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ऐसे करें पिप्पली की वैज्ञानिक खेती, कमाए लाखों का मुनाफा

पिप्पली एक औषधीय पौधा होने के साथ यह एक महत्वपूर्ण मसाला भी है तथा इसे औद्योगिक उत्पादों के निर्माण में भी प्रयुक्त किया जा सकता है. इस पौधे को उचित बढ़त के लिए सहारे की जरुरत होती है. इसकी खेती पर एनएमपीबी द्वारा 30 फीसद अनुदान दिया जा रहा है.चलिए हम आपको पिप्पली की खेती के बारे में विस्तार से बताते हैं.

कंचन मौर्य
Scientific cultivation of Pippali

पिप्पली एक औषधीय पौधा होने के साथ यह एक महत्वपूर्ण मसाला भी है तथा इसे औद्योगिक उत्पादों के निर्माण में भी प्रयुक्त किया जा सकता है. इस पौधे को उचित बढ़त के लिए सहारे की जरुरत होती है. इसकी खेती पर एनएमपीबी द्वारा 30 फीसद अनुदान दिया जा रहा है.चलिए हम आपको पिप्पली की खेती के बारे में विस्तार से बताते हैं.

जलवायु और मिट्टी

इस पौधे को गर्म, नमी वाली जलवायु की जरुरत होती है. बेहतर बढ़त के लिए इसे आंशिक छाया की जरुरत होती है. यह मिश्रित किस्म की मिट्टी में अच्छी तरह फलती-फूलती है. उच्च जैविक पदार्थयुक्त, जल धारण तथा अच्छी निकासी वाली उपजाऊ वाली दोमट मिट्टी में इसकी खेती सफलतापूर्वक की जाती है.

उगाने की साम्रगी

वर्षा ऋतु की शुरुवात में तनों/शिराओं की कटाई के माध्यम से इसे उगाया जाता है.

हालांकि 3-5 आंतरिक गांठो वाले एक साल पुराने तनों की कटिंग के माध्यम से इसे आसानी से उगाया जा सकता है.

कटिंग को सामान्य मिट्टी से भरे हुए पालीथिन बैगों में लगाया जा सकता है. नर्सरी को मार्च और अप्रैल के दौरान तैयार किया जाता है.

नर्सरी विधि

Pippali farming

पौध उगाना

तनों/शिराओं को मानसून की वर्षा आरंभ होने के तुरंत बाद रोपा जा सकता है.

जड़ों पर मीली बग के हमले से बचाने के लिए नर्सरी उगाने का सही समय मार्च और अप्रैल के दौरान होता, मिट्टी के मिश्रण के साथ 10 प्रतिशत डीपी मिलाया जाना है.

पौधों को रोपना

3.0 X 2.0 मी. की क्यारियां तैयार की जाती है और 60 X60 सेमी की दूरी पर गड्ढे खोदे जाते हैं तथा गोबर की खाद 100 ग्राम/गड्ढे की दर से मिट्टी के साथ मिलाई जाती है.

दो जड़ों वाली कटिंग या जड़ों वाले तनों को हर गड्ढे में रोपा जाता है.

खेत में रोपण

भूमि की तैयारी और खाद का प्रयोग

2-3 बार जुताई और उसके बाद निराई और गुड़ाई की जरुरत होती है.

पिप्पली को काफी खाद की जरुरत होती है. कम उपजाऊ भूमि में पौधे की बढ़त बहुत कमजोर होती है.

तैयारी करते समय लगभग 20 टन/हेक्टेयर उर्वरक या अन्य जैविक खाद डाली जाती है.

बाद के वर्षो में भी मानसून के आने से पहले उर्वरक या अन्य जैविक खाद डालनी होती है.

Agriculture

संवर्धन विधि

जरुरत पड़ने पर निराई आवश्यक होती है.

आमतौर पर दो से तीन निराई काफी है.

नारियल, सुहाबुल इत्यादि के साथ इसकी खेती की जा सकती है.

सिंचाई विधियां

गर्मी के महीनों में सिंचाई अत्यंत आवश्यक है.

भूमि की जल धारण क्षमता और मौसम के अनुसार एक सप्ताह में एक या दो बार सिंचाई की जानी चाहिए.

सिंचाई की गई फसल में गर्मी के महीनों में भी फल लगने जारी रहते है.

कीट और बीमारियां

फाइटोप्थोरा पत्ती, तने की सड़न और एंथ्रेक्नोस पिप्पली की महत्वपूर्ण बीमारियां है.

15 दिनों के अंतराल पर 0.5 प्रतिशत बोर्डेक्स मिश्रण के छिड़काव और मासिक अंतराल पर 1.0 प्रतिशत  बोर्डेक्स मिश्रण से भूमि की उपचार इन बीमारियों से होने वाले मुकसान को कम करती है.

0.25 प्रतिशत नीम के बीजों की गिरी या नीम आधारित किसी अन्य कीटनाशक का छिड़काव कोमल पत्तियों और कलियों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों पर प्रभावी तौर पर नियंत्रण करता है.

फसल प्रबंधन

फसल पकना और कटाई

इसकी लताएं रोपण के छह महीने के बाद फूलने लगती है.

इसके फलों को पकने में दो महीने का समय लगता है.

पूरी तरह परिपक्व फल, पकने से पहले तोड़े जाते हैं, जब ये पके और काले हरे रंग के हो जाते हैं.

अधिक परिपक्व और पके हुए फलों से इपज की गुणवत्ता घटती है और ये पूरी तरह सूखने के बाद आसानी से नहीं टूटते.

पहले साल में सूखे फलों की उपज 100-150 किलो/हेक्टेयर होती है और तीसरे , चौथे साल में 0.75-1.0 टन/हेक्टेयर हो जाती है.

उसके बाद इपज घटने लगती है और धीरे-धीरे पांचवें साल के बाद अनार्थिक हो जाती है.

आमतौर पर 4 से 5 वर्षीय फसल के तौर पर इसकी खेती की जैती है.

Pippali farming

फसल पश्चात प्रबंधन

कटी हुई बालियों को धूप में 4 से 5 दिन तक सुखाया जाता है जब तब वे पूरी तरह न सूख जायें.

सुखाई गई बालियों को नमी रहित पात्रों में भंडारण किया जाता है.

इन्हें 3.0 से 5.0 सेमी लंबे छोटे टुकड़ों में काटा और सुखाया जाता है.

औसतन प्रति हेक्टेयर में लगभग 500 किलो जड़ें प्राप्त होती है.

छंटाई

तने और जड़ों को सुखाए हुए मोटे भागों में पिप्पलामूल कहा जाता है.

पिप्पलामूल की तीन श्रेणियां होती है.

पैदावार

पहले साल में सूखे फलों की उपज लगभग 100-150 किलो/हेक्टेयर होती है और तीसरे से चौथे साल में 0.75-1.0 टन/हेक्टेयर हो जाती है.

पहले साल के दौरान सूखी बालियों की उपज लगभग 0.5 टन/हेक्टेयर होती है.

तीसरे साल में यह बढ़कर 1.2 टन/हेक्टेयर तक हो जाती है. तीसरे साल के बाद लताएं कम उत्पादक हो जाती है और फिर से रोपा जाना चाहिए.

जड़ों की औसत उपज 0.5 टन/हेक्टेयर है.

English Summary: Scientific cultivation of Pippali, earning millions of profits Published on: 05 December 2019, 02:15 PM IST

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