रासायनिक उर्वरकों के पर्याय के रूप में हम जैविक खादों जैसे गोबर की खाद, कम्पोस्ट, हरी खाद आदि को उपयोग कर सकते हैं। इनमें हरी खाद सबसे सरल व अच्छा प्रयोग है। पशुधन में आई कमी के कारण किसानों को गोबर की उपलब्धता पर भी निर्भर रहने की आवश्यकता काफी कम रह जाती है। सघन कृषि पद्धति के विकास तथा नगदी फसलों के अन्तर्गत क्षेत्रफल बढ़ने के कारण हरी खाद के प्रयोग में निश्चित ही कमी आई है लेकिन बढ़ते ऊर्जा संकट, उवर्रकों के मूल्यों में वृद्धि तथा गोबर की खाद की सीमित आपूर्ति से आज हरी खाद का महत्व बढ़ गया है। दूसरी तरफ मृदा के लगातार दोहन से उसमें उपस्थित पौधे की बढ़वार के लिये आवश्यक पोषक तत्व नष्ट होते जा रहे हैं। इनकी क्षतिपूर्ति हेतु व मृदा की उपजाऊ शक्ति को बनाये रखने के लिये हरी खाद एक उत्तम विकल्प है। भारत में मुख्य रूप से आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, बिहार, झारखंड में हरी खाद का प्रचलन है।
हरी खाद ?
दलहनी एवं अदलहनी फसलों को हरी अवस्था में मृदा में जीवांश पदार्थ एवं पोषक तत्वों की मात्रा बढानें के उद्देश्य से खेत में जुताई कर दबाने की प्रक्रिया को हरी खाद कहते है। यह एक प्रकार का जैविक खाद है जो कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढाकर मृदा की भौतिक-रासायनिक स्थिति को सुधारती है तथा विभिन्न पोषक तत्वों की उपलब्धता को बढ़ाती है।
हरी खाद के प्रकारः
1. उसी स्थान पर उगाई जाने वाली हरी खाद की फसलें: - भारत के अधिकतर क्षेत्रों में यह विधि अधिक लोकप्रिय है इसमें जिस खेत में हरी खाद का उपयोग करना है उसी खेत में फसल को उगाकर एक निश्चित समय पश्चात् पाटा चलाकर मिट्टी पलटने वाले हल से जोतकर मिट्टी में सडऩे को छोड़ दिया जाता है। वर्तमान समय में पाटा चलाने व हल से पलटाई करने के बजाय रोटावेटर का उपयोग करने से खड़ी फसल को मिट्टी में मिला देने से हरे पदार्थ का विघटन शीघ्र व आसानी से हो जाता है। इस विधी में हरी खाद के लिए दलहनी या अदलहनी फसल की बुवाई की जाती है। फसल उन्ही क्षेत्रों में उगाई जाती है जहाँ सिंचाई की पर्याप्त सुविधा हो । हरी खाद हेतु शीघ्र बढ़ने वाली फसलें जैसे ढैंचा, ग्वार, मूँग, उड़द, सनई एवं लोबिया आदि की बुवाई कर पुष्पावस्था में खेत में दबा देते है।
2. अपने स्थान से दूर उगाई जाने वाली हरी खाद की फसलें:- यह विधि उन क्षेत्रों के लिये प्रभावकारी हैं जहां वार्षिक वर्षा कम होती हैं। यह विधि भारत में अधिक प्रचलित नहीं है, परन्तु दक्षिण भारत में हरी खाद की फसल अन्य खेत में उगाई जाती है, और उसे उचित समय पर काटकर जिस खेत में हरी खाद देना रहता है उसमें जोत कर मिला दिया जाता है। इस विधि में जंगलों, खेत की मेडो, बेकार भूमियों और अन्य स्थानों पर पडे़ पौधों, झाड़ियों की पत्तियों, टहनियों आदि को इकट्ठा करके वांछित खेत में मिला दिया जाता है। पत्तिया दलहनी एवं अदलहनी दोनों प्रकार के पौधों की हो सकती है। उदाहरण- सुबबूल, सदाबहार, अमलताष, सफेद आंक आदि।
हरी खाद बनाने के लिये अनुकूल फसलें:-
सामान्यतः ढेंचा, लबिया, उडद, मूँग, ग्वार, बरसीम एंव सनई इत्यादि फसलें हरी खाद बनाने के लिये अनुकूल है।दलहनी या फलीदार फसले हरी खाद के लिए अधिक उपयुक्त रहती है, क्योकि इन फसलों की जड़ों की ग्रन्थियों में उपस्थित राईजोबियम जीवाणु वायुमण्डल सें नाईट्रोजन ग्रहण करते है। साथ ही इन फसलों की वानस्पतिक बढ़वार भी अच्छी होती है तथा इनकी जड़े भी गहरी जाती हैं व फसल अवधि भी कम होती है। इनमें से सनई एंव ढैंचा अधिक उपयुक्त पाई गयी है।
1. सनई- इसका प्रयोग उत्तरी भारत में किया जाता है। यह हरी खाद के लिये एक उत्तम फसल है। अधिक वर्षा वाले स्थानों पर इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता। यह बुवाई के 6 से 8 सप्ताह बाद मिट्टी में पलट दी जाती है। इसकी बीज दर 80-100 कि.ग्रा./ हेक्टेयर है।
2. ढैंचा- हरी खाद की फसलों में सनई के बाद ढैंचा का प्रमुख स्थान है। इसे सभी प्रकार की मिट्टी जैसे ऊसर तथा लवणीय मिट्टी, जहाँ जल-निकास अच्छा न हों, कम या अधिक वर्षा में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। यह अधिकतर सभी फसलों के लिये एक उपयुक्त खाद है। इसकी बीज दर 80-100 कि.ग्रा./ हेक्टेयर है।
3. उर्द एवं मूँग- इनकी हरी खाद प्रायः प्रत्येक स्थान पर जहाँ पानी न भरता हो आसानी से तैयार की जा सकती है। बोने के 50 या 60 दिन बाद फलियाँ तोड़ने के साथ ही फसल को खेत मे जोत देते हैं। इनकी बीज दर 20-22 कि.ग्रा./ हेक्टेयर है।
4. ग्वार- भारत के उत्तरी और पश्चिमी भागों में जहाँ वर्षा कम होती है, ग्वार का प्रयोग हरी खाद के लिये किया जाता है। इससे लगभग 65 किग्रा नाईट्रोजन प्रति हेक्टेयर प्राप्त हो जाती है।
हरी खाद के लाभ:
1. मृदा की संरचना में सुधार होता है।
2. मृदा की जैविक क्रियाशीलता बढती है। फलस्वरूप मृदा में उपलब्ध पोषक तत्वों की पौधों के लिए उपलब्धता बढती है।
3. दलहनी फसलें वातावरणीय नत्रजन का स्थिरीकरण कर मृदा में नत्रजन की आपूर्ति करती है।
4. मृदा की जलधारण क्षमता बढती है।
5. हरी खाद मिट्टी में गहरी जड़ें विकसित करती है जिसके कारण मिट्टी में वायु संचार अच्छा हो जाता है।
6. हरी खाद पोषक तत्वों को विक्षालन व अन्तः स्त्राव से बचाता है ।
7. वर्षा जल का अन्तः स्त्राव को बढाकर जल प्रवाह व मृदा क्षरण को कम करता है।
8. हरी खाद की फसल को मृदा में दबाने से अनेक कार्बनिक अम्ल पैदा होते हैं, जो मृदा की क्षारीयता कम करने में सहायक होती है तथा हरी खाद की फसलें वाष्पीकरण को रोककर भी क्षारीय मृदा के निर्माण को रोकती है।
9. हरी खाद वाली फसल शीघ्र वृद्धि करके खरपतवार के पौधों को प्रकाश नहीं पहुंचने देती है तथा मृदा से जल व पौषक तत्वों को ग्रहण करके शीघ्र ही खरपतवारों को नष्ट करने में सहायता करती है।
10. हरी खाद के उपयोग से रासायनिक उर्वरकों के बढ़ते हुए खर्च को कम किया जा सकता है।
11. हरी खाद की फसलों के विच्छेदन से कार्बन डाई ऑक्साइड बनती है जो पानी से मिलकर कार्बनिक अम्ल बनाती है एवं मृदा में फॉस्फोरस, कॉपर, मैंगनीज लोहा तथा जस्ता आदि की प्राप्यता को बढ़ाती है।
12. लीचिंग के द्वारा विलेय पोषक तत्व मृदा की निचली परतों में नहीं जा पाते।
हरी खाद के लाभ
हरी खाद के लिए उपयुक्त फसलों की विषेषतायें:हरी खाद की फसलों में निम्नलिखित विषेषताओं/बातों का ध्यान रखना चाहियेः
1. फसल शीघ्र वृद्धि करने वाली होनी चाहिये।
2. फसल की जल, खाद व उर्वरक की मांग कम से कम होनी चाहिये।
3. रोग एवं कीट प्रतिरोधक फसल होनी चाहिये।
4. फसल कम उपजाऊ भूमि में भी सफलतापूर्वक उगाई जा सके।
5. फसल में पत्तियों एवं शाखाओं की संख्या अधिक होनी चाहिये, जिससे प्रति हैक्टयेर अधिक से अधिक मात्रा में कार्बनिक पदार्थ मिलाए जा सके।
6. सूखा, बाढ एवं विभिन्न तापमान सहने वाली फसल होनी चाहिये।
7. फसल के वानस्पतिक भाग मुलायम हो ताकि आसानी से सड़ सके ।
8. चयन की गई दलहनी फ़सल में अधिकतम वायुमंडलीय नाइट्रोजन स्थिरीकरण करने की क्षमता होनी चाहिये जिससे जमीन को अधिक से अधिक नत्रजन उपलब्ध हो सके।
9. फसल गहरी जड़ प्रणाली की हो, जिससे मिट्टी भुरभुरी बन सके और मृदा में गहराई से पोषक तत्व ग्रहण कर पौधे में संचित कर सके।
हरी खाद की बुवाई का समय एवं बीज दर
हमारे देश में विभिन्न प्रकार की जलवायु पाई जाती है। अतः सभी क्षेत्रों के लिए हरी खाद की फसलों की बुवाई का एक समय निर्धारित नहीं किया जा सकता है। बुवाई वर्षा प्रारंभ हाने के तुरंत बाद कर देना चाहिये तथा यदि सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो तो हरी खाद की फसलों की बुवाई वर्षा शुरू होने के पूर्व ही कर देना चाहिये। अर्थात मार्च-अपै्रैल माह में फसल की कटाई के बाद जमीन की सिंचाई करके खेत में वाछिंत बीज छिंटक लें। हरी खाद के लिये फसल की बुवाई करते समय खेत मंे पर्याप्त नमी होनी चाहिये।हरी खाद वाली फसलोंकी बुवाई हेतु बीज की मात्रा बीज के आकार पर निर्भर करती है। हरी खाद के लिए बोई जाने वाली मुख्य फसलों की बीज दर सारणी 1 में अंकित है।
सारणी 1: हरी खाद की फसलें, बुवाई का समय, बीज दर एवं उत्पादन क्षमता
हरी खाद प्रयोग करने की तकनीकी
हरी खाद की फसल से उचित लाभ प्राप्त करने के लिए इसके प्रयोग करने की विधि का ज्ञान आवश्यक हैं। हरी खाद को खेतो में दबाने और अगली फसल की बुवाई के मध्य इतना अन्तर होना चाहिए की हरी खाद से प्राप्त पोषक तत्व अगली फसल को प्राप्त हो सके ।
मुख्य फसल की बुआई:हरी खाद को मिट्टी में दबाने के दो सप्ताह के अन्दर मुख्य फसल की बुआई करनी चाहिए ताकि आवश्यक पोषक तत्व पौधों को प्राप्त हो सके।
हरी खाद के प्रयोग में कठिनाईयां:
1. पानी की कमी - हरी खाद की फसल की वृद्धि एवं सड़ने के लिये काफी अधिक मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है, जिसकी कमी में हरी खाद ठीक प्रकार से सड़ नहीं पाती।
2. हरी खाद की बुवाई का समय, पलटाई का समय, आगामी फसल की बुवाई का समय, सड़ने के लिये पौधों को किस गहराई में मृदा में दबाया जाये आदि बातों का विस्तृत ज्ञान किसानों को नहीं है।
3. चारे की अधिक मांग होने के कारण किसान खरीफ की फसल में हरी खाद की फसल की बजाय चारे या दाने की फसल बोते है।
4. इसकी पलटाई के लिये किसानों पर अच्छी किस्म के यन्त्रों की भी कमी है।
5. किसानों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है।
6. कभी-कभी बीज भी समय पर उपलब्ध नहीं हो पाता है।
हरी खाद प्रयोग करने में सावधानियाँ:
1. अधिकांशतः हरी खाद को खेत में बुआई के छः से आठ सप्ताह के अंदर एवं पुष्पन अवस्था प्रारम्भ हो जाये तथा उसकी टहनिया कोमल, रसीली, बिना रेशेदार और उस पर अधिकतम पत्तियां हो तब पलटना चाहिय, जिससे फसल का सड़ाव आसानी से हो सके।
2. दलहनी फसलों की जड़ों में जब ग्रन्थियों का निर्माण पूर्णरूपेण हो जाता है, वैसी दशा में फसल को पलट कर मिट्टी में मिला देना चाहिये।
3. हरी खाद की फलीदार फसल को सुपर फाॅस्फेट के साथ खेत में जोतना अधिक लाभकारी सिद्ध हुआ है। फॉस्फोरस की उपस्थिति में जड़ों पर ग्रन्थियों में उपस्थित सूक्ष्म जीव अधिक नाइट्रोजन का स्थिरीकरण करते हैं।
4. कम वर्षा वाले क्षेत्रों में सिंचाई का साधन उपलब्ध होने पर ही हरी खाद का प्रयोग करना चाहिये।
5. हरी खाद को एक विशेष अवस्था पर पलटाई करने से भूमि को अधिकतम नाईट्रोजन व जीवांश पदार्थ मिलते है।
6. सनई की फसल को 50-55 दिन बाद, ढैंचा की फसल को 40-45 दिन बाद एवं बरसीम की फसल को 3-4 कटाई के बाद पलटना लाभप्रद रहता है।
7. उड़द तथा मूँग में फलियों की तुड़ाई के पश्चात् फसलों की जुताई कर मिट्टी में मिलाया जा सकता है। वैसे सामान्यतः 40-50 दिन की अवस्था हो जाने पर मिट्टी पलट हल से भली प्रकार से जुताई कर 15-20 से. मी. की गहराई पर फसल को मिट्टी में मिलाकर खेत को पानी से भर देना चाहिये।
8. प्रमुख फसल की बुवाई के लगभग एक माह पूर्व हरी खाद की फसल को मिट्टी पलटने वाले हल की सहायता से मृदा में दबा देना चाहिये
9. फसल की पलटाई उस समय करनी चाहिये जब फसल में फल आने वाले हों।
10. जुताई करने के बाद यह विशेष ध्यान देने योग्य बात है कि फसल नम मिट्टी की मोटी परतसे भली-भांति ढकी रहे।
11. दबाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि पौधे भली-भांति मिट्टी में दब गये हैं ताकिसड़ाव ठीक प्रकार से हो सके।
12. यदि फसल पलटने के उपरान्त खेत में नमी का अभाव है तो आवश्यकतानुसार खेत कीसिंचाई कर देनी चाहिये।
13. अधिक दिनों की फसल हो जाने पर इनका रेशा कड़ा हो जाने से इनके अपघटन की क्रिया सुचारू रूप से नहीं हो पाती, इसलिए जब रेशा मुलायम हो, उसी अवस्था में फसल की जुताई कर पलटना उचित रहता है।
14. बहुत छोटी अवस्था में मिट्टी पलटना उचित नहीं रहता क्योंकि सारी चीजें गल जाती हैं एवं मिट्टी में इसका कोई अवशेष नहीं बचता।
हरी खाद की फसल के लिए बीज कहाँ से प्राप्त करे ?
किसान भाई कृषि विश्वविद्यालयों,कृषि अनुसंधान, केन्द्रो, कृषि अनुसंधान उपकेन्द्रों एवं कृषि विज्ञान केन्द्रों से तकनीकी सलाह एवं हरी खाद की फसल के लिए उन्नत किस्म के बीज प्राप्त कर सकते है।
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