हमारे देश में कृषकों द्वारा टमाटर की खेती घरेलू एवं व्यवसायिक स्तर पर की जा रही है. देश में टमाटर के उत्पादन का क्षेत्रफल लगभग 0.91 मिलियन हेक्टेयर है जो कि सब्ज़ी उत्पादन के कुल क्षेत्रफल का 9.5 प्रतिशत है. उपयोग के दृष्टिकोण से आलूवर्गीय सब्ज़ियों में आलू के बाद टमाटर का स्थान आता है. भारत का सब्ज़ी उत्पादन में विश्व में दूसरा स्थान है. भारत के मुख्य सब्ज़ी उत्पादक प्रदेशों के अन्तर्गत कर्नाटक, गुजरात, छत्तीसगढ़, झारखंड, पश्चिम बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, ओडिशा एवं उत्तर प्रदेश आते हैं.
टमाटर की फ़सल कई प्रकार के रोगों एवं कीटों से ग्रसित होती है. नये-नये रोगों एवं कीटों का प्रकोप बदलती हुई जलवायुवीय परिस्थितियों में होता रहता है. देश के फ़सल उन्नयन कार्यक्रम के अन्तर्गत उन्नत प्रजातियों के विकास हेतु वैज्ञानिकों को राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पौध आनुवंशिक संसाधनों का विनिमय करना पड़ता है. इस विनिमय के अन्तर्गत क्वैरण्टाइन के नियमों का पालन किया जाता है जिससे नये-नये रोग जनक एवं कीट एक जगह से दूसरी जगह पर न फैल सकें. यदि इन नये कीटों का फैलाव एक प्रदेश में है तो दूसरे प्रदेश में न फैले इसके लिये घरेलू स्तर पर क्वैरेन्टाइन (डोमेस्टिक क्वैरेन्टाइन ) को बनाने की आवश्यकता है. इस संदर्भ में यहां पर देश में टमाटर पर्णसुंरगक कीट के प्रति सतर्कता एवं जागरूकता के बारे में महत्ता को अभिलेखित किया गया है. नये नाशीजीव कीट दक्षिणी अमेरिकी टमाटर के पर्णसुरंगक (टूटा अब्सोलुटा) का प्रकोप उत्तर प्रदेश के भा.कृ.अनु.प.- भारतीय सब्ज़ी अनुसंधान संस्थान के अनुसंधान प्रक्षेत्र, वाराणसी एवं मिर्ज़ापुर ज़िले में किसानों की टमाटर की फ़सल में पहली बार जनवरी, 2017 में देखा गया. इसके पहले इन क्षेत्रों में इस नये कीट का प्रकोप टमाटर की फ़सल में नहीं देखा गया था. भारत में इस कीट का प्रकोप पहली बार वर्ष 2014 में कर्नाटक एवं महाराष्ट्र में अभिलेखित किया गया था. बाद में इस कीट का प्रसार, वितरण एवं प्रकोप अन्य प्रदेशों जैसे आन्ध्रप्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु, नई दिल्ली एवं हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों के अलावा तत्काल में पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी देखा गया है. विश्व में यह कीट टमाटर के उत्पादन में सबसे बड़ी समस्या के रूप में उभर रहा है. इस कीट से फ़सल की उपज व फलों की गुणवत्ता में 50 से 100 प्रतिशत तक की क्षति होती है. इस कीट की मुख्य पोषक फ़सलों में आलूवर्गीय सब्जियां (टमाटर, आलू, बैंगन) एवं दलहनी सब्ज़ियों में भारतीय सेम है. इस परिदृश्य में इस नये कीट के प्रभावी नियंत्रण हेतु इसके क्षेत्र विस्तार, प्रकोप एवं इससे होने वाली फ़सल क्षति के स्तर का निर्धारण टमाटर एवं अन्य सब्ज़ी फ़सलों में करना अति आवश्यक है.
क्षति की प्रकृति एवं लक्षणः
इस कीट की सूंड़ियां (लार्वा) फ़सल में क्षति पहुंचाती हैं. पत्तियों की मध्यभित्ति (मीसोफ़िल) ऊतकों में इस कीट के प्रकोप से सुरंग बनने के कारण धब्बे पड़ जाते हैं जो बाद में सड़ जाते हैं. इस कीट के प्रकोप से टमाटर के फलों में क्षति के लक्षण पिन-होल के रूप में दिखाई देते हैं जो बाद में द्वितीयक रोगजनकों एवं सूक्ष्मजीवों के संक्रमण के कारण सड़ जाते हैं
इस कीट के प्रकोप व विस्तार को रोकने हेतु अनुशंसित प्रबंधन की नीतियां:
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पौधशाला को कीटरोधी जाल (नेट) से ढककर रखना चाहिये, जिससे कीट मुक्त स्वस्थ पौध प्राप्त हो सके
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रोपण हेतु कीट मुक्त पौध का प्रयोग करना चाहिये
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नियमित रूप से फसल केनिरीक्षण (स्काउटिंग) का कार्य करना चाहिये
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खेत में इस नाशी जीव कीट के फेरोमोनट्रैप्स (40ट्रैप्सप्रति हेक्टेयर) की स्थापना करनाचाहिये
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फसल चक्रण में आलूवर्गीय सब्ज़ियों को नहीं अपनाना चाहिये
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कीट से प्रकोपित पौधों एवं फलों को खेत से हटाकर नष्ट कर देना चाहिये
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इस कीट के नियंत्रण हेतु अनुशंसित कीटनाशकों जैसे-क्लोरनट्रानिलिप्रोल 20एस.सी. (रैनाक्सीपायर) का 0.35 मिली.प्रति ली. या सायनट्रानिलिप्रोल 10 ओ.डी. (सायजापायर) का 1.8 मिली.प्रति ली. या इण्डोक्साकार्ब 14 एस.सी. का 1 मिली.प्रति ली. या नुवालुरान 1 ई.सी. का 1.5 मिली.प्रति ली. या लैम्डा सायलोथ्रिन 2.5 एस.सी. का 0.6 मिली.प्रति ली. या डायमेथोएट 30 ई.सी. का 2 मिली.प्रति ली. या क्वीनालफास 25 ई.सी. का 2 मिली.प्रति ली. का 10 दिन के अन्तराल पर पर्णीय छिड़काव करना चाहिये.
इस कीट का प्रकोप कई प्रकार की सब्ज़ीवर्गीय फ़सलों एवं विभिन्न प्रकार की कृषि जलवायुवीय परिस्थितियों में होता है अतः इसके प्रकोप के प्रति सतर्कता एवं जागरूकता ज़रूरी है. वैज्ञानिकों, विषय वस्तु विशेषज्ञों, कृषि विज्ञान केन्द्रों के कार्यक्रम समन्वयकों, राज्य स्तर के कृषि विभाग के अधिकारियों एवं अन्य सहभागियों के लिए इस नये कीट के विस्तार, प्रकोप एवं इससे होने वाली फ़सल की क्षति के प्रबंधन की अति आवश्यकता है.
(आत्मानंद त्रिपाठी, एम. एच. कोदंडाराम, शिवम कुमार सिंह एवं कुलदीप श्रीवास्तव
भा.कृ.अनु.प.-भारतीय सब्ज़ी अनुसंधान संस्थान, वाराणसी)
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