
सेंट पीटर्सबर्ग (रूस): जनजातीय सरोकारों पर केंद्रित राष्ट्रीय मासिक ककसाड़ ने अब अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक फलक पर ऐतिहासिक कदम रख दिया है। संपादक डॉ. राजाराम त्रिपाठी ने हाल ही में रूस की यात्रा के दौरान सेंट पीटर्सबर्ग की प्रतिष्ठित हिंदी विदुषी यूलिया व्लादिमिर्वोना बेस्चुक तथा उनकी सुपुत्री नादेज्दा लोज़ा से भेंट की। इस अवसर पर ककसाड़ पत्रिका का नवीन अंक औपचारिक रूप से उन्हें भेंट किया गया, जिससे हिंदी और रूसी साहित्य के बीच संवाद का नया सेतु स्थापित हुआ।
विशेष महत्व की बात यह रही कि डॉ. त्रिपाठी का प्रवास रूस के अमर साहित्यकार फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की के नाम पर बने प्रसिद्ध दोस्तोयेव्स्की होटल में हुआ। जैसे बस्तर की मिट्टी से उठी चेतना और रूस की गहरी साहित्यिक परंपरा, दोनों ने इस यात्रा में हाथ मिला लिया हो।
यूलिया व्लादिमिर्वोना बेस्चुक ( Yulia Vladimirovna Beschuk) हिंदी–रूसी सांस्कृतिक संवाद व चेतना की शिल्पकार : रूस में हिंदी भाषा शिक्षण और आधुनिक हिंदी साहित्य पर शोध की अग्रणी हस्ती यूलिया व्लादिमिर्वोना बेस्चुक ने न केवल ककसाड़ के अंतरराष्ट्रीय संस्करण का स्वागत किया, बल्कि इसकी सामग्री की खुलकर सराहना की. उन्होंने कहा, “ककसाड़ जनजातीय संस्कृति और साहित्य की गहराइयों को जिस गंभीरता से प्रस्तुत करती है, वह हमारे छात्रों को भारत के वास्तविक सरोकारों से जोड़ेगी.” यूलिया व्लादिमिर्वोना बेस्चुक सेंट पीटरर्सबर्ग में नोबेल पुरस्कार प्राप्त विश्व कवि रवींद्र नाथ टैगोर के नाम पर स्थापित विद्यालय में हिंदी की वरिष्ट शिक्षिका हैं.
उनकी सुपुत्री नादेज्दा लोज़ा, जो कि बहुत ही सुंदर हिंदी बोलती है, हिंदी की अच्छी जानकार भी हैं और सेंटपीटर्सबर्ग विश्वविद्यालय में अपनी उच्च शिक्षा के अंतिम सत्र की छात्रा हैं, ने भविष्य में डॉ राजाराम त्रिपाठी का सहायक संपादक बनने की इच्छा व्यक्त की.
डॉ. त्रिपाठी: बस्तर से रूस तक की यात्रा: बस्तर की जनजातीय मिट्टी में जन्मे डॉ. राजाराम त्रिपाठी हिंदी साहित्य, जनजातीय चेतना और जनसरोकारों के सशक्त स्वर हैं। उनकी पुस्तकें मैं बस्तर बोल रहा हूँ, बस्तर बोलता भी है, दुनिया इन दिनों तथा विशेष रूप से 'गांडा जनजाति या अनुसूचित जनजाति?' राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय रही हैं। ककसाड़ के माध्यम से वे न केवल आदिवासी अस्मिता, बल्कि साहित्य, संस्कृति और समाज के गहरे प्रश्नों पर विमर्श रचते हैं।
उन्होंने कहा, “अलेक्जेंडर पुश्किन, टॉल्स्टॉय, दोस्तोयेव्स्की, गोर्की, चेखव जैसे साहित्यकारों को बचपन से पढ़ते हुए रूस मेरे सपनों का देश रहा है। आज सेंट पीटर्सबर्ग में हिंदी प्रेमी विदुषी से मिलना एक जीवन-स्मृति है।” डॉ त्रिपाठी ने इस पत्रिका के लगभग 11 वर्षों के अबाध नियमित प्रकाशन का श्रेय कुसुमलता सिंह को दिया।
कुसुम लता सिंह की गरिमामयी उपस्थिति: इस ऐतिहासिक क्षण में शामिल होने के लिए ककसाड़ की प्रकाशक एवं परामर्श संपादक कुसुम लता सिंह भी विशेष रूप से रूस पहुँचीं। उन्होंने यूलिया व्लादिमिर्वोना बेस्चुक को बस्तर के विश्व प्रसिद्ध कोसा सिल्क की शाल सम्मान स्वरूप भेंट की, तथा बाल साहित्य पर उनकी विश्व प्रसिद्ध पुस्तकें भी भेंट किया। अंतरराष्ट्रीय बाल साहित्य की प्रतिष्ठित हस्ती के रूप में उनकी उपस्थिति ने इस संवाद-आयोजन को नई गरिमा दी। कुसुम जी ने कहा, “यह केवल एक पत्रिका का अंतरराष्ट्रीय विस्तार नहीं, बल्कि दो संस्कृतियों के बीच हृदयों का सेतु है।” उल्लेखनीय है कि कुसुम लता सिंह इस पत्रिका की न केवल प्रकाशक तथा परामर्श संपादक हैं, बल्कि इस पत्रिका की शुरुआत की मूल परिकल्पना से जुड़ी हैं। अब ककसाड़ का नवीन अंक रूस के विश्वविद्यालयों तक नियमित रूप से पहुँचेगा। यह पहल न केवल हिंदी–रूसी सांस्कृतिक संबंधों को नई दिशा देगी, बल्कि रूस की नई पीढ़ी के लिए भारत की जनजातीय संस्कृति को समझने की एक सशक्त खिड़की भी बनेगी।
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