समय के साथ खेती-किसानी का नक्शा भी बदल रहा है.ज्यादा जनसंख्या और कम जमीन की वजह से खेती की पैदावार घट रही है.ऐसे में कृषिवानिकी एक बेहतर विकल्प साबित हो सकता है.जलवायु परिवर्तन जैसे वर्षा की मात्रा व वर्षा के दिन भी कम होते जा रहे हैं.
ईंधन की कमी और जलाऊ लकड़ी का मूल्य अधिक होने के कारण प्रतिवर्ष लगभग 500 करोड़ मेट्रिक टन गोबर को ऊपलों/ कंडों के रूप में जलाया जाता है और अगर इस गोबर को खाद के रूप में काम में लाया जाये तो मृदा में उपयोगी जीवांश पदार्थ की वृद्धि होगी.भारत में कुल 21%भाग में वन है जबकि लक्ष्य 33%है.देश में वनों का फैलाव इसलिए भी आवश्यक है ताकि बढ़ती हुई मानव एवं पशु संख्या को ईंधन, इमारती लकड़ी, लघु वन उपज, चारा, खाद्यान्न, फल, दूध, सब्जी इत्यादि की आपूर्ति की जा सके.ऐसी परिस्थितियों में कृषिवानिकी ही एक मात्र पद्धति है, जो उपयुक्त समस्याओं का समाधान करने में सक्षम एवं कारगार साबित हो सकती हैं. कृषिवानिकी से वर्षभर आमदनी प्राप्त की जा सकती है और खेत के पास पड़ी बंजर, ऊसर एवं बीहड़ भूमि में कृषि वानिकी को अपनाने से खाद्यान्न, भूमि व जल प्रबंधन, सब्जियाँ, चारा, खाद, गोंद, आदि अनेक वस्तुएँ निरन्तर एवं सतत् गति से उपलब्ध होती रहती हैं.
कृषिवानिकीःकृषि वानिकी भूमि प्रबन्धन की एक ऐसी पद्धित है जिसके अन्तर्गत एक ही क्षेत्र पर कृषि फसलें एवं बहुउद्देश्यीय वृक्षों व झाड़ियों के उत्पादन के साथ-साथ पशुपालन व्यवसाय को समन्वित कृषि प्रणाली से संरक्षित किया जाता है एवं इससे भूमि की उपजाऊ शक्तिमें वृद्धि की जा सकती है.
कृषिवानिकी के लाभ (Benefits of Agroforestry)
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कृषिवानिकी का उपयोग कर खाद्यान्न को बढ़ाया जा सकता है.
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बहुउद्देश्यीयवृक्षों से ईंधन, चारा व फलियाँ, इमारती लकड़ी, रेशा,गोंद, खाद एवं अन्य लाभदायक लघु वन उपज प्राप्त होती है.
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कृषि वानिकी के द्वारा भूमि कटाव की रोकथाम की जा सकती है और भू एवं जल संरक्षण कर मृदा की उर्वरा शक्ति को बढ़ाया जा सकता हैं.
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कृषि और पशुपालन आधारित कुटीर एवं मध्यम उद्योगों को बढ़ावा मिलता है.
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इस पद्धति के द्वारा ईंधन की आपूर्ति करके 500 करोड़ मेट्रिक टन गोबर का उपयोग जैविक खाद के रूप में किया जा सकता है.
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वर्षभर गांवों में कार्य उपलब्धता होने के कारण युवकों का शहर पलायन रोका जा सकता है.
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सूखा पड़ने पर भी बहुउद्देश्यीयवृक्षों से कुछ न कुछ उपज प्राप्त हो जाती है, जिससे जोखिम कम को जाता है.
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कृषिवानिकी पद्धति से मृदा-तापमान खासकर ग्रीष्म ऋतु में बढ़ने से रोका जा सकता है,जिससे मृदा के अन्दर पाये जाने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं को नष्ट होने से बचाया जा सकता है, जो हमारी फसलों का उत्पादन बढ़ाने में सहायक होते हैं.
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बेकार पड़ी बंजर, ऊसर, बीहड़ इत्यादि अनुपयोगी भूमि पर घास, बहुउद्देश्यीयवृक्ष लगाकर इन्हें उपयोग में लाया जा सकता है और उनका सुधार किया जा सकता है.
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कृषिवानिकी के अन्तर्गत वृक्ष आर्थिक लाभ का साधन बन ग्रामीण जनता की आय, रहन-सहन और खान-पान में सुधार करती है.
कृषिवानिकी की प्रमुखत पद्धतियाँ (Major systems of Agroforestry)
कृषि वानिकी पद्धतियों में निम्न आती है जो इस प्रकार है-
कृषि वन चरागाह पद्धती (Agri-silviPastoral Systems)
इस प्रणाली में, पेड़ों के बीच फसलों के साथ कृषि फसलों का आदान-प्रदान किया जाता है. इस प्रणाली के तहत कृषि फसलों को दो साल तक संरक्षित सिंचाई की स्थिति में और चार साल तक वर्षा आधारित खेती के तहत उगाया जा सकता है. उक्त अवधि तक फ़सलों को लाभदायक रूप से उगाया जा सकता है जिसके आगे अनाज की फ़सलों को उगाया नहीं जाता है.हालांकि, चारे की फसलें, छाया से प्यार करने वाली फसलें और उथली जड़ वाली फसलें आर्थिक रूप से उगाई जा सकती हैं. मोनोकल्चर की तुलना में इस प्रणाली में पेड़ की फसलों का प्रदर्शन बेहतर है.
कृषि-उद्यानिकी पद्धति (Agri Horti Pastoral Systems)
आर्थिक कृषि एवं पर्यावरण कृषि से यह सबसे महत्त्वपूर्ण एवं लाभकारी पद्धति है. इस पद्धति के अन्तर्गत शुष्क भूमि में बेर, अनार, अमरूद, किन्नू, कागजी नींबू, मौसमी को 6-6 मीटर की दूरी पर एवं आम, आंवला, जामुन, बेल को 8-10 मीटर की दूरी पर लगाकर उनके बीच में बैंगन, टमाटर, भिण्डी, फूलगोभी, तोरई, लौकी, करेला आदि सब्जियाँ और धनिया, मिर्च, अदरक, हल्दी, जीरा, सौंफ, अजवाइन आदि मसालों कीखेतीआसानी से ली जा सकती हैं. इससे किसानों को फलों के साथ-साथ अन्य फसलों से भी उत्पादन मिल जाता है, जिससे किसानों की आर्थिकस्थिति में सुधार होता है. और साथ ही फल वृक्षों की काट-छांट से जलाऊ लकड़ी और पत्तियों द्वारा पशुओं हेतु चारा भी उपलब्ध हो जाता है.
कृषि-वन पद्धति (AgroSilvi Pastoral Systems)
इस पद्धति में बहुउद्देशीय वृक्ष जैसे शीशम,सागवान, नीम, देशी बबूल, यूकेलिप्टस के साथ-साथ खाली स्थान में खरीफ मौसम में संकर ग्वार, संकर बाजरा, अरहर, मूंग,उड़द, लोबिया तथा रबी मौसम में गेहूँ, चना, सरसों और अलसी की खेती की जा सकती है. इस पद्धति के अपनाने से इमारती लकड़ी, जलाऊ लकड़ी, खाद्यान्न, दालें व तिलहनों की प्राप्ति होती है.पशुओं को चारा भी उपलब्ध होता है.
उद्यान-चारा पद्धति (Horti Pastoral Systems)
यह पद्धति उन स्थानों के लिये अत्यन्त उपयोगी जहाँ सिंचाई के साधन उपलब्ध न हों और श्रमिकों की समस्या भी हो. इस पद्धति में भूमि में कठोर प्रवृत्ति के वृक्ष जैसे: बेर, बेल, अमरूद, जामुन,शरीफा,आंवला इत्यादि उगाकर वृक्षों के बीच में घास जैसे: अंजन घास, हाथी घासके साथ-साथ दलहनी चारे जैसे सहजन, स्आइलो, क्लाइटोरिया इत्यादि लगाते हैं. इस पद्धति से फल एवं घास भी प्राप्त होती है और साथ ही भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है. इसके अतिरिक्त भूमि एवं जल संरक्षण भी होता है. भूमि में कार्बनिक पदाथों की वृद्धि भी होती है.
वन-चरागाह पद्धति(Silvipastoral Systems)
इस पद्धति में बहुउद्देशीयवृक्षजैसे: खेजड़ी, सिरस, सहजन, अरडू, नीम, बकान इत्यादि की पंक्तियों के बीच में घास जैसे अंजन घास, मार्बल घास और दलहनी चारा फसलें जैसे:स्आइलो और क्लाइटोरिया को उगाते हैं. इस पद्धति में पथरीली बंजर व अनुपयागी भूमि से ईंधन, चारा, इमारती लकड़ी प्राप्त होती है. इस पद्धति के अन्य लाभ है जैसे भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि, भूमि एवं जल संरक्षण, बंजर भूमि का सुधार तथा गर्मियों में पशुओं को हरा चारा उपलब्ध होता है. जिससे दुग्ध उत्पादन में वृद्धि एवं गुणवत्ता में बढ़ोत्तरी होती है.
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