गंगा और इसकी सहायक नदियों में पिछले कई वर्षों के दौरान विदेशी प्रजाति की मछलियों की संख्या के बढ़ जाने से कतला, रोहू और नैन जैसी कई तरह की देसी मछलियों की प्रजाति का अस्तित्व खतरे में आ गया है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अंतर्रास्थलीय मात्यसिकी अनुसंधान के प्रभारी ने बताया कि मछली की विदेशी प्रजाति खासकर की तिलैपिया और थाई मांगुर ने गंगा नदी में पाई जाने वाली प्रमुख देसी मछलियों की प्रजातियों कतला, रोहू, नैन के साथ ही पड़लिन, टेंगरा, मांगुर आदि का अस्तित्व खतरे में डाल दिया है।
स्थानीय मछलियों का अस्तित्व खतरे में
मछली पालन के लिए विदेशों से मछली के बीज लाए जाते हैं और उन्हें गंगा के आसपास के तालाबों में पाला जाता है. मछली पालन के लिए यह मछलियां अच्छी मानी जाती हैं, क्योंकि यह बहुत तेजी से बढ़ती हैं, लेकिन तालाबों से यह मछलियां गंगा नदी में पहुंच जाती हैं और स्थानीय मछलियों का चारा हड़पने के साथ ही छोटी मछलियों को भी अपना शिकार बना लेती हैं। संस्थान के प्रभारी ने बताया कि उत्तराखंड के हरिद्वार में यह मछलियां सस्ते दामों पर मिल जाती हैं इसीलिए लोग विदेशी प्रजातियों की मछली को आसानी से नदी में छोड़ देते हैं। इन मछलियों को पानी में छोड़ना शुभ माना जाता है लेकिन ऐसा होने से स्थानीय मछलियों का अस्तित्व खतरे में आ गया है।
विदेशी मछली आकार में है बड़ी
संस्थान का कहना है कि पानी में विदेशी मछलियों की संख्या काफी तेजी से बढ़ती जा रही है जो कि आकार में स्थानीय मछलियों से बड़ी होती है। मत्स्यपालन के लिए यह काफी उपयोगी साबित हो सकती है। मछलियां कारखानों से आने वाले विषैले पदार्थों को भी खा जाती है जिससे की इन मछलियों का सेवन करना काफी हानिकारक हो सकता है। इससे स्वास्थय पर सीधा नुकसान पड़ेगा।
देसी मछली है मंहगी
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के केंद्रीय अंतर्स्थलीय मात्स्यिकी अनुसंधान संस्थान, (सिफरी, इलाहाबाद केंद्र) के प्रभारी डॉ. श्रीवास्तव ने बताया कि जानकारी के अभाव में गरीब लोग थाई मांगुर और तिलैपिया मछली का भोजन करते हैं, क्योंकि बहुतायत में पैदा होने के चलते इन मछलियों का बाजार भाव कम है. वहीं दूसरी ओर, देसी मछलियों की तादाद कम होने से इनके भाव ऊंचे हैं जिससे ये सभ्रांत परिवारों की थाली की शोभा बढ़ा रही हैं.
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