स्वामी विवेकानंद किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. वो देश के सबसे प्रशंसित और जाने-माने आध्यात्मिक गुरु हैं. दुनिया उन्हें महान हिंदू संत का दर्जा देती है. पश्चिमी देश उन्हें चक्रवर्ती हिंदू संत की उपाधि देते हैं. न सिर्फ भारत बल्कि पूरी आध्यात्मिक दुनिया का उनसे परिचय है. हालांकि, छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से उनके रिश्ते के बारे में बहुत कम जानकारी है. रायपुर को स्वामीजी का आध्यात्मिक जन्मस्थान भी माना जाता है.
स्वामी विवेकानंद श्री रामकृष्ण परमहंस के मुख्य शिष्य थे. उन्हें परिव्राजक या घूमने वाले संत के रूप में जाना जाता है. स्वामीजी ने शिकागो से कोलंबो और हिमालय से कन्याकुमारी तक की यात्राएं की. आध्यात्मिक ज्ञान की खोज और वेदांत के संदेशों के प्रसार के लिए उन्होंने लंबी यात्राएं की. लेकिन रायपुर में दो साल का प्रवास, स्वामीजी से जुड़े तथ्यों में सबसे कम प्रचलित है. इससे अधिक लंबी अवधि तक वो सिर्फ अपने शहर कलकत्ता में रहे.
पिता की वजह से रायपुर जाना हुआ
स्वामी विवेकानंद का जन्म कोलकाता (पूर्व नाम कलकत्ता) में 12 जनवरी, 1863 को हुआ था. पहले उनका नाम नरेंद्रनाथ दत्ता (नरेन) था. उनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्ता था, जो कलकत्ता हाईकोर्ट में अटॉर्नी थे. स्वामीजी की माता का नाम भुवनेश्वरी देवी थी, जो धर्मपरायण महिला था.
अपने काम के लिए नरेन के पिता मध्य और उत्तर भारत में कई स्थानों की यात्राएं किया करते थे. इसी तरह एक बार उन्हें रायपुर जाना पड़ा, जो तब मध्य प्रांत में था. 1877 में हुई इस यात्रा में उनके बेटे नरेन और दूसरे परिजन भी साथ थे. तब नरेन 14 साल के थे. वो तीसरी कक्षा में पढ़ते थे, जो मौजूदा वक्त में आठवीं कक्षा है.
रायपुर में रामकृष्ण मिशन-विवेकानंद आश्रम के सचिव स्वामी सत्यरूपानंद कहते हैं, 'स्वामीजी से जुड़े लेखन और दस्तावेजों से हमने पाया कि मौसम बदलने के लिए पिता उन्हें यहां लेकर आए. दूसरी वजह यह थी कि एक कानूनी मामले के सिलसिले में उन्हें कलकत्ता से लंबे वक्त तक बाहर रहना था. वो और उनका परिवार बुद्धपारा में रहा.'
रायपुर जाने से पहले नरेन कलकत्ता की मेट्रोपॉलिटन इंस्टीट्यूशन ऑफ पंडित ईश्वर चंद विद्यासागर में पढ़ रहे थे. वो स्कूली पढ़ाई छोड़कर अपने पिता के साथ रायपुर चले गए. लेकिन उस वक्त रायपुर में अच्छे स्कूल नहीं थे. इसलिए उन्होंने रायपुर का वक्त अपने पिता के साथ बिताया. इस दौरान आध्यात्मिक विषय पर पिता से साथ उनकी बौद्धिक चर्चाएं हुईं. रायपुर में ही स्वामीजी ने हिंदी सीखी. यहीं पर उन्होंने पहली बार शतरंज के खेल के बारे में जाना. उनके पिता ने उन्हें खाना बनाना भी सिखाया. नरेन के पिता संगीत से प्यार करते थे. वो खुद गाते भी थे. नरेन के पिता ने संगीत के लिए घर में उपयुक्त माहौल बनाया.
यही हुआ आध्यात्मिकता से साक्षात्कार
उन दिनों रायपुर रेलवे से नहीं जुड़ा था. इसलिए श्री दत्ता और उनका परिवार इलाहाबाद और जबलपुर होते हुए रायपुर पहुंचा था. मौजूद दस्तावेजों के मुताबिक जबलपुर से श्री दत्ता का परिवार बैलगाड़ी में रायपुर पहुंचा था. इस रास्ते में घने जंगल और पहाड़ थे. यह सफर करीब 15 दिन में पूरा हुआ.
यह कहा जा सकता है कि स्वामी के आध्यात्मिक जीवन को आकार देने में रायपुर की खास भूमिका रही. यह पहला मौका था जब नरेन ने गहरे ध्यान में मन रमाया. इसमें कल्पना-शक्ति ने उनकी मदद की. बाद में स्वामीजी ने इस अनुभव और सफर के दौरान (जबलपुर से रायपुर) प्राकृतिक सुंदरता के बारे में बताया था.
किसी विशेष दिन की घटना को याद करते हुए उन्होंने लिखा, 'हमें विंध्य पहाड़ों के पैरों से यात्रा करनी पड़ी… धीरे-धीरे चलने वाली बैलगाड़ी वहां पहुंची, जहां दो पहाड़ियों की चोटियां मिल रही थी और मिलन-बिंदु के नीचे ढलानी थी. मधुमक्खी का एक विशाल छत्ता लटकता देख मैं चकित रह गया. मैं मधुमक्खियों के साम्राज्य के शुरुआत और अंत के बारे में सोचने लगा, मेरा मन ईश्वर की अनंत शक्ति, तीनों दुनिया को नियंत्रित करने वाले में रम गया. कुछ वक्त के लिए बाहरी दुनिया से मेरा संपर्क पूरी तरह टूट गया. मुझे नहीं पता कि कितनी देर तक मैं बैलगाड़ी में इस स्थिति में पड़ा रहा. जब मुझे सामान्य चेतना आई तो मैंने पाया कि हम उस जगह से निकलकर बहुत दूर आ चुके हैं.'
इस घटना को युवा नरेन के जीवन का अहम मोड़ माना जाता है. स्वामी सत्यरूपानंद कहते हैं, 'बैलगाड़ी से इसी यात्रा के दौरान शायद स्वामीजी को पहली बार परमात्मा के होने का अहसास हुआ और ईश्वर के अस्तित्व का सवाल उनके मन में आया.'
लोगों के लिए पवित्र हैं ये जगहें
बुद्धपारा में जहां उनका परिवार रहा, वहां अधिकतर बंगाली परिवार ही थे. वहां तब के बुद्धिजीवियों के घर थे. यह कालॉनी बुद्ध तालाब के सामने है. इसे अब विवेकानंद सरोवर के नाम से जाना जाता है. कहा जाता है कि एथलेटिक स्वभाव के चलते, नरेन दोस्तों के साथ बुद्ध तालाब में तैराकी के लिए जाते थे. बुद्धपारा के निवासी आज भी इसे पवित्र मानते हैं और यहां रहना गौरव मानते हैं.
इंडिया टुडे (हिंदी) के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार जगदीश उपासने याद करते हैं, 'हमारा घर गिरीभट्ट गली में था. यह उस लेन के सामने हैं, जहां स्वामीजी रहे थे. मेरा एक दोस्त उस घर के एक हिस्से में रहता था. अपने बचपन से ही हम उस जगह पर रहने में गौरव का अनुभव करते थे, जहां किसी और ने नहीं बल्कि स्वामी विवेकानंद ने दो साल बिताए थे.'
स्वामीजी जहां रहते थे, उस घर को लेकर मतभेद हो सकते हैं, लेकिन शहर में उनके निवास ने छत्तीसगढ़ में अमिट छाप छोड़ दी है. इसकी गूंज आज भी सुनाई देती है. श्रद्धांजलि के रूप में, 1968 में रामकृष्ण मिशन और मठ की पहली शाखा अविभाजित मध्य प्रदेश के रायपुर में स्थापित की गई. इसे पहले निजी आश्रम का रूप देने का विचार था लेकिन फिर इसे बेलूर मठ से जोड़ दिया गया.
सत्यरुपानंद गर्व के साथ कहते हैं, 'छत्तीसगढ़ खासकर रायपुर, तीर्थस्थान है, क्योंकि स्वामी विवेकानंद के चरण यहां पड़े थे. बुद्धपारा और मठ की नजदीकी से मैं निश्चित हूं कि स्वामीजी यहां से जरूर गुजरे होंगे.'
रायपुर का बूढ़ा तालाब जिसे अब स्वामी विवेकानंद सरोवर के नाम से जाना जाता है
दस्तावेज बताते हैं कि कई नामचीन स्कॉलर रायपुर में विश्वनाथ दत्ता के यहां आते थे. नरेन उनकी बातचीत सुनते थे और कभी-कभार बैठकी में भी शरीक होते थे. इस दौरान वो अपने विचार रखते थे. कई विषयों पर उनकी तार्किकता बड़ों को चकित कर देती थी, इसलिए उन्हें बराबर का दर्जा मिलता था.
परिवार 1879 में वापस कलकत्ता लौट आया. नरेन अपने पुराने स्कूल जाने लगे. वहां उन्हें पुराने दोस्त मिल गए. इसी साल उन्होंने कलकत्ता के प्रतिष्ठित प्रेसिडेंसी कॉलेज की दाखिला परीक्षा पास की. यहां कुछ समय के लिए प्रवेश लिया और फिर जनरल असेंबलीज इंस्टीट्यूशन (स्कॉटिश चर्च कॉलेज) में चले गए.
रायपुर में अध्यात्म का जो बीज विवेकानंद के अंदर पनपा, उसने उन्हें महान वैश्विक हस्ती बना दिया. वो भारत और पश्चिम के बीच एक कड़ी बन गए. 1893 में शिकागो में हुई ‘विश्व धर्म संसद’ में उन्होंने भारत और पूर्व के प्रतिनिधि के तौर पर अपनी आवाज बुलंद की. इसे रामकृष्ण मिशन के 13वें अध्यक्ष स्वामी रंगनाथंदा की एक टिप्पणी से बेहतर तरीके से समझा जा सकता है. उन्होंने कहा था, 'पिछले हजारों साल के हमारे इतिहास में पहली बार हमारे देश ने स्वामी विवेकानंद के रूप में एक महान शिक्षक पाया था, जिन्होंने भारत को सदियों के अलगाव से निकाला और उसे अंतर्राष्ट्रीय जीवन के मुख्यधारा में ले आए.'
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