 
            बात  पुरानी, वर्ष दो की, जनवरी  माह  की
रात दो  बजे  की, गेहूं सींचते, कृशक विशेष  की
हाड़ कपकपाती शर्दी थी, रक्त जमाती रात  थी
रक्त वह्नियाँ जाम थीं, जीवित अंग बने बेजान थे
चीखती, बर्फीली  ब्यार से, द्र्श्य सभी अदृश्य थे
पैर सही पड़ते  नहीं, हाथ  फावड़ा पकड़ते  नहीं
बन ,मानव  मशीन, कृषक, सींच रहा अरमान था
खड़ा  बर्फ  बीच, जीवित कृषक  हो, अर्ध जीवित
मन साथ नहीं, जिस्म साथ नहीं, इस अभागे  का
तीव्र  इच्छा, सर्व  सेवा की, खींच रही, दोनों को
था  तापक्रम, शरीर का, बर्फ जितना, कृषक  का
देखा नहीं कभी, ऐसा अद्भ्य साहस, मानव का
फिर, बरसता धधकता लावा, आया माह  जून का
लगाया कर्फ्यू  अंगारों ने, जैविक जीवों  के  लिये
अंगारे, झुलसा रहे, दाग रहे  बदन हर मानव का
टकरा सूखी  पत्तियाँ, हो रहीं मजबूर, जलने  को
आँख झपटते, कोयला राख बनाती गर्मी सुनी थी
हकीकत में  परिवर्तित  होती, गर्मी  आज  देखी
खिसकी जमीन मेरी आश्चर्य से देख वही किसान
निकाल रहा घास था, खडी  ग्रीष्म  मूंग  बीच
अर्ध –डका –अर्ध- जला  पसीने  से नहाया शरीर ,
देख अडिग भग्ती कर्म सेवा की, इस अन्नदाता की
देख उसे ललकारते, आपदाओं, विभीषिकाओं को
दिल ऐसा पिघला मेरा, ऐसे आंसू छलके आज मेरे
आँसूं भये जलधारा ऐसी, टपके आंसू, ऐसे कुछ मेरे
धुले ना, जबतक पवित्र पैर, उस दरिद्रनारायण के
रुकी ना, धीरे हुई ना, जलधारा  मेरे  असुवन  की
धो पैर धरतीपुत्र, अपने असुवन से हुआ धन्य मैं
बना आज़, कृषी वैज्ञानिक से कृशक, कामदार मैं
डी कुमार
 
                 
                     
                     
                     
                     
                                         
                                             
                                             
                         
                         
                         
                         
                         
                    
                
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