भारत में फूलगोभी शरदकालीन व शीतोष्ण या शीत कटिबन्धीय सब्जियों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण एवं लोकप्रिय सब्जी फसल है. फूलगोभी में विटामिन-बी तथा प्रोटीन प्रचुर मात्रा में पायी जाती हैं. रक्त विकास में इसकी सब्जी या इसका उबला हुआ रस लाभदायक होता है साथ ही इसके सेवन से कुष्ठ एवं ह्दय रोग में भी इसका सेवन लाभकारी है.फूलगोभी को अचार, डिब्बाबन्दी तथा सुखाकर सुरक्षित रखा जाता है.
इसकी तासीर ठण्डी होती है. यह भारी मूत्रवर्धक होती है. इसकी सब्जी को अदरक डालकर खाना चाहिए. रक्त विकास में इसकी सब्जी या उबाले हुए रस का प्रयोग करना लाभदायक होता है. इसके पत्तों के रस या सब्जी के सेवन से कुष्ट रोग में लाभ होता है. इसकी सब्जी या उबालकर निकाले हुए रस को सेंधा नमक के साथ प्रयोग करते रहने से हृदय रोग में लाभ मिलता है.
जलवायु (Climate)
फूलगोभी की खेती के लिए उचित तापमान एवं प्रकाश अवधि का होना अत्यन्त आवश्यक है. इसी कारण विभिन्न ऋतुओं के लिए अलग-अलग किस्में विकसित की गयी हैं.
फूलगोभी की खेती के लिए ठण्डी एवं आर्द्र जलवायु अच्छी होती है.
यदि दिन की अवधि छोटी हो एवं तापमान अपेक्षाकृत कम हो तो गोभी का बन्द फूल/(कर्ड) का विकास अच्छा होता है. फूल (कर्ड) तैयार होने के समय तापमान अधिक होने से फूल छितरे, पत्तेदार तथा पीले रंग के हो जाते हैं.
अगेती किस्मों के लिए अपेक्षाकृत अधिक तापमान व बड़ें दिनों की आवश्यकता होती है.
यदि फूलगोभी की अगेती किस्मों को देर से एवं पछेती किस्मों को जल्दी उगाया जाये तो गोभी फूल (कर्ड) अच्छी नहीं बनती है और फूल का आकार छोटा रह जाता है तथा फूल बटन की तरह, रोयेदार या पत्तेदार हो जाती है.
फूल बनने के लिए उचित तापमान 15-20 डिग्री सेन्टीग्रेड अच्छा रहता है. जबकि शीतोष्ण किस्मों के लिए 10-16 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान फूल बनने के तथा बीज बनने के लिए 25-30 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान उपयुक्त रहता है.
मिट्टी का चुनाव एवं खेत की तैयारी (Soil selection and field preparation)
वैसे तो फूलगोभी की खेती सभी प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है, परन्तु अच्छी जल निकास वाली दोमट मिट्टी जिसमें जीवाश्म भरपुर मात्रा में हो और जिसका पी.एच. मान 6.0 से 6.5 के बीच हो, फूलगोभी की सफल खेती के लिए उपयुक्त होती है.
पौध लगाने के पहले क्यारी या खेत को अच्छी तरह से जोतकर मिट्टी को भुरभुरा बना लें एवं पाटा लगाकर समतल कर लेना चाहिए.
बीज के स्रोत एवं अनुमोदित प्रजातियाँ (Seed sources and approved species)
उन्नत प्रजाति के गुणवत्तायुक्त प्रमाणित बीज को मान्य संस्था या बीज प्रमाणीकरण एजेंसी से लेना चाहिए.
बीजों के पैकेटस या बैग/थैलों पर लगे टैग्स और प्रमाण पत्र को अच्छी तरह सम्भाल कर रखना चाहिए. साथ ही बीज के पैकेट्स पर लिखी वैधता तारीख को अवश्य देखें और बीज को तदनुसार खरीदें.
उत्तर-पश्चिमी पर्वतीय राज्यों एवं कुमाऊँ क्षेत्र के पर्वतीय क्षेत्रों के लिए पछेती फूलगोभी की किस्मों को लगाना चाहिए. इसमें स्नोबाल के-1] पूसा स्नोबाल के-25 किस्में अनुमोदित की जाती है.
स्नोबाल के-1 : उपज 30 टन/हैक्टेयर, पत्तिया हरी-नीली] पत्तियों का शीर्ष शंकुवाकार, कर्ड स्नो व्हाइट, अधिक ठोस, परिपक्वता-पौध स्थानान्तरण के 90-95 दिन बाद, काला धब्बा रोग के प्रति प्रतिरोधक.
पूसा स्नोबाल के-25 : उपज : 17.5-30.0 टन/हैक्टेयर, देर से परिपक्वता, पत्तियाँ हल्की हरी, कर्ड सफेद तथा ठोस, काला धब्बा रोग के प्रति प्रतिरोधक.
इन किस्मों के अलावा सुपर स्नाबाल, संकर नं-71, स्नो क्राउन, पन्त शुभ्रा, पूसा हाइब्रिड-2, अर्ली स्नोबाल किस्मों को भी लगाया जा सकता है.
बुआई एवं रोपाई (Sowing and Planting)
फूलगोभी के बीज को पहले पौधशाला में बोकर पौध तैयार की जाती है. फिर 30 दिन की पौध को पहले से तैयार खेत में रोपित किया जाता है.
एक हैक्टेयर खेत की रोपाई के लिए सामान्यत: 400-500 ग्राम बीज से तैयार की गयी पौध उपयुक्त रहती है. यानि कि 8-10 ग्राम बीज से तैयार पौध एक नाली (200 वर्ग मीटर) खेत की रोपाई के लिए उचित होती है.
बीजों को जमीन की सतह से 15 सेंमी. ऊँची उठी हुयी क्यारी में 5 सेंमी. की दूरी पर बोना चाहिए.
बीज जमाव के 14-15 दिन बाद एक से दो मुट्ठी कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट को 12-15 लीटर पानी के घोल से पौधों पर छिड़काव करने से पौध अच्छी एवं स्वस्थ बनती है.
बीजों का जमाव अधिक घना नहीं होना चाहिए.
समय-समय पर नर्सरी में निराई-गुड़ाई, खरपतवार बीमारी व कीट नियन्त्रण करते रहना चाहिए.
फूलगोभी की पौध को 45 x 30 सेंमी. की दूरी पर सांयकाल में लगाना चाहिए.
पौध लगाने के तुरन्त बाद हल्की सिंचाई कर दें.
अच्छी स्वस्थ एवं बिना क्षतिग्रस्त पौधों को ही रोपित करें.
पौधशाला में फूलगोभी के बीज की बुआई मई-जून में कर देनी चाहिए. फरवरी-मार्च माह में भी बीज की बुआई कर सकते है.
एक माह बाद पौध को मुख्य खेत में रोपित कर देना चाहिए.
गर्मी की फसल के लिए सिंचाई की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए.
खाद एवं उर्वरक (Manures and Fertilizers)
गोभी की फसल को पोषक तत्वों की अधिक मात्रा में जरूरत होती है.
परन्तु, पोषक तत्वों को हमेशा मिट्टी की जाँच करवाकर ही देना चाहिए जिससे कि पोषक तत्वों की बर्बादी न हो, साथ ही विषाकतता न हो और न ही पोषक तत्वों की कमी हो.
सामान्यतः 14-15 कुन्तल सड़ी हुयी गोबर की खाद, 2.5--3.0 किग्रा. नाइट्रोजन, 1.0--1.25 किग्रा. फास्फोरस, व 0.75--1.0 किग्रा. पोटास/नाली (200 वर्ग मी.) के हिसाब से देनी चाहिए.
गोबर की खाद, फास्फोरस एवं पोटास की पूरी एवं नाइट्रोजन की आधी मात्रा को खेत की तैयारी करते समय मिट्टी में मिला देना चाहिए.
नाइट्रोजन की शेष आधी मात्रा को दो बराबर भागों में बाँटकर खड़ी फसल में 20 व 40 दिन के बाद देना चाहिए.
जहाँ तक सम्भव हो सके नत्रजन को यूरिया, फास्फोरस को सिंगल सुपर फास्फेट व पोटास को म्यूरेट आफ पोटास के रूप में देना चाहिए.
फूलगोभी के लिए बोरान, मालीब्डेनम इत्यादि सूक्ष्म तत्वों की भी आवश्यकता होती हैं जिनकी कमी से फूल छोटे व अर्द्ध विकसित रह जाते हैं.
अतः बोरेक्स या बोरोन 200-300 ग्राम/नाली रोपाई के समय देना चाहिए.
मोलिब्डेनम तत्व की कमी की पुर्ति हेतु अमोनियम मोलिब्डेट 30 ग्राम/नाली देना चाहिए.
खरपतवार नियंत्रण (Weed control)
फूलगोभी में गहरी गुड़ाई नहीं करनी चाहिए क्योंकि इसकी जड़ें 10-15 सेंमी. से गहरी नहीं जाती हैं.
पौध रोपाई के 20-25 दिन बाद जड़ों पर मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए.
पौध रोपण से पहले 24 ग्राम फ्लूक्लारोलिन या 500 ग्राम एलाक्लोर अथवा 40 ग्राम बासालीन प्रति नाली की दर से प्रयोग करना चाहिए.
सिंचाई (Irrigation)
पौध रोपण के तुरन्त बाद हल्की सिंचाई करें और जब तक पौध खेत में भली भाँति स्थापित न हो जाये तब तक हर दिन हल्की सिंचाई करनी चाहिए.
फिर 5-6 दिन के अन्तराल पर सिंचाई करते रहें ताकि खेत में 50-60 प्रतिशत नमी बनी रहे.
वर्षा ऋतु में यदि खेत में नमी पर्याप्त मात्रा में हो तो सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है.
पौध सुरक्षा- रोग एवं कीट (Plant Protection - Diseases and Pests)
पदगलन या आर्द्रगलन (डैम्पिंग आफ) : यह रोग पौधशाला में बहुतायत देखा जाता है. साधारणतया यह रोग राइजोक्टोनिया, पीथियम व फ्यूजेरियम नामक फफूँदी से अधिक नमी या उच्च तापमान के कारण होता है. प्रभावित पौधे भूमि की सतह से सड़ने लगते हैं तथा गिर जाते हैं जो बाद में मर जाते हैं. इस रोग के नियंत्रण के लिए नर्सरी की मिट्टी का शोधन 0.1 प्रतिशत कैप्टान या फार्मल्डिहाइड के घोल से बुवाई के दो सप्ताह पूर्व करना चाहिए- बीज शोधन बाविस्टिीन (2 ग्राम/किग्रा. बीज) से करना चाहिए. पौधशाला में बीज घने न हो बल्कि उचित दूरी पर लाइन में बोए- रोग का लक्षण दिखाई देते ही मिट्टी और कम्पोस्ट खाद बारीक करके नर्सरी में इस प्रकार छिड़के कि जड़ ढ़क जाय. जल निकास की उचित व्यवस्था रखे. जमाव के 10-15 दिनों के बाद बाविस्टिन, डायथेन एम-45, कवच इत्यादि में से किसी एक दवा की 0.2 प्रतिशत के घोल छिड़काव करना चाहिए.
मृदुरोमिल फफूँदी (डाउनी मिल्ड्यू) : इस रोग से फसल छोटे से लेकर बीज तैयार होने तक किसी भी समय रोग का प्रकोप प्रभावित हो सकता है. प्रभावित पत्तियों का रंग पीला पड़ जाता है तथा अधिक प्रभाव से पौधा मर जाता है. फूल लगते समय फूलों पर काले धब्बे के रूप में यह रोग दिखाई देता है. पुराने पौधों पर पत्तियों के ऊपरी सतह पर जामुनी गोल रंग के या पीले कसेरू रंग के धब्बे के रूप में दिखाई पड़ते हैं. प्रभावित पौधे रोग के कारण मर जाते हैं. इस रोग के नियंत्रण के लिए डायथेन एम-45 या बोर्डेक्स मिश्रण के 0.2 प्रतिशत का छिड़काव सप्ताह में एक बार अवश्यक करना चाहिए.
काला चकता या ब्लैक स्पाट रोग (लीफ स्पाट एवं ब्लाइट) : यह अल्टरनेरिया ब्रैसिकी या अल्टरनेरिया ब्रैसिकोला नामक फफूँदी से फैलता है. प्रभावित पौधे के तने पत्तियों एवं डंठलों पर गोल-गोल या अण्डाकार काले धब्बे पड़ जाते हैं. अधिक प्रभावित होने पर पत्ते तनों के सतह पर काली परत के रूप में दिखाई देने लगती है. इस रोग के नियंत्रण के लिए बीज नर्सरी में बुआई से पूर्व गर्म पानी से 50 डिग्री सेन्टीग्रेड पर 30 मिनट तक उबाल कर उपचारित करना चाहिए तथा बीज का शोधन केप्टान से (02.5 प्रितिशत ग्राम/किग्रा./बीज) से करना चाहिए. खड़ी फसल में डाइथेन एम-45 के 0.2 प्रितिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए.
जलीय मृदुविगलन या वाटरी साफ्ट राट (स्केलेरोटीनिया स्टाक राट) : यह रोग स्कलैरोटीनिया स्क्लैरोशियम नामक फफूँद से फैलता है. इसकी समस्या अभी भारत वर्ष के मैदानी क्षेत्रों में नहीं है जबकी हिमाचल प्रदेश से गम्भीर समस्या है. रोग का प्रारम्भ पत्तियों से आरम्भ होता है जो लाल रंग के गोल या अण्डाकार भूरे धब्बे के रूप में देखा जाता हैं जो धीरे-धीरे पूरे पत्तों में छा जाते हैं और इस प्रकार 50 प्रतिशत तक उपज में कमी हो जाती है. इस रोग के नियंत्रण के लिए उचित फसल चक्र अपनायें. बाविस्टिन के 0.2 प्रितिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए.
काला विगलन (ब्लैक राट) : यह गोभी की खतरनाक रोग है जो जैन्थोमोनास कम्पेस्ट्रीस नामक बैक्टीरिया से फैलता है. इस रोग की वृद्धि 26 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान पर जब मौसम आर्द्र रहता है तो अधिक प्रकोप होता है. इस रोग से प्रभावित पत्तियों के किनारे पर पीले रंग के अंग्रजी के अक्षर वी आकार के धब्बे पड़ जाते हैं जो मध्य शिरा की ओर बढ़ते हैं जिससे शिराओं का रंग फीका पड़ जाता है जो बाद में काली पड़ जाती हैं. इस प्रकार धीरे-धीरे तना पत्तियों और बीज वाली फसल में फलियाँ सभी काली पड़ कर झड़ जाती हैं. इस रोग के नियंत्रण के लिए रोग से बचाव के अपचार के लिए बोने से पहले बीज को 52 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान पर आधे घन्टे तक गर्म पानी से उपचारित करने के बाद पुनः आधे घन्टे तक स्ट्रेप्टोमाइसीन के 100 पी पी एम के घोल में डुबाने के बाद बीज को बोए. खेती के लिए रोग रोधी किस्मों का चयन करें.
जीवाणु मृदुविगलन (बैक्टिरियल साफ्ट राट) : यह रोग इरविनिया कैरोवोश नामक जीवाणु से फैलता है. यह रोग पौधों के क्षतिग्रस्त अंगों में प्रवेश कर फसलों को हानि पहँचाता है. ग्रसित पौधों की सतह चिकनी व कोमल दिखाई पड़ती है तथा प्रभावित भाग सड़ने लगते हैं जो दुर्गन्ध पैदा करते हैं. अनुकूल परिस्थितियों में (बदली हो तो) यह बहुत तीव्रता से फैलता है. ओलो से प्रभावित पौधों पर इस रोग का प्रभावच बहुत शीघ्र होता है. इस रोग से बचाव के लिए पौधों को क्षतिग्रस्त होने से बचाना चाहिए.
कली मेखला (ब्लेक लैग) : यह एक जीवाणु जनित रोग है. इसमें पत्तियों पर रोग के धब्बे शुरू में अधिक स्पष्ट नहीं होते परन्तु धीरे-धीरे बड़ें होते जाते हैं. इन धब्बों का केन्द्रीय भाग राख की तरह धूसर रंग का होता है. बीमारी युक्त तना लम्बवत रूप से फट जाता है तथा कटे भाग पर कालापन आ जाता है. जड़़ वाला हिस्सा नीचे से ऊपर की ओर सड़ने लगता है.
प्रबन्धन : बीजोपचार - स्ट्रेप्टोसाइक्लिन 0.01 प्रतिशत (100 मिलीग्राम/किग्रा. बीज)
खड़ी फसल में (यदि रोग दिखे). स्ट्रेप्टोसाइक्लिन छिड़काव 1 ग्राम/10 लीटर की दर से या ब्लीचिंग पाउडर 240 ग्राम/नाली की दर से खेत में मिलाएं.
सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी (Micronutrient deficiency)
बोरोन कुपोषण (ब्राउनिंग) - बोरोन की कमी से गोभी के खाने योग्य भाग (कर्ड) छोटा रह जाता है. इसकी कमी से प्रारम्भ में तो गोभी पर छोटे-छोटे दाग दिखाई देते है जो बाद में कर्ड हल्का गुलाबी या भूरे रंग का हो जाता है जो खाने में कड़वा लगता है. इससे फूलगोभी की पैदावार तथा बाजार में बेचने पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. बचाव के लिए बोरेक्स या बोरान 20 किग्रा./हे. की मात्रा अन्य उत्प्रेरक के साथ खेत में डालना चाहिए. खडी फसल में नियंत्रण के लिए फसल पर बोरेक्स या बोरान के 0.25-0-50 प्रतिशत का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए.
मालीब्डेनम कुपोषण (हृवीप्टेल) : इस सूक्ष्म तत्व की कमी से पत्तियों में हरा रंग की कमी हो जाती और वे किनारे से सफेद हो जाती हैं जो नाम मात्र के लिए थोड़ा हरा रह जाती हैं. बाद में मुरझा कर गिर जाती है. नयी पत्तियाँ विकृत हो जाती है. इससे बचाव के लिए 1.0--1.50 किग्रा. अमोनियम मालीबडेट प्रति हेक्टेयर की दर से पौधों के रोपण के समय ही देना चाहिए.
हौलोस्टेम-अत्यधिक उपजाऊ जमीन में नत्रजन की मात्रा अधिक देने के कारण पौधों की वृद्धि तो जल्दी होती है लेकिन इसके कारण तने में खोखलेपन की समस्या आ जाती है. इसके बचाव के लिए पौधों को सही मात्रा में सन्तुलित उर्वरक देना चाहिए.
उपाय : यदि मिट्टी परीक्षण द्वारा या पौधों को देखने से बोरान की कमी के लक्षण प्रतीत हों तो फसल की आवश्यकतानुसार 5-20 कि.ग्रा. बोरेक्स प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करें. यह मात्रा मिट्टी और फसल की विभिन्नता के अनुसार कम या अधिक हो सकती है. सब्जियों की फसलों में बोरान या तो मिट्टी में मिलाकर या पर्णीय छिड़काव श्रेष्ठ रहता है. पर्णीय छिड़काव हेतु 0.2 प्रतिशत बोरेक्स या बोरिक अम्ल का छिड़काव करना उत्तम रहता है.
दैहिक ब्याधियाँ :फूलगोभी में विभिन्न प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण दैहिक ब्याधियाँ विकास जैसे - बटनाकार आकृति की गोभी, कणात्मकता और पत्तापन या पत्राच्छादन इत्यादि हो जाते हैं जिससे गोभी की फसल उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं.
बटनाकार गोभी (बटनिंग) : इस अवस्था में गोभी अपेक्षाकृत जल्दी बननी प्रारम्भ हो जाती है. बटनाकार गोभी का मुख्य कारण नाइट्रोजन की कमी तथा एक वर्ग गोभी (मौसम की) दूसरे वर्ग में बुआई करना पौधों की वृद्धि में कही रूकावट आना इत्यादि मुख्य कारण है. जैसे- कीड़ों द्वारा जड़ों पर आक्रमण या अगेती फूलगोभी की किस्म का रोपण देर से या देर वाली किस्म का रोपण जल्दी करना. इसके निदान के लिए सही किस्म सही समय पर लगाना चाहिए तथा पौधों को रोगों व कीड़ों से बचाना चाहिए.
कणात्मकता : इस दैहिक ब्याधि में बिना तैयार हुए ही हरी गोभी (खाने वाले भाग यानि कर्ड) पर फूल निकलने लगते हैं जिससे बाजार भाव घट जाता है. गोभी में फूल निकलना प्रारम्भ होना (गोभी का फटना) ज्यादातर बदली के मौसम या फुआर पड़ने के कारण हो जाता है. बचाव के लिए यदि गोभी के तैयार होने में थोड़ी भी कसर हो तो भी उन्हें काटकर बदली का मौसम देखते ही बाजार में बेच देना चाहिए.
पत्तापन अथवा पत्राच्छादन (लीफीनेस) : फूलगोभी में कभी-कभी गोभी के खाने वाले भाग पर छोटी-छोटी पत्तियाँ निकल आती हैं ऐसा मुख्य रूप से फूल बनने के समय तापमान अधिक हो जाने के कारण होता है. इसके बचाव के लिए उचित किस्मों का चुनाव तथा उनका रोपण समय पर करना चाहिए.
राइसीनेस या हेयरीनेस - इसका प्रभाव मुख्य रूप से तब होता है जब गोभी को काटने में विलम्ब करते हैं. परिणामस्वरूप गोभी अधिक परिपक्व हो जाती है. जिससे पत्रदल लम्बे हो जाते हैं जिसके कारण फूल अर्थात कर्ड छितर या फैल जाते है. फूल बनने के समय लम्बे समय तक तापमान अधिक होने के कारण फूलों पर रोये आ जाते हैं.
फूलों में पिगमेन्टेशन (पिकिंग) : कभी-कभी प्रतिकूल मौसम के कारण तथा फसल की बढ़त के समय किसी भी तत्व की कमी या जड़ों के क्षतिग्रस्त होने या कृषि-क्रियाओं में किसी भी तरह की असावधानी हो जाने या फूलों को तेज प्रकाश मिलने के कारण एन्थोसाइनिन बनता है जिसकी वजह से फूलों का रंग हल्का बैंगनी या गुलाबी हो जाता है. इसके बचाव के लिए कृषि-क्रियाओं तथा खाद आदि को यथोचित बनाये रखने के साथ ही ध्यान दें कि रोपाई के समय पौधों की जड़े क्षतिग्रस्त न होने पाये. इसके अलावा फूलों को धूप से बचाने के लिए या तो ऐसी किस्मों का चुनाव करें जिसमें पत्तियाँ स्वयं फूल के ऊपर सुरक्षा कवच बना देती हों या फिर पत्तियों के गुच्छों को फूल के ऊपर धागे या रबर की सहायता से बाँध देना चाहिए.
फूलगोभी का भूरा रोग : शीर्ष पर भूरे चकत्ते पड़ना, पत्तियों का मोटा तथा कड़ा हो जाना, नीचे की ओर मुड़ जाना, मध्य शिरा के किनारे-किनारे एवं पर्णवृन्त पर फफोले पड़ जाना इस रोग के लक्षण हैं.
कीट (insect)
माहू : ये झुंडों में पत्तियों एवं कोमल शाखाओं से रस चूसते हैं, जिससे पत्तियाँ मुड़ जाती हैं. पौधों की वृद्धि रूक जाती है,
प्रबन्धन : फूल बनने से पहले जब कीट का प्रकोप दिखे तो एसिटामिप्रिड का 0.3 मिली. या मिथायल डिमेटान 1.0 मि. ली./लीटर घोल की सांयकाल में छिड़काव करना चाहिए.
गोभी की सूंडियाँ : ये सूंडियाँ सफेद तिल्ली के अण्डों से पैदा होती हैं. ये प्रारम्भ में पत्तों को खाती हैं बाद में पूरे पौधे को खाकर नष्ट कर देती हैं.
प्रबन्धन : कारटाप हाइड्रोक्लोराइड का 1 ग्राम या मैलाथिआन का 2 मिली/लीटर पानी के घोल का छिड़काव करना चाहिए.
प्रष्ठ (काला) हीरक पतंगा : इनकी सूंडियाँ पत्तों के ऊतक को खाती है और बाद में फूल/कर्ड में छेद कर देती है. पतंगा भूरे रंग का होता है तथा पंखों पर हीरे जैसे चमकीले निशान पाये जाते हैं.
प्रबन्धन : स्पानोसाड का 0.5 मिली लीटर/लीटर पानी की दर से स्टीकर के साथ छिड़के.
कटाई, उपज एवं भण्डारण (Harvesting and Storage)
जब गोभी का खाने वाला भाग (कर्ड) पूर्ण आकृति ग्रहण कर ले व रंग सफेद व चमकदार हो जाय तो पौधों की कटाई पर आवश्यकतानुसार उपयोग में ला सकते हैं. देर से कटाई करने पर रंग पीला पड़ने लगता है और फूल फटने लगते हैं जिससे बाजार भाव घट जाता है. थोड़ी देर के बजाय कुछ जल्दी काटना ज्यादा अच्छा होता है. गोभी को उखाड़े न बल्कि तेज चाकू से जमीन की सतह से थोड़ा ऊपर से काटें और बाजार भेजने से पहले बाहरी व पुरानी पत्तियाँ तोड़ देवें. विभिन्न वर्गो एवं किस्मों की फसलों की पैदावार अलग-अलग होती है जो निम्न है. सामान्यतः एक नाली क्षेत्र से 4-6 कुन्तल फूलगोभी की पैदावार हो जाती हैं.
अगेती किस्में - 10-15 टन/हैक्टेयर
मध्यम किस्में – 12-18 टन/हैक्टेयर
मध्यम देर किस्में – 15-30 टन/हैक्टेयर
देर वाली किस्में – 20-30 टन/हैक्टेयर
जहाँ तक सम्भव हो सके कटाई सदैव शाम के समय ही करना चाहिए. कटाई के पश्चात बाहरी, रोगी व पुरानी पत्तियों को तोड़कर अलग-अलग श्रेणियों में छाट ले तथा यथा शीघ्र बाजार भेजने की व्यवस्था करनी चाहिए. फूलगोभी के पत्ते तोड़कर 10-15 डिग्री सेन्टीग्रेड तापमान एवं 60-65 प्रतिशत आद्र्र्रता पर भण्डारित किया जा सकता है.
राज नारायण, मुकेश सिंह मेर, अरूण किशोर एवं विनोद चन्द्रा
भा.कृ.अनु.प.-केन्द्रीय शीतोष्ण बागवानी संस्थान क्षेत्रीय केन्द्र मुक्तेश्वर (उत्तराखण्ड)
Mukesh Singh Mer
SRF ICAR-CITH Regional Statation
Mukteshwar
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