आखिर क्यों है इस मंदिर का दैवीय शक्तियों जुडाव
भारत में नही बल्कि इस देश में है यह मंदिर ईश्वर ने इस संसार में इंसान को अच्छे कर्म करने के लिए भेजा है! लेकिन मनुष्य इस दुनिया में अच्छे और बुरे दोनों कर्म करता है! जैसा कोई मनुष्य कर्म करता है नियति भी उसके साथ ऐसा ही करती है! जात-पात, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब सब इसी दुनिया में आकर मिला है! इस संसार में कई धर्म है, हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, पारसी, सिख, जैन, बौद्ध, हिन्दू धर्म एक धर्म है जिसमें देवी देवताओं को बहुत अधिक मान्यता दी जाती है! इस धर्मं की शुरुआत भारत से होकर विश्व के कई देशों तक हिन्दू धर्म फैला! हिन्दू धर्म के सबसे अधिक अनुयायी भारत में हैं! हिन्दू धर्म में मंदिर को एक विशेष महत्व है! मंदिर हिन्दू धर्म में पूजा का पवित्र स्थल होता है! जहाँ पर देवी देवता विराजमान होते हैं! आज हम आपको विश्व के सबसे बड़ा हिन्दू मंदिर माने जाने हिन्दू मंदिर के विषय में बताने जा रहे हैं! यह मंदिर है अंकोरवाट ख़ास बात यह है कि यह मंदिर भारत में नही बल्कि कम्बोडिया में है! इस मंदिर का इतिहास बहुत ही दिलचस्प है! इस मंदिर का नाता अलौकिक शक्तियों से रहा है!
अंकोरवाट कम्बोडिया में दुनिया का सबसे बड़ा हिन्दू धार्मिक स्मारक है! यह मंदिर 402 एकड़ में फैला है! यह मूल रूप से खमेर साम्राज्य के लिए भगवान विष्णु के एक हिन्दू मंदिर के रूप में बनाया गया था, जो धीरे-धीरे 12 वीं शताब्दी के अंत में बौध मंदिर में परिवर्तित हो गया था ! यह कम्बोडिया के अंकोर में है जिसका पुराना नाम 'यशोधरपुर' था! इसका निर्माण सम्राट सूर्यवर्मन द्वितीय के शासनकाल में हुआ था ! यह विष्णु मन्दिर है जबकि इसके पूर्ववर्ती शासकों ने प्रायः शिव मंदिरों का निर्माण किया था! यह मिकांग नदी के किनारे सिमरिप शहर में बना यह मंदिर आज भी संसार का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर है जो सैकड़ों वर्ग मील में फैला हुआ है! राष्ट्र के लिए सम्मान के प्रतीक इस मंदिर को 1983 से कंबोडिया के राष्ट्रध्वज में भी स्थान दिया गया है! इसकी दीवारों पर भारतीय धर्म ग्रंथों के प्रसंगों का चित्रण है! इन प्रसंगों में अप्सराएं बहुत सुंदर चित्रित की गई हैं, असुरों और देवताओं के बीच समुद्र मन्थन का दृश्य भी दिखाया गया है! विश्व के सबसे लोकप्रिय पर्यटन स्थानों में से एक होने के साथ ही यह मंदिर यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों में से एक है! पर्यटक यहाँ केवल वास्तुशास्त्र का अनुपम सौंदर्य देखने ही नहीं आते बल्कि यहाँ का सूर्योदय और सूर्यास्त देखने भी आते हैं। सनातनी लोग इसे पवित्र तीर्थस्थान मानते हैं!
परिचय
अंग्कोरथोम और अंग्कोरवात प्राचीन कम्बूज की राजधानी और उसके मंदिरों के भग्नावशेष का विस्तार! अंग्कोरथोम और अंग्कोरवात सुदूर पूर्व के हिन्दचीन में प्राचीन भारतीय संस्कृति के अवशेष हैं! हिंदचीन, सुवर्ण द्वीप, वनद्वीप, मलाया आदि में भारतीयों ने कालांतर में अनेक राज्यों की स्थापना की वर्तमान कंबोडिया के उत्तरी भाग में स्थित ‘कंबुज’ शब्द से व्यक्त होता है, कुछ विद्वान भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर बसने वाले कंबोजों का संबंध भी इस प्राचीन भारतीय उपनिवेश से बताते हैं! अनुश्रुति के अनुसार इस राज्य का संस्थापक कौंडिन्य ब्राह्मण था जिसका नाम वहाँ के एक संस्कृत अभिलेख में मिला है! नवीं शताब्दी में जयवर्मा तृतीय कंबुज का राजा हुआ और उसी ने लगभग 830 ईसवी में अंग्कोरथोम (थोम का अर्थ 'राजधानी' है) नामक अपनी राजधानी की नींव डाली! राजधानी प्राय: ४० वर्षों तक बनती रही और ९०० ई. के लगभग तैयार हुई! उसके निर्माण के संबंध में कंबुज के साहित्य में अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित है!
अंकोरवाट का हवाई दृष्य
आज का अंग्कोरथोम के चारों ओर 330 फुट चौड़ी खाई है जो सदा जल से भरी रहती थी! नगर और खाई के बीच एक विशाल वर्गाकार प्राचीर नगर की रक्षा करती है! प्राचीर में अनेक भव्य और विशाल महाद्वार बने हैं! महाद्वारों के ऊँचे शिखरों को त्रिशीर्ष दिग्गज अपने मस्तक पर उठाए खड़े हैं! विभिन्न द्वारों से पाँच विभिन्न राजपथ नगर के मध्य तक पहुँचते हैं! विभिन्न आकृतियों वाले सरोवरों के खंडहर आज अपनी जीर्णावस्था में भी निर्माणकर्ता की प्रशस्ति गाते हैं! नगर के ठीक बीचोबीच शिव का एक विशाल मंदिर है जिसके तीन भाग हैं! प्रत्येक भाग में एक ऊँचा शिखर है! मध्य शिखर की ऊँचाई लगभग 150 फीट है! इस ऊँचे शिखरों के चारों ओर अनेक छोटे-छोटे शिखर बने हैं जिनकी संख्या लगभग 50 के आसपास हैं! इन शिखरों के चारों ओर समाधिस्थ शिव की मूर्तियाँ स्थापित हैं! मंदिर की विशालता और निर्माण कला आश्चर्यजनक है! उसकी दीवारों को पशु, पक्षी, पुष्प एवं नृत्यांगनाओं जैसी विभिन्न आकृतियों को उकेरा गया है! यह मंदिर वास्तुकला की दृष्टि से विश्व की एक आश्चर्यजनक वस्तु है और भारत के प्राचीन पौराणिक मंदिर के अवशेषों में तो एकाकी है। अंग्कोरथोम के मंदिर और भवन, उसके प्राचीन राजपथ और सरोवर सभी उस नगर की समृद्धि के सूचक हैं!
12 वीं शताब्दी के सूर्यवर्मन द्वितीय ने अंग्कोरथोम में विष्णु का एक विशाल मंदिर बनवाया! इस मंदिर की रक्षा भी एक चतुर्दिक खाई करती है जिसकी चौड़ाई लगभग 700 फुट है। दूर से यह खाई झील के समान दिखती है! मंदिर के पश्चिम की ओर इस खाई को पार करने के लिए एक पुल बना हुआ है! पुल के पार मंदिर में प्रवेश के लिए एक विशाल द्वार निर्मित है जो लगभग 1000 फुट चौड़ा है! मंदिर बहुत विशाल है! इसकी दीवारों पर समस्त रामायण मूर्तियों में अंकित है! इस मंदिर को देखने से ज्ञात होता है कि विदेशों में जाकर भी प्रवासी कलाकारों ने भारतीय कला को जीवित रखा था! इनसे प्रकट है कि अंग्कोरथोम जिस कंबुज देश की राजधानी था उसमें विष्णु, शिव, शक्ति, गणेश आदि देवताओं की पूजा प्रचलित थी! इन मंदिरों के निर्माण में जिस कला का अनुकरण हुआ है वह भारतीय गुप्त कला से प्रभावित जान पड़ती है! इनमें भारतीय सांस्कतिक परंपरा जीवित गई थी! एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि यशोधरपुर (पूर्वनाम) का संस्थापक नरेश यशोवर्मा ‘अर्जुन और भीम जैसा वीर, सुश्रुत जैसा विद्वान् तथा शिल्प, भाषा, लिपि एवं नृत्य कला में पारंगत था! उसने अंग्कोरथोम और अंग्कोरवात के अतिरिक्त कंबुज के अनेक राज्य स्थानों में भी आश्रम स्थापित किए जहाँ रामायण, महाभारत, पुराण तथा अन्य भारतीय ग्रंथों का अध्ययन अध्यापन होता था! अंग्कोरवात के हिंदू मंदिरों पर बाद में बौद्ध धर्म का गहरा प्रभाव पड़ा और कालांतर में उनमें बौद्ध भिक्षुओं ने निवास भी किया! अंगकोरथोम और अंग्कोरवात में 20 वीं सदी के आरंभ में जो पुरातात्विक खुदाइयाँ हुई हैं उनसे खमेरों के धार्मिक विश्वासों, कलाकृतियों और भारतीय परंपराओं की प्रवासगत परिस्थितियों पर बहुत प्रकाश पड़ा है.
स्थापत्य
खमेर शास्त्रीय शैली से प्रभावित स्थापत्य वाले इस मंदिर का निर्माण कार्य सूर्यवर्मन द्वितीय ने प्रारम्भ किया परन्तु वे इसे पूर्ण नहीं कर सके! मंदिर का कार्य उनके भानजे एवं उत्तराधिकारी धरणीन्द्रवर्मन के शासनकाल में सम्पूर्ण हुआ! मिश्र एवं मेक्सिको के स्टेप पिरामिडों की तरह यह सीढ़ी पर उठता गया है! इसका मूल शिखर लगभग 64 मीटर ऊँचा है! इसके अतिरिक्त अन्य सभी आठों शिखर 54 मीटर उँचे हैं! मंदिर साढ़े तीन किलोमीटर लम्बी पत्थर की दिवार से घिरा हुआ था, उसके बाहर 30 मीटर खुली भूमि और फिर बाहर 190 मीटर चौडी खाई है। विद्वानों के अनुसार यह चोल वंश के मन्दिरों से मिलता जुलता है! दक्षिण पश्चिम में स्थित ग्रन्थालय के साथ ही इस मंदिर में तीन वीथियाँ हैं जिसमें अन्दर वाली अधिक ऊंचाई पर हैं! निर्माण के कुछ ही वर्ष पश्चात चम्पा राज्य ने इस नगर को लूटा! उसके उपरान्त राजा जयवर्मन-७ ने नगर को कुछ किलोमीटर उत्तर में पुनर्स्थापित किया! 14वीं या 15वीं शताब्दी में थेरवाद बौद्ध लोगों ने इसे अपने नियन्त्रण में ले लिया!
मंदिर के गलियारों में तत्कालीन सम्राट, बलि-वामन, स्वर्ग-नरक, समुद्र मंथन, देव-दानव युद्ध, महाभारत हरिवंश पुराण तथा रामायण से संबद्ध अनेक शिलाचित्र हैं! यहाँ के शिलाचित्रों में रूपायित राम कथा बहुत संक्षिप्त है! इस मंदिर का जुडाव भारतीय संस्कृति से है इसलिए कहा जाता है कि यह मंदिर एक ही दिन में अलौकिक शक्तियों के माध्यम से बना था लेकिन इसी के साथ यह भी कहा जाता है कि राजा जय वर्मन ने इस देश की राजधानी अमर होने के लिए इस मंदिर का निर्माण किया था! जहाँ पर उसने ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनो की मूर्ती एक साथ रखकर पूजा शुरू की थी!
इन्द्र का मंदिर
खैर, जहां बात आस्था की होती है वहां किसी भी प्रकार का तर्क-वितर्क मायने नहीं रखता। इसलिए आज हम आपको एक ऐसे मंदिर की कहानी सुनाने जा रहे हैं जिसके बारे में कहा जाता है कि स्वयं देवराज इन्द्र ने महल के तौर पर अपने बेटे के लिए इस मंदिर का निर्माण करवाया था।
अंगकोर वाट
कंबोडिया स्थित अंगकोर वाट के विषय में 13वीं शताब्दी में एक चीनी यात्री का कहना था कि इस मंदिर का निर्माण महज एक ही रात में किसी अलौकिक सत्ता के हाथ से हुआ था। यह सब तो इस महल रूपी मंदिर से जुड़ी लोक कहानियां हैं, असल में इस मंदिर का इतिहास बौद्ध और हिन्दू दोनों ही धर्मों से बहुत निकटता से जुड़ा है।
कंबोडिया
अंगकोर वाट नामक विशाल मंदिर का संबंध पौराणिक समय के कंबोदेश और आज के कंबोडिया से है। यह मंदिर मौलिक रूप से हिन्दू धर्म से जुड़ा पवित्र स्थल है, जिसे बाद में बौद्ध रूप दे दिया गया।
हिन्दू और बौद्ध
इतिहास पर नजर डाली जाए तो करीब 27 शासकों ने कंबोदेश पर राज किया, जिनमें से कुछ शासक हिन्दू और कुछ बौद्ध थे। शायद यही वजह है कि कंबोडिया में हिन्दू और बौद्ध दोनों से ही जुड़ी मूर्तियां मिलती हैं।
बौद्ध अनुयायी
कंबोडिया में बौद्ध अनुयायियों की संख्या अत्याधिक है इसलिए जगह-जगह भगवान बुद्ध की प्रतिमा मिल जाती है। लेकिन अंगकोर वाट के अलावा शायद ही वहां कोई ऐसा स्थान हो जहां ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों की मूर्तियां एक साथ हों।
विष्णु का मंदिर
इस मंदिर की सबसे बड़ी खास बात यह भी है कि यह विश्व का सबसे बड़ा विष्णु मंदिर भी है। इसकी दीवारें रामायण और महाभारत जैसे विस्तृत और पवित्र धर्मग्रंथों से जुड़ी कहानियां कहती हैं।
विश्व धरोहर
विश्व धरोहर के रूप से पहचाने जाने वाले इस मंदिर को 12 शताब्दी में खमेर वंश से जुड़े सूर्यवर्मन द्वितीय नामक हिन्दू शासक ने बनवाया था। लेकिन चौदहवीं शताब्दी तक आते-आते यहां बौद्ध धर्म से जुड़े लोगों का शासन स्थापित हो गया और मंदिर को बौद्ध रूप दे दिया गया।
आलीशान मंदिर
बौद्ध रूप ग्रहण करने के काफी सालों बाद तक इस मंदिर की पहचान लगभग खोई रही लेकिन फिर एक फ्रांसीसी पुरात्वविद की नजर इस पर पड़ी और उसने फिर से एक बार दुनिया के सामने इस बेशकीमती और आलीशान मंदिर को प्रस्तुत किया। बहुत से लोग इस मंदिर को दुनिया के सात अजूबों में से एक करार देते हैं।
भारत से जुड़ाव
भारत के राजनैतिक और धार्मिक अवधारणा के आधार पर ही अंगकोर नगरी का निर्माण हुआ था। इसके अलावा अंगकोर मंदिर के निर्माण के पीछे इसे बनवाने वाले राजा का एक खास मकसद भी जुड़ा हुआ था।
अमरता का लालच
दरअसल राजा सूर्यवर्मन हिन्दू देवी-देवताओं से नजदीकी बढ़ाकर अमर बनना चाहता था। इसलिए उसने अपने लिए एक विशिष्ट पूजा स्थल बनवाया जिसमें ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तीनों की ही पूजा होती थी। आज यही मंदिर अंगकोर वाट के नाम से जाना जाता है।
अंगकोर की राजधानी
लगभग 6 शताब्दियों तक अंगकोर राजधानी के रूप में पहचानी जाती रही। इसी दौरान अंगकोर वाट की संरचना और बनावट को कई प्रकार के परिवर्तनों से भी गुजरना पड़ा। मूलत: यह मंदिर शिव को समर्पित था, उसके बाद यहां भगवान विष्णु की पूजा होने लगी।
आक्रमण
लेकिन जब बौद्ध धर्मावलंबियों ने इस स्थान पर अपना आधिपत्य कायम किया तब से लेकर अब तक यहां बौद्ध धर्म की महायान शाखा के देवता अवलोकितेश्वर की पूजा होती है।
संयमित धर्म
13वीं शताब्दी के आखिर तक आते-आते अंगकोर वाट की संरचना को संवारने का काम भी शिथिल पड़ता गया। और साथ ही थेरवाद बौद्ध धर्म के प्रभाव के अंतर्गत एक संयमित धर्म का उदय होने लगा।
खमेर साम्राज्य पर आक्रमण
इसी दौरान अंगकोर और खमेर साम्राज्य पर आक्रमण बढ़ने लगे। 16वीं शताब्दी के आगमन से पहले ही अंगकोर का सुनहरा अध्याय लगभग समाप्त हो गया और अन्य भी बहुत से प्राचीन मंदिर खंडहर में तब्दील हो गए।
मंदिर की देखभाल
15वीं शताब्दी से लेकर 19वीं शताब्दी ईसवी तक थेरवाद के बौद्ध साधुओं ने अंगकोर वाट मंदिर की देखभाल की, जिसके परिणामस्वरूप कई आक्रमण होने के बावजूद इस मंदिर को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा।
एएसआई
बाद की सदियों में अंगकोर वाट गुमनामी के अंधेरे में लगभग खो सा गया था। 19वीं शताब्दी के मध्य में एक फ्रांसीसी अंवेषक और प्रकृति विज्ञानी हेनरी महोत ने अंगकोर की गुमशुदा नगरी को फिर से ढूंढ़ निकाला। वर्ष 1986 से लेकर वर्ष 1993 तक भारत के पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इस मंदिर के संरक्षण का जिम्मा संभाला था।
पवित्र तीर्थ स्थल
आज के समय में अंगकोर वाट दक्षिण एशिया के प्रख्यात और अत्याधिक प्रसिद्ध धार्मिक स्थानों में से एक है।
साभार
इमरान खान
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