भारत में मिर्च की खेती लगभग सभी राज्यों में की जाती है। मिर्च का उपयोग प्रत्येक परिवार में सब्जी, मसाले, अचार तथा चटनी आदि के रूप में किया जाता है। मिर्च का औषधि जगत में भी महत्वपूर्ण स्थान है, हैजा होने पर इसका उपयोग हींग और कपूर के साथ मिलाकर किया जाता है। बरसात के मौसम में प्रतिदिन हरी मिर्च के सेवन करने पर हैजा होने की सम्भावनायें बहुत कम हो जाती है। मिर्च के उपयोग से शरीर में रक्त प्रवाह की गति में वृद्धि होती है।
जलवायु: मिर्च की सफल उत्पादन हेतु गर्मतर जलवायु की आवश्यकता होती है। मिर्च के बीज का उचित अंकुरण 15 डिग्री सेण्टीग्रेड मृदा तापमान पर होता है। जबकि पौधों के समुचित विकास हेतु 20-25 डिग्री सेल्सियस तापमान उचित रहता है। मिर्च की खेती 60 से 125 सेमी. औसत वार्षिक वर्षावाले क्षेत्रो में सफलतापूर्वक की जा सकती है।
मृदा: मिर्च की खेती के लिये अच्छे जल निकाश वाली दोमट या बलुई दोमट मृदा जिसमें जीवांश पदार्थ पर्याप्त मात्रा में हो, सर्वोत्तम रहती हैं। मिर्च की खेती क्षारीय मृदा को छोड़कर लगभग सभी प्रकार की भूमि में की जा सकती है। मिर्च के सफल उत्पादन हेतु 6-7 मृदा पी.एच. मान उत्तम रहता है।
फसल सुरक्षा:-
अ. कीट
- हरा तेला (थ्रिप्स):- ये बहुत छोटे-छोटे कीट होते हैं जो पौधे के विभिन्न भागों से रस चूसते हंै, पत्तियों का रस चूसने के कारण पत्तियों पर सफेद - सफेद धारियां पड़ जाती हैं तथा पत्तियां सिकुड़ जाती हैं। इसके साथ ही यह विषाणु रोग फैलाने में भी मदद करता है।
नियंत्रण:- इस कीट की रोकथाम के लिये रोगर 0.2 प्रतिशत (2 मिली प्रति लिटर पानी में ) अथवा मोनोक्रोटोफास 36 एस.एल.की 1 मिली. दवा का एक लिटर पानी में मिलाकर छिड़काव करना चाहिए।
- कटुआ कीट:- इस कीट का प्रकोप छोटे पौधों पर अधिक होता है। यह कीट मिर्च के पौधों को जड़ के पास से जमीन की सतह के करीब से काट देता है।
नियंत्रण:- इस कीट की रोकथाम हेतु खेत में पौधे की रोपाई से पूर्व 20-25 कि.ग्रा. एल्डेक्स 5 प्रतिशत धूल या फ्यूरेडान को मिट्टी में मिला देना चाहिए।
चेंपा (माहूँ या एफिड):- ये छोटे-छोटे हरे-पीले रंग के कीट होते हैं, जो पत्तियों, फूल तथा फलों का रस चूसते हैं। ये कीट पौधों में विशाणुजनित रोग भी फैलाते हैं।
नियंत्रण:- इस कीट की रोकथाम के लिए इमिडाक्लोप्रिड की मिली दवा को प्रति लिटर पानी में मिलाकर फसल पर छिड़काव करना चाहिए।
ब. रोग
- आर्द्रगलन:- यह एक फफूँदी जनित रोग है, जिसमें पीथियम, फाइटोफ्थोरा, फ्यूजेरियम, राइजोक्टोनिया की विभिन्न प्रजातियाँ प्रमुख है। इस रोग का प्रकोप बीजों के अंकुरण के समय होता है। रोग ग्रसित पौधों के तने भूमि की सतह से गलने लगते है और पौधा मर जाता है।
नियंत्रण:-
- बीज को बुवाई से पूर्व 2.5 ग्राम कैप्टान या थाइरम या बीटावैक्स से प्रति कि.ग्रा. बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।
- पौधशाला की भूमि को 15 सेंमी. ऊँचा रखना चाहिए ताकि उचित जल निकास हो सके।
- पौधशाला की भूमि को बीज बोने से पूर्व फफूँदीनाशक दवा जैसे साफ या मैन्कोजेब या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड़ की 2-3 ग्राम दवा प्रति वर्ग मीटर की दर से प्रयोग करना चाहिए।
- रोग लक्षण दिखाई देने पर पौधों पर रिडोमिल नामक दवा का 0.2 प्रतिशत का छिड़काव करना चाहिए।
- बीजों को घना नहीं बोना चाहिए।
श्याम वर्ण या फल विगलन (एन्थे्रक्नोज)
यह रोग को लेटोट्राइकम कैप्सिकी नामक फफूंदी के कारण होता है। इस रोग के कारण विकसित पौधों की शाखाओं का ऊपरी भाग ऊतकक्षमी होकर सूख जाता है। बाद में सूखने की क्रिया नीचे की ओर बढ़ती है। फलों पर यह रोग पकने के समय लगता है। जब फल लाल होने लगते हैं। उन पर छोटे-छोटे काले और गोल धब्बे दिखाई देते हैं। बाद में ये धब्बे आकार में बढ़कर गहरे भूरे रंग के हो जाते हैं। अन्तिम अवस्था में फल काले होकर गिर जाते हैं।
नियंत्रण:-
- स्वस्थ एवं प्रमाणित बीज ही बोना चाहिए।
- बीज बोने से पूर्व बीजों को कार्बेन्डाजिम या सेरेसान की 2.5 ग्राम मात्रा से प्रति कि.ग्रा. बीज को उपचारित करना चाहिए।
- फसल अवशेषों को नष्ट कर देना चाहिए।
- फसल से समय ≤ पर रोगी पौधों का उखाड़कर नष्ट कर देना चाहिए।
- फसल पर फफूंदीनाशक दवा जैसे-डाइथेन एम-45 अथवा ब्लाइटाॅक्स का 0.2 प्रतिशत का घोल बनाकर 15-20 दिन के अन्तर से छिड़काव करना चाहिए।
पर्णकुंचन या पत्ती मरोड़ रोग (लीफ कर्ल)
यह विषाणु जनित रोग है जिसे सफेद मक्खी एक पौधे से दूसरे पौधों में फैलाती है। इस रोग में पत्तियों का सिकुड़कर मुड़ना, हल्का पीला पड़ना, पत्तियों का छोटा रह जाना, पौधों का बौना रह जाना आदि मुख्य लक्षण है। रोगी पौधों पर फल नहीं बनते हैं अथवा बहुत ही छोटे फल बनते हैं।
नियंत्रण:- इस रोग से बचाव के लिये सफेद मक्खी का नियंत्रण करना चाहिए। रोग फैलाने वाली मक्खियों को नष्ट करने के लिये मेटासिस्टाक्स या डायजिनोन दवा के नष्ट करने के लिये 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव 10-15 दिन के अन्तर से करना चाहिए।
- रोग ग्रसित पौधों को उखाड़कर जला देना चाहिए।
- मिर्च की रोगरोगी किस्में जैसे:-पंजाब लाल, पुरी रेड़ पूसा ज्वाला, पूसा सदाबहार आदि को लगाना चाहिए।
खरपतवार नियंत्रण:- मिर्च की फसल में लगभग 2-3 निराई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है। खरपतवारों के नियंत्रण हेतु खरपतवारनाशकों जैसे लासों अथवा टोकई 25 की 2 लिटर मात्रा को 500 -600 लिटर पानी में घोलकर रोपाई के पूर्व छिड़काव करना चाहिए।
उपजः-मिर्च की उपज किस्म, भूमि, जलवायु और फसल के प्रबंध पर निर्भर करती है। आमतौर पर हरी मिर्च की 80-200 क्विंटल तथा सूखी मिर्च की 18-30 क्विंटल प्रति हैैक्टेयर तक उपज प्राप्त हो जाती है तथा मिर्च की संकर किस्मों से हरी मिर्च 250-500 क्विंटल तथा सूखी मिर्च 30-60 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक उपज प्राप्त होती है।
डॉ. महेश सिंह (सहायक प्राध्यापक),
ब्रजकिशोर शर्मा, दशरथ यादव, रामबाबू द्विवेदी
स्कूल ऑफ एग्रीकल्चर आई.टी.एम. विश्वविद्यालय
ग्वालियर म.प्र.।
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