वनस्पति संरक्षण से तात्पर्य प्रयोग मे आने वाली फसलों को हानिप्रद जीवों से रक्षा करना है. इसके अंतर्गत ऐसे उपायों को काम मे लाया जाता है जिनका प्रयोग करके विभिन्न प्रकार के फसलों, फलो तथा संग्रहीत अनाजों को नुकसान पहुँचाने वाले कीटों व अन्य हानिकारक जीवों, खरपतवारों, तथा पादप रोगों को नष्ट या कम किया जा सके. यह सब करने का मुख्य उद्देश्य अधिक से अधिक मात्रा में स्वस्थ एवं गुणकारी फसलें पैदा करना तथा फसलोत्पादों को संग्रहित करना है.
जैसा की हम जानते हैं हमारा देश एक कृषि प्रधान देश है तथा यहां कि लगभग 80 प्रतिशत जनसंख्या गावों मे रहकर मुख्यत: कृषि पर निर्भर है. हालांकि हमारे देश में प्राकृतिक कृषि सम्पदा प्रचुर है जो कि संसार के अन्य किसी देश मे नहीं है, परन्तु जनसंख्या के घनत्व को देखते हुए तथा प्रति हेक्टर कम पैदावार होने के कारण एवं हानिकारक कीटों तथा बीमारियों कि उचित एवं सामयिक जानकारी न होने के कारण हमे अपने देश वासियो कि उदरपूर्ति के लिए बाहर के देशों से आनाज मंगाना पड़ता है.
जैसा कि ऊपर बताया गया है हानिकारक जीवों में सिर्फ कीट ही नहीं वरन् दूसरे जीव; जैसे- चिड़िया, चूहे, चमगादड., स्नेल्स, स्लगस, बंदर, सियार, गिलहरी, खरगोश और सूत्रकृमि तथा अष्टपदियों के अतिरिक्त फफूंदी, बैक्टीरिया एवं वाइरस आदि से होने वाली बीमारियां भी सम्मिलित हैं. अत: वनस्पति संरक्षण के अंतर्गत इन सभी से फसलों को सुरक्षित रखना सम्मिलित है.
भारत में प्रमुख फसलों को कीटों की वजह से अनुमानित नुकसान नीचे दिया गया है
फसल |
वास्तविक उत्पादन (मिलियन टन) |
कीटों के कारण उपज में अनुमानित नुकसान होने का अनुमान |
कीट की वजह से नुकसान के अभाव में काल्पनिक उत्पादन |
अनुमान नुकसान की मौद्रिक मूल्य |
|
(%) |
कुल (मिलियन टन) |
||||
धान |
93.1 |
25 |
31.0 |
124.1 |
164300 |
गेहूँ |
71.8 |
5 |
3.8 |
75.6 |
23560 |
मक्का |
13.3 |
25 |
4.4 |
17.7 |
21340 |
अन्य अनाज |
20.6 |
30
|
8.8 |
29.4
|
42680
|
चना |
5.3 |
10 |
0.6 |
5.9 |
7200 |
अन्य दालों |
7.9 |
20 |
2.0 |
9.9 |
26400 |
मूंगफली |
6.9 |
15 |
1.2 |
8.1 |
16080 |
रेपसीड और सरसों |
5.0 |
30 |
2.1 |
7.1 |
27300 |
अन्य तिलहनों |
8.6 |
20 |
2.2 |
10.8 |
26400 |
गन्ना |
300.1 |
20 |
75.0 |
375.1 |
46540 |
कपास |
10.1 |
50 |
10.1 |
20.2 |
287600 |
कुल |
689400 |
भारत सरकार द्वारा निर्धरित न्यूनतम समर्थन मूल्य (2001-2002) के आंकड़े के अनुसार (एनोनीमस, 2003)
वनस्पति संरक्षण के विभिन्न संभाग/इकाइयां
इसके अंतर्गत निम्नलिखित सात इकाइयां कार्यरत हैं.
1. समाकलित नाशी जीव प्रवन्ध
2. नाशी जीव एवं बीमारियों का सर्वेक्षण एवं निगरानी
3. जैविक नियंत्रण
4. टिड्डी चेतावनी एवं नियंत्रण
5. वनस्पति संगरोध
6. जीवनाशी नियंत्रक उपाय
4.1- पंजीकरण समिति सचिवालय/ केन्द्रीय कीटनाशी बोर्ड
4.2- केन्द्रीय जीवनाशी प्रयोगशाला
4.3- क्षेत्रीय जीवनाशी परीक्षण प्रयोगशालाये
4.4- जीवनाशी मोनिटरिंग यूनिट
5- पौध संरक्षण प्रशिक्षण
1. प्रलेख
2. नाशी जीव एवं बीमारियों के नियंत्रण के लिए केन्द्रीय सहायता प्रपट योजनायें
इन सभी इकाइयों मे वनस्पति संगरोध का एक महत्वपूर्ण योगदान है. वनस्पति संरक्षण का वास्तविक इतिहास सन् 1914 से प्रारम्भ हुआ जबकि कृषि उत्पादन मे कीटों के महत्व को समझकर हानिकारक कीट एवं जन्तु एक्ट (1914) सरकार को बनाना पड़ा. यह एक्ट काफी उदार हैं, जिसके अनुसार समय-समय पर विज्ञप्तियाँ जारी की जा रहीं तथा राज्यों को अधिकार दिये गए. इसी के अंतर्गत संक्रामक वनस्पति संगरोध एक्ट भी आता है.
पादप संगरोध या संपर्करोध क्या है
पादप नाशकजीवों एवं रोगों के उन क्षेत्रों में जहां वो नीचे पाये जाते हैं, अपवर्जन, प्रसार, फैलाव एवं निरोध या निवारण स्थापित होने में विलम्ब के उद्देश्य से कृषि विकाश सामग्री के संचलन अथवा गमनागमन या आयात एवं निर्यात पर विधिक या कानूनी प्रतिबंध को एक पादप संगरोध या संपर्करोध के रूप मे परिभाषित किया जा सकता है.
संगरोध या संपर्करोध पादपो या पादप पदार्थों अथवा जन्तुओ या जन्तु उत्पादों अथवा कोई अन्य वस्तु या सामाग्री के उत्पादन, अवागमन (संचलन) एवं अस्तित्व या विद्यमान होने अथवा व्यक्तियों को सामान्य या वैधिक गतिविधि पर यथाविधि संस्थापित या संघटित प्रधिकारी वर्ग द्वारा लागू किया प्रतिबंध या रोक है. इसके साथ इसको नियमन या कानून के अंतर्गत लाया जाता है, जिससे कि एक नाशकजीव के किसी नए क्षेत्र मे प्रवेश अथवा प्रसार या फैलाव को रोका जा सके या सीमित किया जा सके अथवा यदि नाशकजीव पहले से प्रवेश कर चुका है, तब उसको नियंत्रित किया जा सके या नाशकजीव द्वारा पहुंचाई गयी क्षति से होने वाली हानि अथवा उसके नियंत्रण पर निरंतर खर्च होने वाली हानियों को टाला जा सके.
भारत मे पादप संगरोध
भारत मे पादप पदार्थो के साथ बाह्य पादप नाशकजीवों एवं रोगो के प्रवेश को रोकने कि क्रियाएं 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ से शुरू हो गयी थीं. उस समय मैक्सिको कपास गोल घुन के प्रबेश को रोकने के लिए आयात कि गयी सभी कपास कि गाठों का धूमन करना आवश्यक होता था. पादप संगरोध के महत्व को समझते हुए 3 फरवरी 1914 को भारत के गवर्नर जनरल के द्वारा सलाहकार परिषद कि संतुति पर एक विनाशी कीट एवं नाशकजीव अधिनियम (डीआईपी एक्ट, 1914) पारित किया गया. इस अधिनियम मे वर्ष 1933 से 1956 तक आठ बार संसोधन किए गयें और वर्ष तक इसे ठीक किया गया, परन्तु इसमे कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया गया है. इस अधिनियम के अंतर्गत समय–समय पर विभिन्न अधिसूचनाएँ जारी की गयी हैं, जिनके द्वारा भारत मे विदेशों से तथा देश के भीतर एक राज्य से दूसरे राज्य में विभिन्न पादप एवं पादप पदार्थो तथा अन्य कृषि सामाग्री के आयात को प्रतिबंधित या नियंत्रित किया जाता है. 24 जून 1985 की अधिसूचना के अनुसार बीजो, फलो अथवा पौधों के रूप मे कोई भी माल भारत मे उपयोग के लिए अथवा बूबाई या रोपण के लिए भारत सरकार के वनस्पति संरक्षण या पादप रक्षण सलाहकार द्वारा जारी किए गए एक वैध परमिट या मान्य अनुमति पत्र के बिना आयात नहीं किया जा सकता हैं. यह अधिनियम विभिन्न पादप रोगजनको, कीटो एवं अन्य नाशक जीवो के लिए लागू होता है और पादप रक्षण सलाहकार को यह अधिकार प्रदान करता है कि संभावित हानिकारक विदेशी रोगजनको एवं अन्य नाशक जीवों के भारत मे प्रवेश करने के विरुद्ध उपयुक्त उपायो को अपनाया जाये.
प्रारम्भ में डीआईपी एक्ट (1914) के अंतर्गत नियमों और विनियमों को कार्यान्वित करने का अधिकार सीमा शुल्क विभाग को सौंपा गया था. परंतु मई 1946 में इस उत्तरदायित्व को खाद्य एवं कृषि मंत्रालय के अंतर्गत स्थापित किया गये वनस्पति संरक्षण संगरोध एवं भंडारण निदेशालय (डीपीपीक्यू और एस) में भारत सरकार के वनस्पति संरक्षण या पादप रक्षण सलाहकर की सम्पूर्ण तकनीकी देखभाल में सौप दिया गया. विनाशी कीट एवं नाशकजीव या नाशकरोग अधिनियम के अंतर्गत पादप संगरोध में निश्चित किये गये सिद्धांतों एवं क्रियाविधियों को पूरा करने के लिए वनस्पति संरक्षण एवं संगरोध एवं भंडारण निदेशालय, जिसका मुख्यालय शास्त्री भवन, नई दिल्ली, तथा फ़रीदाबाद (हरियाणा) मे स्थित हैं, द्वारा पूरे देश मे विभिन्न स्थानों पर 35 पादप संरोध केन्द्रों को स्थापित किया गया है. इनमे से दो राष्ट्रीय पादप संगरोध केंद्र जैसे; रंगपुरी नई दिल्ली तथा तुगलकाबाद, नई दिल्ली में स्थित हैं तथा छः क्षेत्रीय पादप संगरोध केंद्र भारत के कई क्षेत्रों मे स्थित हैं. विभिन्न हवाई अड्डों, बंदरगाहों और अन्य सीमाओं पर पौध संगरोध नियमों को लागू करने के लिए 35 पौध संगरोध स्टेशन बनाए गए हैं। पौध संगरोध परीक्षण आदि को आधुनिक उपकरणों के साथ एनपीक्यूएस, नईदिल्ली और आरपीक्यूएस, चेन्नई, कोलकाता, अमृतसर और मुंबई में मजबूत बनाया गया है. इससे एफएओ और यूएनडीपी परियोजना के तहत आयात और निर्यात के लिए शीघ्र निकासी की सुविधा तीव्र हुई है.
पादप संगरोध की योजना का मुख्य उद्देश्य हैं:
1. विदेशी कीटों फसलों के लिए विनाशकारी होते हैं, विदेशी पौधे और पौध उत्पादन को सीमित या रोक लगाकर विदेशी कीटों का विस्तार और प्रसार रोकना.
2. सक्षम तकनीकी और प्रमाणपत्र सिस्टम के जरिए उत्पादकों और निर्यातकों की मदद से व्यापारिक भागीदारों की आवश्यकताओं को पूरा करना और कृषि में सुरक्षित विश्व व्यापार की सुविधा प्रदान करना.
इस योजना के तहत प्रमुख गतिविधियों में शामिल हैं:
1. भारतीय वनों को प्रतिकूल रोगों और विदेशी कीट से रोकने के लिए आयातित कृषि वस्तुओं का निरीक्षण.
2. अंतरराष्ट्रीय पौध संरक्षण सम्मेलन (आईपीपीसी, 1951) के तहत आयातक देश की आवश्यकताओं के अनुसार निर्यात के लिए वस्तुओं का निरीक्षण.
3. घरेलू संगरोध नियमों के तहत विदेशी कीट और रोगों पर नियंत्रण.
4. पोस्ट प्रवेश संगरोध निरीक्षण के तहत रोपण सामग्री के पहचान के संबंध में निरीक्षण.
5. पादप और पादप सामग्री के आयात आवश्यकताओं के लिए कीट जोखिम विश्लेषण (पीआरए) का आयोजन.
स्वस्थ वनस्पति प्रमाणपत्र (फाइटोसैनिटरी सर्टिफिकेट)
स्वस्थ वनस्पति प्रमाणपत्र, राज्य कीटविज्ञानी और पादप रोगविज्ञानी द्वारा जारी किया जाता है जो कि संयंत्र या बीज सामग्री के प्रभाव को देखते हुए जैसे की संयंत्र या बीज सामग्री किसी भी कीट या रोग से मुक्त हों. स्वस्थ वनस्पति प्रमाणपत्र, जो कि निर्यात किया जा रहे कृषि वस्तु के लिए अंतरराष्ट्रीय पौध संरक्षण कन्वेंशन (आइपीपीसी, 1951) के अनुसार इस योजना के माध्यम से किया जाता है. विश्व व्यापार संगठन की स्वच्छता और पादप समझौते की परिकल्पना की गई वैज्ञानिक औचित्य के आधार पर पादप उपायों के आवेदन इसलिए यह अंतरराष्ट्रीय मानकों / दिशा-निर्देशों के अनुसार सभी पादप संगरोध निरीक्षण का संचालन करने के लिए आवश्यक है.
कुछ महत्वपूर्ण परजीवी का भारत मे प्रवेश
क्रम स० |
परजीवी का नाम |
फसल |
कौन से देश से आया |
1 |
कपास की लाल सूंडी (पेक्टिनोफोरा गोसीपीएल्ला) |
कपास |
अमेरिका |
2 |
कपास कुशन स्केल (इसेरया पुर्कासी) |
साइट्रस |
ऑस्ट्रेलिया |
3 |
सेब का वूली एफिड (एफिलिनस माली) |
सेब |
यूरोप |
4 |
संन जोस स्केल (क्वाड्रास्पीडिओटस पर्णिसीओसस) |
सेब |
चीन |
5 |
आलू की सूँडी (थोरोमिया अपरकुलेला) |
आलू |
इटली |
6 |
आलू का पुटी सूत्रकृमि (ग्लोबोडेरा स्पीसीज़) |
आलू |
यूरोप |
७ |
सुबाबुल साइलीड (हेटेरोसाइला कुबना) |
सुबाबुल |
श्रीलंका |
8 |
केले का गुच्छित पत्तियाँ रोग (बीबीटी वाइरस) |
केला |
श्रीलंका |
11 |
स्पाइरलिंग सफ़ेद मक्खी (एलिरोडिकस डिस्परसस) |
अमरूद |
श्रीलंका |
भारत मे कुछ न पाये जाने वाले कीट एवं परजीवी
1. भूमध्य फल मक्खी (सेराटिटीस कैपिटाटा)
2. ग्रेपवाइन फाइलोजेरा (फाइलोजेरा विटीफोलिया)
3. कॉटन बॉल वीविल (एंथोनोमस ग्रांडिस)
4. कोडलिंग मोथ (लसपरसिया पोमोनेल्ला)
5. कोलोराडो पोटैटो बीटल (लेप्टिनोंटर्सा डेसेंलिनेटा)
6. यूरोपियन कॉर्न बोरर (औस्ट्रिनिया नूबिलालिस)
7. हेसियन फ़्लाइ (माएटीओला डिसट्रकटर)
8. जापनीज बीटल (पपीलिया जपोनिका)
लेखक
डॉ० अमित सिंह (शोध सहायक) क्षेत्रीय बनस्पति संगरोध केंद्र, कोलकाता
डॉ. चन्दन कुमार सिंह ( शोध सहायक) क्षेत्रीय वनस्पति संगरोध केन्द्र, अमृत्सर, पंजाब- 143101
डॉ० नीलम मौर्या ( शोध सहायक) क्षेत्रीय वनस्पति संगरोध केन्द्र, अमृत्सर, पंजाब - 143101
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