गर्मियों के दिनों में टिंडे की खेती बहुत की जाती है. इसकी खेती पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और आन्ध्र प्रदेश में भी होती है. इसके कच्चे फल को सब्जी के तौर पर बनाया जाता है. टिंडे में प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, कैरोटीन, विटामिन के गुण पाए जाते हैं. इस फल में तमाम औषधीय गुण होते हैं. इसकी खेती गर्म और बारिश, दोनों मौसमों में आसानी से की जा सकती है. बीज जमाव और पौधों के विकास के लिए 25-30 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त माना जाता है. इसकी खेती से किसान अच्छा मुनाफ़ा कमा सकते हैं, लेकिन कई बार फसल रोग और कीटों की चपेट में आ जाती है. इससे उपज को भारी नुकसान पहुंचता है.
टिंडे की फसल में लगने वाले प्रमुख रोग और कीट
तेला और चेपा
टिंडे की फसल में इस कीट के प्रकोप से पत्ते पीले पड़कर मुरझा जाते हैं, क्योंकि यह कीट पत्तों का सारा रस चूस लेते हैं. इसके अलावा पत्ते मुड़ भी जाते हैं. इससे पत्तों का आकार मुड़कर कप की तरह लगने लगता है.
रोकथाम: अगर फसल पर यह कीट हमला करता है, तो थाइमैथोक्सम को लगभग 15 लीटर पानी में घोल लें और फसल पर छिड़क दें.
पत्तों पर सफेद धब्बे
इस रोग में पत्तों की ऊपरी सतह पर सफेद रंग के धब्बे दिखाई देते हैं. बता दें कि इस रोग का सबसे ज्यादा प्रभाव पौधों के तने पर पड़ता है. इसके प्रकोप से पत्ते और फल पक नहीं पाते हैं, और समये से पहले गिरने लगते हैं.
रोकथाम: फसल को इस रोग से बचाने के लिए लगभग 20 ग्राम सलफर को लगभग 9 लीटर पानी में घोल लें और फिर इसको 10 दिन के अंतराल पर 2 से 3 बार छिड़कते रहें. इससे फसल का इस रोग से बचाव हो पाएगा.
एंथ्राक्नोस
यह रोग पत्तों पर ज्यादातर हमला करता है. इसमें पत्ते झुलसे से दिखाई देते हैं.
रोकथाम: इसकी रोकथाम के लिए बीजों को उपचारित करके बोना चाहिए. इसके लिए बीजों को कार्बेनडाज़िम से उपचारित करना चाहिए. इसके अलावा खेत में मैनकोजेब या कार्बेनडाज़िम को प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़क देना चाहिए.
बीजों को उपचारित करके बोएं
किसान ध्यान दें कि टिंडे की फसल की बुवाई से पहले सभी बीजों को अच्छी तरह उपचारित कर लेना चाहिए. सबसे पहले बीजों को 12 से 24 घंटे के लिए पानी में भिगोकर रख दें, ताकि बीजों के अंकुरन में अच्छी तरह विकास हो पाए. इसके अलावा बीजों को फंगस से बचाने के लिए आवश्यकतानुसार कार्बेनडाज़िम या थीरम से उपचारित कर लें. ध्यान दें कि बीजों का रासायनिक उपचार करने के बाद ट्राइकोडरमा विराइड या स्यूडोमोनास फलूरोसैंस से उपचारित करें. इससे आगे चलकर फसल में रोग और कीट लगने का खतरा कम हो जाता है.
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