पुराने जमाने से ही पेड़ों का लगावा हमारी सभ्यता की प्रगति के साथ रहा है और “कृषि वानिकी पद्धति” कृषि विकास को ध्यान रखते हुए एक अत्यन्त ही पुरानी प्रक्रिया रही है। बस हुआ यूं कि पहले जो मिली जुली प्रणाली चल रही थी वह अलग-अलग टुकड़ो में बंटकर बागवानी, खेती वानिकी और पशुपालन आदि के रूप में एक दूसरे से दूर होती गई और बिखर गई। अब वक्त का तकाजा है कि अलग-अलग इन भू-व्यवस्थाओं को कृषि वानिकी के अर्न्तगत समेटा जाए ताकि बहुउद्देशीय वृक्ष भी उसी जमीन पर उगाए जाएं जहां खेती की फसलें या/और चारे की फलें लेते हैं। ऐसी प्रणाली में खाद्यान्न/पशुपालन हेतु चारे की फसलें और वृक्ष या तो क्रम से या एक ही साथ एक ही भूमि में उपजायी जाती है। इससे प्रति इकाई क्षेत्र से अधिकतम उत्पादन मिलता है। जरूरत है तो केवल वृक्ष एवं फसलों के सही चुनाव की, जिससे स्थान विशेष को मृदा एवं जलवायु के लिए अनुकूल हो। साथ ही साथ वृक्षों एवं फसलों का उचित समय में सही प्रबन्धन अवश्य हो ताकि वृक्ष एवं फसलों का प्रकाश, नमी तथा पोषक–तत्वों के लिए प्रतिस्पर्धा न्यूनतम हो। ऐसी पद्धाति से मृदा की उत्पादन क्षमता में हास नहीं होता है बल्कि मृदा–उर्वरता के स्तर में संतोषजनक सुधार होता है। निम्नलिखित तथ्य कृषि वानिकी में विशेषज्ञों द्वारा किये गये अनुसंधान के पश्चात मृदा-सुधार को लेकर उभकर सामने आये हैं -
पेड़ों से पत्तियों, फलियों, फलों, कलियों, फूलों, छालों पतली और कोमल टहनियों आदि के गिरते रहने से मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा में वृद्धि होती है और इससे मिट्टी के एक निश्चित आयतन में पोषक तत्वों की धारण-क्षमता बढ़ जाती है।
ऐसी विधि में मृदा-सतह पर जैवांश की मात्रा अधिक होने से हल्की गठनवाली मिट्टी जैसे बलुआही मिट्टी की जलधारण क्षमता बढ़ जाती है तथा दूसरी और भारी गठनवाली मिट्टी जैसे चिकनी मिट्टी की रिसाव क्षमता बढ़ जाती है। इस प्रकार मिट्टी की भौतिक दशा में संतोषजनक सुधार होता है।
ऐसी पद्धति में मिट्टी में पहले से मौजूद पोषक–तत्वों का तथा बाहर से मिलाए गए खाद के रूप में पोषक तत्वों का चक्रण शुद्ध खेती (वृक्ष रहित) की अपेक्षा काफी क्षमता पूर्वक होता है। इस प्रकार कृषि वानिकी के विभिन्न अवयव, पोषक तत्वों का उपभोग दक्षता पूर्वक करते हैं।
वायुमण्डल में लगभग 80 प्रतिशत नाइट्रोजन विद्यमान है। दलहनी कूल के बहुत से बहुउद्धेशीय वृक्ष जड़ों तथा रायजोवियम अथवा फ्रेन्किया सूक्ष्म जीवाणुओं के साहचर्य से वायुमण्डलीय नाईट्रोजन का यौगिकीकरण कर सकते हैं। अभी तक जानकारी में 200 से अधिक वृक्षों की प्रजातियां ऐसी हैं जो वायुमण्डलीय नाईट्रोजन का स्थिरिकरण करती हैं। वृक्षों की बहुत सी दूसरी प्रजातियां जड़ क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से रहने वाले वैक्टीरीया जैसे: एजोटोवेक्टर , क्लोस्ट्रोडियम आदि द्वारा नाइट्रोजन यौगिकीकरण करने में मदद करती है। दलहनी कूल के अलावा कुछ ऐसी भी वृक्ष हैं जो नाइट्रोजन स्थिरक हैं जैसे झाउ (केजुआरीना) की 17-18 प्रजातियों में नोड्यूल्स की उपस्थिति देखी गई है जिसमें फ्रेन्कीया-एक्टीनोमाइसीटीज के साहचर्य से वायुमण्डलीय नाइट्रोजन का यौगिकीकरण होता है। इस प्रकार प्राकृतिक रूप से वायुमण्डलीय नेत्रजन वृक्षों की मदद से मिट्टी में मिलता रहता है। कुछ बहुउद्देशीय वृक्षों द्वारा नाइट्रोजन यौगिकीकरण की मात्रा को सारणी-1 में दर्शाया गया है।
नेत्रजन-स्थिरक वृक्षों की पत्तियों में आवश्यक पोषक तत्वों की मात्रा अन्य वृक्षों की अपेक्षा अधिक होती है। इसे सारणी-2 में दिखाया गया है। इन पत्तियों का कार्बन : नाइट्रोजन अनुपात तथा लिगनीन की मात्रा अपेक्षाकृत कम होने से पत्तियाँ बहुत जल्द ही सड़ती-गलती है। परिणामतः मिट्टी की उर्वरा शक्ति में वृद्धि होती है।
कुछ वृक्षों जैसे झाऊ, पॉपुलर, लीची आदि के जड़ों में कवकों के साहचर्य की सम्भावनाएँ देखी गई है जो आसानी से नहीं उपलब्ध होने वाले पोषक तत्वों जैसे : फॉस्फोरस, जस्ता तथा ताम्बा को भी प्राप्य स्थिति में ला देता है।
कृषि वानिकी में वृक्षों की जड़ें मृदा की गहरी सतहों से भी पोषक –तत्वों का शोषण करते हैं इसलिए निक्षालन (लीचींग) क्रिया द्वारा पोषक तत्वों की हानि भी कम होती है।
कृषि वानिकी के वृक्ष के तने वर्षा–जल के बहाव में रूकावट डालकर मिट्टी–कटान को रोकते हैं तथा इसकी लम्बी, गहरी एवं फैली हुई जड़ें एवं गिरी हुई पत्तियां वर्षा-जल को स्पंज की भांति सोखकर मृदा में नमी की स्थिति बनाये रखने में सक्षम सिद्ध हुए हैं।
मृदा के विभिन्न सतहों में फैली हुई पुरानी एवं पतली जड़ों के क्षय होने से नीचे की ओर रास्ते बनते हैं। जड़ों द्वारा निर्मित्त इन्हीं रास्तों अर्थात कोशिका नालियों से जल एवं हवा का प्रभावकारी संचरण होता रहता है और यह जड़ों के श्वसन एवं पौधे की वृद्धि के लिए आवश्यक है।
कुछ वृक्षों के जड़ों से एक प्रकार का रासायनिक जिससे आगे द्रव निकलता है जो मिट्टी की क्षारीयता दूर करने में जाती है। मदद पहुंचाता है। अवमृदा क्षेत्र में फैली हुई पतली एवं पुरानी जड़ों के सड़ने–गलने से भी कार्बनिक अम्ल का निर्माण होता है जो मिट्टी की क्षारीयता को दूर करता है।
अवमृदा क्षेत्र में फैली हुई वृक्ष की जड़ें मृदा के गहड़े तहों में दबी पड़ी कैल्सियम आयन को पम्प के तरह खींचकर पत्तियों के माध्यम से मृदा सतह पर ले आते हैं। ये पत्तियां विखण्डन के पश्चात कैल्सियम मुक्त करते हैं जो अन्ततः क्षारिय भूमि में उपस्थित सोडियम को विस्थापित कर कैल्सियम अविशोषित हो जाते हैं। इस प्रकार क्षारीय भूमि में यदि बबूल ,सुबबूल ,सिरीस, करंज, बिलायती बबूल, खैर, गम्हार आदि वृक्ष उपयुक्त मृदा-प्रबंध कर उगाया जाएं तो कालान्तर मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान, करनाल में क्षारीय भूमि में किये गये एक प्रयोग द्वारा यह देखा गया है कि वृक्षारोपण के 20 वर्ष बाद मिट्टी की क्षारीयता में कमी तथा आर्गेनिक कार्बन में गुरूत्वपूर्ण वृद्धि हुई जो सारणी -3 से स्पष्ट है।
मृदा की अम्लीयता भी थोड़ी बहुत दूर हो सकती है। लगभग 0.1 पीo-एचo मान प्रति वर्ष बढ़ सकता है। अत्याधिक अम्लीय दशा में अल्युमिनियम आयन के चलते जो अम्लीयता बढ़ती है, वृक्ष की गिरी हुई पत्तियों द्वारा निर्मित ह्यूमस अल्यूमिनियम आयन के साथ एक जटिल यौगिक का निमार्ण करता है जिससे आगे अम्लीकरण की क्रिया अवरूद्ध हो जाती है।
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सारणी : 1 विभिन्न वृक्ष –प्रजातियों द्वारा नेत्रजन स्थिरिकरण
वृक्ष प्रजातियां |
नेत्रजन स्थिरिकरण दर (किo ग्राo/हेo/वर्ष) |
सुबबूल |
100 – 500 |
झाऊ |
50 – 200 |
प्रोसोपिस प्रजाति |
50 – 130 |
ग्लेरीसिडिया |
280 – 360 |
एकासिया प्रजाति |
270 – 380 |
इस प्रकार उपर्युक्त मुख्य बातों पर यदि हम गौर करें तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि मृदा उर्वरता की दीर्घ टिकाउपन के लिए कृषि वानिकी एक सही विकल्प है।
सारणी : 2 पत्तियों में प्राथमिक मुखय पोषक तत्वों की मात्रा (प्रतिशत आधार पर)
वृक्ष प्रजातियाँ |
नेत्रजन |
स्फूर |
पोटाशियम |
बबूल |
2.19-2.62 |
0.09 – 0.14 |
0.80 – 0.90 |
सुबबूल |
2.30-2.54 |
0.17 – 0.40 |
1.30 – 1.86 |
झाऊ |
0.98-1.20 |
0.25 – 0.36 |
1.28 – 1.80 |
शिशम |
1.50 -1.96 |
0.08 – 0.14 |
0.80 – 0.87 |
अगस्त |
2.07-2.19 |
0.33 – 0.41 |
1.10 – 1.15 |
प्रोसोपीस |
2.08-2.16 |
0.22-0.30 |
1.12 – 1.20 |
सारणी : 3 वृक्षारोपण का क्षारीय भूमि के प्रति सुधार का प्रभाव
प्रजाति |
वृक्षारोपण से पूर्व |
वृक्षारोपण के 20 वर्ष बाद |
||
पीo एचo |
आर्गेनिक कार्बन |
पीo एचo |
आर्गेनिक कार्बन |
|
यूकेलिप्टस |
10.3 |
0.12 |
9.18 |
0.33 |
देशी बबूल |
10.3 |
0.12 |
9. 03 |
0.55 |
देशी सिरीस |
10.3 |
0.12 |
8. 67 |
0.47 |
अर्जुन |
10.3 |
0.12 |
8. 15 |
0.58 |
विलायती बबूल |
10.3 |
0.12 |
8. 03 |
0.58 |
लेखक-
ज्योति विश्वकर्मा (सहायक प्राध्यापक)
रैफल्स यूनिवर्सिटी, नीमराना, राजस्थान
विशाल यादव (शोध छात्र)
प्रसार शिक्षा, आचार्य नरेन्द्र देव कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, कुमारगंज, अयोध्या
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