (5 प्रतिशत), क्लोरोपाइरीफॉस (50 प्रतिशत)-55 ई.सी. की 750 मिली. मात्रा प्रति हेक्टेयर की दर से अथवा साइपरमेथ्रिन (1प्रतिशत) और ट्राजोफॉस (35 प्रतिशत)-40 ई.सी. की एक लीटर मात्रा का500 से 600 लीटर पानी में प्रति हेक्टेयर की दर से छिडकाव लाभदायक होता हैं. हमेशा निर्देशों को पढ़ें और उनका पालन करें, कीटनाशी रसायन का उपयोग करते समय सावधानी रखे.
कटाई व भंडारण
अलसी की फसल 130 से 150 दिनों में पककर तैयार हो जाती हैं. जब अलसी के पौधों के तने पीले व पत्तियाँ सुख कर पड़ने लग जाएं और कैप्सूल भूरे रंग के हो जाये तब यह अवस्था कटाई के लिए उपयुक्त होती हैं.
कटाई के चार-पांच दिन बाद जब पौधे और कैप्सूल पूरी तरह सूख जाए तो पीट कर या थ्रेसर से बीज अलग कर लेने चाहिए. बीजों के भण्डारण के लिए 8 प्रतिशत नमी की मात्रा सर्वोत्तम हैं.
नोट– रसायनों का उपयोग मृदा परीक्षण व अपने क्षेत्र के कृषि अधिकारी के परामर्श के अनुसार तथा सावधानि पूर्वक करें.
लेखक:लेखक: देवेन्द्र सिंह, विनय कुमार, बलराम जाट, डॉ. विकेंदर कौर
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