मसूर का दलहनी फसलों में महत्वपूर्ण स्थान है। इसकी खेती रबी ऋतु में की जाती है। भारत में मसूर की खेती प्रमुखतः मध्य प्रदेश उत्तर प्रदेश के बुन्देलखण्ड क्षेत्र बिहार पं बंगाल व राजस्थान में होती है। मसूर में विभिन्न प्रकार के लगने वाले रोगों एवं कीट से प्रतिवर्ष उपज में काफी कमी आ जाती है। सही समय पर रोग प्रबधंन करके मसूर के उत्पादन में काफी बढ़ोत्तरी की जा सकती है। अतः मसूर की फसल में लगने वाले रोग एवं कीट के नियंत्रण की विस्तृत जानकारी इस लेख द्वारा दी जा रही है।
म्लानि (उकठा रोग)
यह रोग फ्यूजेरिम आक्सीस्पोरम फा स्पि लेन्टिस नामक कवक द्वारा उत्पन्न होता है। यह मृदा जनित रोग है। इस रोग का संक्रमण प्रायः उन सभी क्षेत्रों में पाया जाता है, जहां पर मसूर की खेती होती है। इस रोग के कारण फसल की उपज में 50 प्रतिशत की हानि आ जाती है।
लक्षण
रोग के लक्षण बुवाई से लेकर पौधे की परिपक्व अवस्था तक देखे जा सकते हैं। रोगी पौधे का ऊपरी भाग झुक जाता है। पत्तियां मुरझाने लगती हैं व अंत में पूरा पौधा सूख जाता है। जड़ें बाहर से स्वस्थ दिखाई पड़ती है, पाश्र्व जड़ों की वृद्धि में कमी आ जाती है, रोगी पौधों में बीज देर से बनते हैं तथा वे सिकुड़े हुए होते हैं।
म्लानि रोग का नियंत्रणः
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रोगी पौधों को एकत्र करके नष्ट कर दें।
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खेत में धान व ज्वार के बाद मसूर उगाएं।
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सदैव स्वस्थ एवं प्रमाणित बीजों को बुवाई के लिए प्रयोग करें।
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रोग रोधी किस्में जैसे पूसा-1 पूसा- 7 एलपी- 6 जवाहर मसूर--3 को उगाएं।
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बुवाई से पहले बीज को थीरम या बाविस्टीन (1:1 के अनुपात में) की 2 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें।
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ट्राइकोडर्मा 4 किग्रा पाउडर को 25 क्विंटल गोबर की खाद में मिलाकर प्रति हैक्टेयर की दर से खेत में बुवाई से पहले डालें।
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मृदा को ट्राइकोडर्मा पाउडर से उपचारित करके (4 ग्राम प्रति किलोग्राम) लगाएं।
ग्रीवा विगलन रोग
यह रोग स्क्लेरोशियम रोल्फसाई नामक कवक द्वारा उत्पन्न होता है तथा यह बीज व मृदा जनित रोग है। इस रोग से मसूर की फसल को लगभग 50 प्रतिशत हानि होती है। अधिक मृदा आर्द्रता वाले क्षेत्रों में इस रोग का प्रकोप ज्यादा होता है।
लक्षण
इस रोग से पौधे शुरू से लेकर परिपक्व अवस्था तक ग्रसित हो सकते हैं। यह रोग प्रमुखतः नवोदभिद पौधों की ग्रीवा क्षेत्र में आक्रमण करता है। इस रोग के लक्षण जड़ों तना व पत्तियों पर भी दिखाई देते हैं। रोगी पौधों के ग्रीवा पर जलासिक्त धब्बे बन जाते हैं तथा बाद में ये भूरे रंग में परिवर्तित हो जाते हैं। पौधे की रोगी ग्रीवा सफेद कवकजाल व सरसों के दानों के समान कवक पिण्ड दिखाई पड़ते हैं। अधिक संक्रमण के कारण रोगी पौधा ग्रीवा से टूट जाता है।
ग्रीवा विगलन रोग का नियंत्रण
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मृदा में पड़े हुए कवक पिण्डों को नष्ट करने के लिए गर्मी के दिनों में खेत की तीन-चार जुताई करें।
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रोग की उग्रता कम करने के लिए बुवाई करते समय मृदा की आर्द्रता एवं तापक्रम कम होना चाहिए।
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पोटाश व फास्फोरस युक्त उर्वरकों के प्रयोग करने से रोग की उग्रता में कमी आती है। अतः इन उर्वरकों का प्रयोग करें।
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बीज को थीरम या बाविस्टीन (1:1 के अनुपात में) की 2 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें।
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ट्राइकोडर्मा पाउडर की 4 किग्रा मात्रा 25 कुन्तल गोबर की खाद में मिलाकर बुवाई से पहले खेत में डालें।
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रोग रोधी किस्में जैसे-पूसा 3 पंत 234 व जे एल 80 को उगाएं।
तना सड़न रोग
यह रोग स्क्लेरोटिनिया स्क्लेरोसियोरम नामक कवक द्वारा उत्पन्न होता है। यह मृदा एवं बीज जनित रोग है। इस रोग का प्रकोप नम वातावरण वाले क्षेत्रों में ज्यादा होता है। इस रोग के प्रकोप से फसल की पैदावार में 25-30 प्रतिशत की कमी आ जाती है।
तना सड़न रोग के लक्षण
रोगी पौधे पीले पड़ जाते हैं। रोग के लक्षण तनों पर जलसिक्त विक्षत स्थल के रूप में दिखाई पड़ते हैं। कवक की रूई जैसी वृद्वि तने पर दिखाई देती है तथा काले से भूरे रंग के कवकपिण्ड बन जाते हैं। बाद में इस रोग का संक्रमण फलियों व दानों पर भी हो जाता है और पूरा पौधा सूख जाता है।
तना सड़न रोग का नियंत्रणः
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सदैव प्रमाणित व स्वस्थ बीजों का प्रयोग करें।
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तीन से चार वर्षो का फसल चक्र अपनायें।
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बीज को थीरम या बाविस्टीन (1:1 के अनुपात में) की 2 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें।
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खड़ी फसल पर बाविस्टीन 0.05 प्रतिशत या आइप्रोडिआन 0.2 प्रतिशत दवा का छिड़काव करें।
जड़ सड़न रोग
यह रोग राइजोक्टोनिया सोलेनाई व राइजोक्टोनिया बटाटीकोला नामक कवक द्वारा उत्पन्न होता है। यह मृदा जनित रोग है। मसूर की फसल में आर्द्र व शुष्क सड़न रोग लगते हैं। इनका संक्रमण क्रमशः नम व शुष्क वातावरण में ज्यादा होता है।
लक्षण
आर्द्र जड़ सड़न में रोगी जड़ें भूरे रंग की जलयुक्त हो जाती हैं। पूरा पौधा पीला हो जाता है तथा सूख जाता है। शुष्क जड़ सड़न में रोगी पौधे की पत्तियां पीली हो जाती हैं तथा जड़ों की बाहरी भित्ति फटी हुई दिखती है। जड़ पर काली कवक की वृद्धि दिखाई देती है।
नियंत्रण
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तीन - चार वर्षो का फसल चक्र अपनायें।
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बीज को थीरम या बाविस्टीन (1:1 के अनुपात में) की 2 ग्राम दवा दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें।
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ट्राइकोडर्मा जैव कवकनाशी पाउडर के 4 किग्रा को 25 क्विंटल कार्बनिक में मिलाकर कर प्रति हैक्टेयर की दर से बुवाई से पहले खेत में डालें।
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कार्बनिक खादों का प्रयोग करें।
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ट्राइकोडर्मा के द्वारा बीजोपचार से भी रोग का प्रबन्धन किया जा सकता है।
मृदुरोमिल आसिता रोग
यह रोग पेरोनोस्पोरा लेन्टिस नामक कवक द्वारा उत्पन्न होता है तथा यह मृदा जनित रोग है। यह रोग मसूर उगाने वाले सभी राज्यों में लगता है तथा इस रोग से पौधों की बाद की अवस्था में ज्यादा हानि होती है।
लक्षण
इस रोग के लक्षण सबसे पहले पत्तियों की ऊपरी सतह पर हरे से पीले धब्बो के रूप में दिखाई देते हैं। आर्द्र मौसम में निचली सतह पर कवक की मृदुरोमिल वृद्धि दिखाई पड़ती है। बाद में पत्तियों पर बने धब्बे गहरे रंग के हो जाते हैं और रोगी पौधा छोटा रह जाता है।
नियंत्रण
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रोगी पौधों के अवशेषों को जला दें।
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रोगरोधी किस्में जैसे जे।-441, जे।-809 को उगाएं।
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बीज का उपचार उपरोक्त रोगों में वर्णित दवा से करें।
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खड़ी फसल पर रीडोमिल एम.जेड-78 के 0.25 प्रतिशत का छिड़काव करें।
चूर्णिल आसिता
यह रोग इसीसाइफी पोलीगोनी नामक कवक द्वारा उत्पन्न होता है। यह मृदा एवं बीज जनित रोग है।
लक्षण
इस रोग के लक्षण फसल की किसी भी अवस्था में देखे जा सकते हैं लेकिन अधिक उग्रता पौधों की पुष्पावस्था में देखी जाती है। इस रोग में छोटे-छोटे सफेद धब्बे पत्तियों तनों एवं फलियों पर बनते हैं। अधिक उग्रता होने पर पूरा पौधा सूख जाता है।
नियंत्रण
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रोगी पौधों के अवशेषों को नष्ट कर दें।
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रोगरोधी किस्में उगाएं जैसे पन्त एल -693, जे पी एल -970, शेरी व जवाहर मसूर 3।
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फसल पर 25-30 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से गंधक चूर्ण का बुरकाव करें।
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सल्फेक्स 0.2 प्रतिशत या ट्राइडोमार्क 0.1 प्रतिशत का छिड़काव करें।
प्रमुख कीट एवं नियंत्रण
माहूँ कीट-
लक्षणः इस कीट के शिशु एवं प्रौढ़ पत्तियों तनो एवं फलियों का रस चूसकर कमजोर कर देते हैं, माहू मधुस्त्राव करते हैं जिस पर काली फफूद उग आती हैं जिससे प्रकाश संश्लेषण में बाधा उत्पन्न होती है।
रोकथाम
माहूँ कीट के नियंत्रण के लिए डाईमथोएट 30 प्रतिशत ई० सी० की 1 लीटर लगभग 500 से 600 लीटर पानी में मिलकर प्रति हेक्टेयर की दर से छिरकाव करें।
फली बेधक कीट
लक्षण
इस कीट की सूंडीयां फलियों में छेद बनाकर अन्दर घुस जाती हैं। तथा अन्दर अन्दर ही दानों को खाती रहती हैं। तीव्र प्रकोप होने की दशा में फलियां खोखली हो जाती हैं तथा उत्पादन में गिरावट आ जाती है।
रोकथाम
इस कीट के नियंत्रण के लिए बैसिलस थूरिनजिएन्सिस (बी0 टी0) की क्स्त्रकी प्रजाति 1.0 किग्रा का बुरकाव अथवा 500 से 600 लीटर पानी के घोलकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिए।
लेखक-
अरविन्द कुमार, ऋषि नाथ पाण्डेय
(शोध छात्र पादप रोग विज्ञान विभाग बाँदा कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय बाँदा उत्तर प्रदेश)
9569526310
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