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गाजर उत्पादन का यह है बेहतरीन तरीका

गाजर का रबी की जड़ वाली सब्जियों में प्रमुख स्थान हैं. इसको संपूर्ण भारत में उगाया जाता है.इसके साथ ही उत्तरप्रदेश, असम, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, पंजाब और हरियाणा प्रमुख गाजर उत्पादक राज्य होते है. गाजर को सलाद के रूप में सब्जी और सलाद के रूप में उपयोग किया जाता है. इसके अतिरिक्त आचार व कांजी के रूप में उपयोग किया जाता है. इसके रस में कैरोटिन प्रचुर मात्रा में पाया जाता है और कभी-कभी मक्खन व अन्य खाद्य वस्तुओं को रंग प्रदान करने के लिए भी उपयोग किया जाता है. गाजर की पत्तियों को पशुओं और मुर्गियों को भी खिलाया जाता है क्योंकि उनमें प्रोटीन खनिज लवण और विटामिन्स प्रचुर मात्रा में पाई जाती है.

किशन

गाजर का रबी की जड़ वाली सब्जियों में प्रमुख स्थान हैं. इसको संपूर्ण भारत में उगाया जाता है.इसके साथ ही  उत्तरप्रदेश, असम, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, पंजाब और हरियाणा प्रमुख गाजर उत्पादक राज्य होते है. गाजर को सलाद के रूप में सब्जी और सलाद के रूप में उपयोग किया जाता है. इसके अतिरिक्त आचार व कांजी के रूप में उपयोग किया जाता है. इसके रस में कैरोटिन प्रचुर मात्रा में पाया जाता है और कभी-कभी मक्खन व अन्य खाद्य वस्तुओं को रंग प्रदान करने के लिए भी उपयोग किया जाता है. गाजर की पत्तियों को पशुओं और मुर्गियों को भी खिलाया जाता है क्योंकि उनमें प्रोटीन खनिज लवण और विटामिन्स प्रचुर मात्रा में पाई जाती है.

इतिहास- गाजर का जन्म स्थल के बारे में वैज्ञानिकों में काफी तरह के मतभेद मौजूद है. कुछ वैज्ञानिक इसका जन्म स्थल मध्यम एशिया में पंजाब और कश्मीर की पहाड़ियों पर बताते है. जबकि कुछ इसका दूसरा केंद्र एशिया, यूरोप, उत्तरी अफ्रीका बताते है. पंजाब में तो इसकी जंगली जातियां भी पाई जाती है. कश्मीर के कुछ क्षेत्रों में इसकी जंगली जातियों को वहां के निवासी अभी भी उपयोग में लाते हुए देखे जा सकते है.

पोषक मूल्य

गाजर से सब्जी, चार, कांजी, हलुआ, सलाद आदि बनाये जाते है. वही काली गाजर से कांजी को बनाया जाता है, यह काफी अच्छी और पाचक होती है. नारंगी गाजर में कैरोटीन, थियामीन और रीबोफ्लेविन अधिक मात्रा में पाई जाती है.यह दो किस्मों में पाई जाती है. पहला एशियन और दूसरा यूरोपीय. एशियन की किस्में वार्षिक होती है, उनके आकार और रंग में लंबी विभिन्नता पाई जाती है. यूरोपीय किस्मों की गाजर आकार में छोटी, चिकनी और समान रूप से मोटी होती है.इनका रंग नारंगी होता हैं.

उष्ण कटिबंधीय किस्में

इन किस्मों में अधिक उपज मिलती है. इन गाजरों से हलवा, आचार, मुरब्बा, सब्जी, सलाद आदि का निर्माण किया जाता है. इनको सुखाकर बेमौसम में भी आनंद लिया जा सकता हैं प्रंमुख एशियन किस्में-

पूसा केसर- यह एक संकर किस्म है, जो कि 90 -110 दिन में तैयार हो जाती है. इसको अगस्त से अक्टूबर के प्रांरभ तक बोया जाता है. इसकी जड़े गहरे लाल रंग की होती है. इनका मध्य भाग छोटा और हल्के लाल रंग का होता है.

पूरा मेघाली - यह किस्म 110 से 120 दिन बाद तैयार हो जाती है. इसकी जड़े नारंगी रंग की और गुदा भी नारंगी रंग का ही होता है. अगस्त और सितंबर में बोने के लिए उपयुक्त किस्म है. यह 250से 300 क्विंटल तक उपज देती है.

पूरा असिस्ता - यह काली गाजर की उष्ण कटिबंधीय गाजर होती है यह देश की प्रथम काली प्रथम किस्म है. इस किस्म से चेक और पूसा किस्म की तुलना में ज्यादा उपज मिल जाती है. इसकी जड़े पूरी तरह काली और लंबी होती है. इसकी उत्तर भारत के सीजन के शुरूआत सितबंर के माह में बोआई करना उचित होता है. इसके पत्ते बैंगनी रंग के ही होते है. साथ ही इसे किस्म उत्पादन क्षमता 25 टन प्रति हेक्टेयर होती है. इसमें पोषक तत्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते है.

भूमि का निर्माण

गाजर के सफल उत्पादन हेतु उचित जल निकासी वाली गहरी, ढीली दोमट भूमि सर्वोत्तम मानी गई है. भूमि का पीएच मान 6.5 ही होना चाहिए. अधिक क्षारीय और अम्लीय मृदा इसके सफल उत्पादन में बाधक मानी जाती है.

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खेत की तैयारी

गाजर की अधिक उपज को लेने हेतु खेत की तैयारी का विशिष्ट महत्व है. प्रथम जुताई मिट्टी क पलटने वाले हल से करें. इसके बाद 2 से 3 बार कल्टीवेट या हैरो से जुताई करें. प्रत्येक जुताई के उपरांत पाटा अवश्य लगाएं.

खाद एवं उर्वरक

गाजर को आमतौर पर मध्यम से कम उर्वर हल्की मृदाओं पर उगाया जाता है. अतः खाद एवं उर्वरकों से अच्छा प्रभाव पड़ता है. मृदा जांच के उपरांत इनका उपयोग करना काफी लाभप्रद रहता है. चड्ढा के मुताबिक एक सामान्य फसल को 23 टन गोबर की खाद के अतिरिक्त 50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 50 किलोग्राम फॉस्फेरस और 45 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टैयर देनी चाहिए.

बोआई

बीज की मात्रा प्रति हेक्टेयर 5 से 6 किलोग्राम बीज की आवश्यकता है. बीजोपचार के लिए फफूंदीजनित रोगों से बचाने हेतु बीज को बोने से पूर्व थायरम और वाबिस्टिन 3 ग्राम दवा किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए. साथ ही इसको जल्दी अकुंरित हेतु 12 से 24 घंटे पानी में बोना चाहिए.

बोने का समय

गाजर की बोआई का समय इस बात पर निर्भर करता है कि उसकी कौन सी किस्म उगानी है. उत्तरी भारत के मौदानी क्षेत्रों में एशियाई किस्मों को अगस्त के अंत से अक्टूबर के प्रथम सप्ताह तक ही बोते है. जबकि यूरोपीय किस्में नवंबर में बोआई की जाती है. पर्वचीय क्षेत्रों में इसकी बोआई मार्च से जून तक होती है. दक्षिण और मध्य भारत में इसकी बोआई जनवरी-फरवरी, जून-जुलाई और अक्टूबर मार्च में की जाती है.

बोने की विधि

गाजर की बोआई समतल क्यारियों या डौलियों पर की जाती है, इसकी ज्यादा उपज के लिए इसे डौलियों पर उगाना चाहिए. पंक्तियों और पौधे के बीच की दूरी 4.5 गुणा और 7.5 सेमी रखना चाहिए. बीज को 1.5 सेमी से अधिक गहरा नहीं होना चाहिए. गाजर की निरंतर फसल लेने के लिए 10 से 15 दिन के अंतराल पर बोआई करनी चाहिए. गाजर का अकुंरण बेहद धीमीगति से होता है.

English Summary: This is how improved cultivation of carrots, will be bumper profits Published on: 16 September 2019, 06:31 PM IST

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