प्याज भारत की एक महत्वपूर्ण फसल है, जिसे भारतीय उपमहाद्वीप के दोनों फसल चक्रों अर्थात रबी एवं खरीफ़ ऋतुओं में उगाया जाता है. भारत में निर्यात किये जाने वाले फसलों में प्याज का एक महत्वपूर्ण स्थान है और सभी भारतीय घरों में यह वर्ष भर बहुतायत में उपयोग किया जाता है.
हालांकि, प्याज की फसल में अनेक प्रकार के रोग एवं कीट उत्पादन एवं व्यापार को प्रभावित करते हैं. इसके अलावा, नियमित एवं लगातार मांग में बने रहने की वजह से प्याज की खेती भारतीय किसानों के लिए एक फायदे का सौदा है. वहीं किसान भाई प्याज के विभिन्न रोगों एवं कीटों की पहचान करके निम्न प्रकार से उसका प्रबंधन कर सकते हैं-
प्याज के सामान्य रोग
मृदुल आसिता – प्याज की खेती में इस रोग के सर्वप्रथम लक्षण पत्तियों एवं पुष्पवृत्त पर दिखाई देते हैं. अधिक नमी एवं कम तापमान प्याज के इस रोग के सहायक तत्त्व हैं, जिसमें प्रारंभ में हल्का सफ़ेद पीलापन लिए 8 से 10 सेंटीमीटर लम्बे धब्बे दिखाई देते हैं, जिसका आकार धीरे-धीरे बढ़ता है तथा संक्रमित स्थान से पौधे की पत्तियां एवं पुष्पवृत्त टूटने लगते हैं और पौधे की बढ़वार रूक जाती है. इस रोग की रोकथाम के लिए केराथेन नामक कवकनाशी को 1 ग्राम प्रति लीटर के हिसाब से पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए. रोग की पुनरावृत्ति होने पर 15 दिनों बाद एक बार पुनः छिड़काव करना चाहिए.
बैंगनी धब्बा
प्याज के पौधों में बैंगनी धब्बा एक सामान्य बीमारी है, जिसमें पौधों की पत्तियों एवं पुष्पवृंत पर बैगनी केंद्र वाले सफ़ेद रंग के लम्बे धब्बे दिखाई देने लगते हैं. ये धब्बे धीरे-धीरे आकर में बढ़ते जाते हैं तथा अंत में धब्बे का बैगनी भाग काले रंग का हो जाता है. पत्तियां पीली पड़कर सूख जाती है तथा पुष्पवृंत संक्रमित स्थान से टूटने लगते हैं. इस बीमारी का प्रकोप खरीफ़ चक्र की फसलों में ज्यादा दिखाई पड़ता है. रोग के लक्षण दिखाई देने पर मैंकोज़ेब (3 ग्राम प्रति लीटर) या कार्बेन्डाजिम (2 ग्राम प्रति लीटर) को पानी में घोलकर 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए.
श्याम वर्ण
खरीफ ऋतु में प्याज के इस रोग में प्रारंभिक अवस्था में पौधों कि पत्तियों पर भूमि के निकट राख के समान धब्बे दिखाई देते हैं. पौधों में इस रोग के लक्षण दिखाई देने पर मैंकोज़ेब (3 ग्राम प्रति लीटर) या कार्बेन्डाजिम (2 ग्राम प्रति लीटर) को पानी में घोलकर 12 से 15 दिन के अंतराल पर छिड़काव करना चाहिए. रोपाई के पूर्व पौधों को कार्बेन्डाजिम (2 ग्राम प्रति लीटर) में डुबाकर लगाने से पौधों में रोग का प्रकोप कम होता है. अधिक नमी एवं मध्यम तापमान इस रोग के प्रसार में सहायक होते हैं. अतः इस रोग से बचाव के लिए खेतों में जल निकास का उचित प्रबंध होना चाहिए और नर्सरी में बीजों को अधिक घना नहीं बोना चाहिए.
आधार विगलन
सितम्बर – अक्टूबर के महीने में प्याज के पौधों में अधिक नमी एवं तापमान की स्थिति में इस रोग का अधिक प्रकोप देखने को मिलता है. पत्तियों का पीला पड़ना एवं पौधों की कम वृद्धि इस रोग के प्रारंभिक लक्षण है. तत्पश्चात अग्रेतर चरणों में पत्तियां ऊपर से सूखकर गिरने लगती है. पौधों की जड़ों में सड़न होने लगती है तथा पौधे आसानी से उखड़ जाते हैं. अधिक प्रकोप होने पर प्याज के कंद भी जड़ वाले भाग से सड़ने लगते हैं. इस रोग से बचाव के लिए ग्रीष्म ऋतु में गहरी जुताई करके खेतों को खुला छोड़ देना चाहिए. यदि संभव हो, तो पारदर्शी पॉलिथीन के चादर से भूमि का सौर उपचार करना चाहिए. इस बीमारी में रोग जनक भूमिगत होते हैं. अतः उसी खेत में बार-बार प्याज नहीं उगाना चाहिए. इसके लिए फसल चक्र अपनाना चाहिए. बीजों को बोने से पहले बाविस्टिन या थायरम (2 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज) से उपचारित करना चाहिए.
प्याज की फसल में कीट प्रबंधन
थ्रिप्स – थ्रिप्स प्याज की फसल में लगने वाले बहुत ही छोटे आकार का कीट है, जिसकी लम्बाई 1 मि.मी तक होती है. इनका रंग हल्का पीले से भूरे रंग का तथा छोटे-छोटे गहरे चकते युक्त होता हैं. ये प्याज की फसल को प्रमुख रूप से हानि पहुँचाने वाले कीट हैं जो पौधों की पत्तियों का रस चूस लेते हैं, जिसके फलस्वरूप पत्तियों पर असंख्य छोटे-छोटे सफ़ेद रंग के निशान बन जाते हैं.
कीट के अधिक प्रकोप होने पर पत्तियों के सिरे सूखने लगते हैं तथा अंत में पत्तियां मुड़कर झुक जाती हैं. इस कीट के नियंत्रण के लिए सर्वप्रथम रोपाई से पहले पौधों की जड़ों को 30 मिनट तक इमिडाक्लोप्रिड का 0.5 मिली प्रति लीटर के हिसाब से पानी में घोल बनाकर उपचारित करना चाहिए. फसल में कीट नियंत्रण हेतु 12 से 15 दिन के अंतराल पर डायमेथोएट (1 मिली प्रति लीटर) या सायपरमेथ्रिन 1 मिली प्रति लीटर के घोल का छिडकाव करना चाहिए. कीटनाशक के सही प्रभाव हेतु चिपकने वाले पदार्थ (स्टिकर) जैसे सैंडोविट या टीपॉल (2 से 03 ग्राम प्रति लीटर) का उपयोग करना चाहिए.
कटवा
प्याज के पौधों का यह एक नुकसानदेह कीट है, जिसकी सूड़ियाँ एवं इल्लियाँ पौधों के जमीन के अन्दर वाले भाग को कुतर कर नुकसान पहुंचाती हैं. ये इल्लियाँ 30-35 मिमी लम्बी तथा रख के रंग की होती है. इनके प्रकोप से पौधें पीले पड़ कर आसानी से उखड़ जाते हैं. फसल चक्र अपनाकर इस कीट कि रोकथाम की जा सकती है. अतिरिक्त सावधानी के लिए आलू के बाद प्याज कि फसल नहीं लगानी चाहिए. रोपाई के पूर्व थिमेट 10जी 4 किग्रा प्रति एकड़ या कार्बोपयूरॉन 3 जी 10 कि.ग्रा प्रति एकड़ कि दर से खेत में डालना चाहिए.
किसान भाई इस प्रकार खुद से ही सीमित उपायों के जरिए खरीफ ऋतु में प्याज में होने वाली रोग एवं हानिकारक कीटों से होने वाले नुकसान से फसलों को बचा सकते हैं.
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