Tea Farming: भारत में चाय की खेती बहुत पुराने समय से की जा रही है. वर्ष 1835 में सर्वप्रथम अंग्रेजों ने असम के बागों में चाय लगाकर इसकी शुरुआत की थी. वर्तमान समय में भारत के कई राज्यों में चाय की खेती की जा रही है. इससे पहले चाय की खेती केवल पहाड़ी क्षेत्रों में की जाती थी, परन्तु अब यह पहाड़ी क्षेत्रों से लेकर मैदानों क्षेत्रों तक पहुंच गई है. वही चाय एक प्रकार से विश्वव्यापी लोकप्रिय और महत्वपूर्ण पेय योग्य पदार्थ है. यह एक सदाबहार झाड़ी नुमा पौधा होता है, जो थियनेसेसिस नामक पेड़ का प्रजातीय है. चाय में थीन नामक पदार्थ पाया जाता है जो मानव शरीर को ऊर्जा देता है. यह चाय के पौधों की पत्तियों से बनता है. विश्व में सबसे ज्यादा चाय का उत्पादन चीन में किया जाता है. चाय के उत्पादन में भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है. वही चाय का सबसे बड़ा निर्यातक देश श्रीलंका है. भारत में पश्चिम बंगाल (दार्जिलिंग), असम, बिहार (किशनगंज), हिमाचल प्रदेश (पालमपुर), केरल (मुन्नार), तमिलनाडु (नीलगिरि) चाय की खेती के लिए प्रचलित हैं. इसके अलावा, किशनगंज जिले को बिहार का चाय के शहर के नाम से भी जाना जाता है.
मिट्टी का चयन एवं तैयारी
चाय उत्पादन में मिट्टी का महत्वपूर्ण योगदान होता है. चाय की अच्छी उत्पादन के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की सही प्रकार की मिट्टी का चयन करना. चाय के अच्छे उत्पादन के लिए कार्बनिक पदार्थों से भरपूर हल्की अम्लीय मिट्टी सबसे अच्छी होती है. चाय के बगानों में जल निकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए. इसकी खेती के लिए मिट्टी का 4.5 - 5.0 पी० एच० उपयुक्त माना जाता है. पौध रोपण से पहले खेत की अच्छे से जुताई कर कुछ दिन के लिए खुला छोड़ देना चाहिए. उसके बाद खेत में रोटावेटर चलाकर मिट्टी को भुरभुरा बना लें. मिट्टी को भुरभुरा बनाने के बाद खेत में पाटा लगाकर भूमि को समतल बना दें. इसके पौधे खेतों में गड्डे तैयार कर उनमें पौधे लगाए जाते हैं.
चाय की खेती के लिए अनुकूल जलवायु
चाय की खेती के लिए गर्म आद्र जलवायु सबसे उत्तम होती है. तथा 10 से 35 डिग्री तापमान में इसकी अच्छी पैदावार होती है.
चाय की उन्नत किस्में
चाय की उन्नत किस्म में जयराम, सुन्दरम, गोलकोंडा, पांडियन, बुकलेंड, सिंगारा, इवरग्रीन, बी० एस० एस० असम, डार्जिलिंग और डुआर्स आदि प्रमुख हैं.
चाय के पौधों की रोपाई का सही समय
चाय के पौधों की रोपाई पौध के रूप में की जाती है. इसके लिए कलम द्वारा तैयार पौध को लिया जाता है, इसके पौधों की रोपाई बारिश के मौसम के बाद की जाती है. चाय के पौधे लगाने का सबसे उचित समय मई से जून या सितंबर से अक्टूबर का महीना उपयुक्त माना जाता है. इससे पौधों का विकास अच्छे से होता है, जिससे फसल भी जल्द ही तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है.
ये भी पढ़ें: समुद्री शैवाल क्या है?, किसान कैसे बना सकते हैं इसे अपनी आय का स्रोत, पढ़ें पूरी जानकारी
पौधरोपण का तरीका
चाय के पौधों को खेत में तैयार किये गए गड्डों में लगाया जाता है. इसके लिए पहले से खेत में तैयार गड्डों के बीचों बीच एक छोटा सा गड्डा तैयार करते हैं. उसके बाद पौधे की पॉलीथीन को हटाकर उसे तैयार किये गए गड्डे में लगाकर चारों तरफ अच्छे से मिट्टी डालकर दबा देते हैं. इसके पौधों को विकास करने के लिए छाया की जरूरत होती है. इसके लिए प्रत्येक पंक्तियों में चार से पांच पौधों पर किसी एक छायादार वृक्ष की रोपाई करनी चाहिए.
पौध प्रबंधन एवं दूरी
बीज द्वारा तैयार की गयी नर्सरी जिसमें गुणवत्ता युक्त बीज को लगाया जाता है जिसमें लगभग 4 सप्ताह में जड़े निकल आती है, जिसे दोबारा प्लास्टिक की थैली में प्रतिरोपित किया जाता है. 9 से 10 महीने के पुराने पौधे मुख्य प्रक्षेत्र में प्रतिरोपित के लिए उपयुक्त होते हैं. कर्तन द्वारा पौधे तैयार करने के लिए मध्यम सख्त शाखा का चुनाव अप्रैल-मई या अगस्त-सितम्बर में एक पत्ती एवं एक नोड के साथ काट लिया जाता है. अत्यधिक वर्षा के समय कर्तन नही लगाना चाहिए. कर्तन में जड़ आने में लगभग 10 से 12 सप्ताह लग जाते हैं. कर्तन लगाने से जड़ आने तक नर्सरी में 80 से 90 प्रतिशत से ज्यादा आर्द्रता बनी रहनी चाहिए. उपयुक्त कठोरीकरण के पश्चात पौधों को 1.20 x 0.7 मीटर की दूरी पर जिसमें लगभग 10800 पौधे/ हेक्टेयर या 1.35 x 0.73 x 075 मीटर की दूरी पर 13200 पौधे/ हेक्टेयर लगाये जा सकते हैं.
चाय के पौधों की पोषण एवं सिंचाई
एक वर्ष में कुछ बार चाय की कटाई के बाद, चाय उत्पादन माटी से पोषक तत्वों की बड़ी मात्रा हटा देता है, मूल माटी संतुलन को तोड़ता है. नए पौधों को मजबूत बनाने और निरंतर विकास सुनिश्चित करने के लिए, चाय फसलों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की नियमित आपूर्ति होनी चाहिए जो नई वृद्धि की आवश्यकताओं को पूरा करेगी. चाय किसानों को यह ज्ञात है कि चाय पत्तियों की अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए अतिरिक्त उर्वरकरण की आवश्यकता होती है. हालांकि, इस क्रिया के दौरान, सामान्यतः कम कार्बनिक और अधिक रासायनिक उर्वरकरण का एक सामान्य प्रवृत्ति होती है. इसी समय, नाइट्रोजन उर्वरकों की तुलना में कम फॉस्फोरस और पोटैशियम उर्वरकों का उपयोग किया जाता है. अर्द्ध–कच्ची परिपक्कव शाखाओं में नये टिप्स का उपयोग करने पर नाइट्रोजन उर्वरकों के मसाले में चाय पत्तियों की गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ता है, जिससे नये टिप्स का रंग हरा से गहरा हरा हो जाता है.
चाय बगीचे में नाइट्रोजन उर्वरकों के अतियोग के अन्य “परिणाम” हैं मोटी चाय की डंठलें, लंबे अंतर्विन्यास, नए टिप्स की निरंतर वृद्धि और खड़ी बुद्धिमता की गठन की कठिनाइययां. इस परिणामस्वरूप, चाय की गुणवत्ता कम होती है और आर्थिक लाभ कम होते हैं. चाय के पौधों को अधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है. यदि इसके पौधों की रोपाई छायादार जगह पर की गई है, तो इन्हें अधिक सिंचाई की आवश्यकता होती है. यदि बारिश के मौसम में बारिश पर्याप्त मात्रा में हो रही है, तो इन्हें सामान्य सिंचाई की आवश्यकता होती है. यदि बारिश समय पर नहीं होती है, तो फव्वारा विधि द्वारा पौधों की सिंचाई करें. इसके अतिरिक्त यदि तापमान अधिक है, तो पौधों को रोज हल्का-हल्का पानी दें, तथा सामान्य तापमान में जरूरत के अनुसार ही सिंचाई करें.
खाद एवं रासायनिक उर्वरक
चाय की अच्छी बढ़वार और अधिक उपज के लिए खाद एवं उर्वरक की अधिक आवश्यकता होती है. इसके लिए गड्ढे तैयार करते समय प्रत्येक पौधों को लगभग 20 किलो अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद या वर्मीकम्पोस्ट देनी चाहिए. रासायनिक उर्वरक में एन.पी. के. और आवश्यक पोषक तत्व मिट्टी परिक्षण के आधार पर देना चाहिए.
कटाई एवं छंटाई
चाय के पौधे की नियमित कटाई-छंटाई की जाती है जिसके दो उद्देश्य हैं- वानस्पतिक वृद्धि को बढ़ावा देना ताकि ज्यादा पत्तियां प्राप्त की जा सके तथा पौधे की ऊंचाई को तुड़ाई नियंत्रित करना है. चाय के पौधे में कटाई-छंटाई का चक्र कई वर्षों का होता है. इसकी सघनता अनुसार कटाई-छंटाई को तीन भागो में बांटा गया है.
कठोर कटाई
कठोर कटाई में पौधे को 30 से 45 सेमी० की ऊंचाई से काटा जाता है.
मध्यम कटाई
मध्यम कटाई में पौधे को 50 से 60 सेमी० की ऊंचाई से काटा जाता है.
हल्की कटाई
हल्की कटाई में पौधे को 60 से 70 सेमी० की ऊंचाई से काटा जाता है.
कटाई-छंटाई एवं सघाई मानसून के पूर्व या बाद में किया जाता है. उत्तरी पूर्वी भागों या वैसे राज्य जहां ठंड के मौसम में पौधे सुषुप्तावस्था में चले जाते हैं. प्रत्येक वर्ष सितम्बर से अक्टूबर माह तक हल्की कटाई-छंटाई की जाती है, जिसे स्किफिंग कहते हैं. ज्यादा पत्ती लेने के लिए यह दो वर्ष के अंतराल पर भी हल्की छंटाई करते हैं. यह सबसे हल्की कटाई-छंटाई होती है. चाय की पत्ती का उत्पादन कटाई-छंटाई की ऊंचाई, समय, नई शाखाओं की प्रकृति यथा सघनता एवं आकार, पौधे के स्वास्थ्य, पौधे में कार्बोहाइड्रेट की स्थिति आदि पर निर्भर करती है.
चाय के पेड़ के रोग और कीटनाशक नियंत्रण
चाय के पेड़ का भूरा दाग
चाय के पेड़ का भूरा दाग स्पोरादिक कवक के कारण होता है. यह ऊंची पहाड़ी वाले चाय क्षेत्रों में अधिकांशतः होता है. जब यह रोग चाय पौधों में विकसित होता है, तो यह उच्चतम वृद्धि और छोटी कली और पत्तियों को उत्पन्न करता है, और रोगी पत्तियों से बनी सूखी चाय कड़वा स्वाद होती है. इसलिए, यह रोग चाय की उत्पादन और गुवत्ता पर अधिक प्रभाव डालता है. निम्न तापमान और उच्च आर्द्रता रोग विकास को अधिक पसंद करते हैं. ये स्थितियां वसंत और शरद ऋतु के मौसम में प्रचलित होती हैं.
रोकथाम और उपचार विधियां: ज्यादा प्रभावित चाय बागों के लिए, शुरुआती बचाव के लिए फरवरी–मार्च में सीमित मात्रा में 0.6-0.7% चूना और ½ भाग बोर्डो मिक्सचर का प्रयोग करना सर्वोत्तम होता है.
चाय का कालापन रोग
यह रोग बारिश के मौसम और शरद वर्षा में अधिक प्रभावित करता है; रोग के लक्षण और फैलाव वसंत और शरद ऋतु के बारिश के मौसम में अधिक होते हैं. सामान्य रूप से, यह रोग नए पत्तों में होता है. जिससे पेड़ कमजोर और उत्पादन में कमी हो जाती है.
रोकथाम और उपचार विधियां: अग्रिम और हिम काल में, जमीन पर मौजूद रोगी पत्तों और पेड़ों से रोगी पत्तों को हटाने के लिए उचित सफाई की जानी चाहिए. नए पत्तों पर उचित कीटनाशकों का प्रयोग शुरू करने का सबसे अच्छा समय सर्दियों के अंत या शरद वर्षा की शुरुआत के बाद होता है.
चाय पत्ती की पड़ाव
यह रोग पौधे की पत्तियों, टन्डुओं, शाखाओं और फलों को प्रभावित करता है. चाय पौधे को रोग से संक्रमित होने के बाद, उसकी पत्तियां अक्सर जल्दी गिर जाती हैं और मरे हुए टन्डुओं की प्रक्रिया प्रभावित होती है, जिससे चाय पौधे की विकास शक्ति कम होती है.
रोकथाम और उपचार विधियां: यह रोग काले कांटेदार सफेद मक्खियों, चाय मक्खियों और अन्य कीटों से पौधों को प्रभावित करता है और इसके नियंत्रित करने के लिए शुरुआती वसंत में 1% बोर्डो मिक्सचर तथा लाइम का छिड़काव करें.
चाय के पेड़ के महत्वपूर्ण और सामान्य कीट
चाय टारसोनेमिड माइट
लक्षण: यह कीट मुख्य रूप से चाय के छोटे पत्तों के पीछे निवास करती है, जहां परिपक्व कीट होते हैं, जो पौधे से रस चूसते हैं और पौधे को क्षति पहुंचाते हैं.
नियंत्रण विधि: इस कीट से बचने के लिए नवंबर के अंतिम सप्ताह से पहले पत्तियों पर बोहेमर 0.5 डिग्री स्टैफिलोकोकस का स्प्रे करें, जिससे ठंड के मौसम में कीटाणु की संख्या कम होगी. कीटाणु संक्रमण के उच्च समय से पहले, पत्तियों पर 20% पाइरीडाबेन या 15% माइरेक्स और 25% पेंडिमेथालिन का स्प्रे करें.
चाय का अफिड
लक्षण: यह कीट अधिकांश रूप से नए पत्तियों के पीछे एकत्रित होता है. और पहले और दूसरे पत्ते में आमतौर पर पाया जाता है. यह अपनी ऑरल नीडल के साथ नवीन पत्तियों के ऊतकों में छेदन करता है जिस से पौधा की वृद्धि रुक जाती है.
नियंत्रण विधि: चाय की पत्तियों को तोड़कर अलग–अलग करें. या पत्तियों में 40% ल्यूकोवोरिन, 50% ऑक्ट्रिटाइड और 80% डाइक्लोर्वोस का स्प्रे करें.
चाय की तुड़ाई एवं तुड़ाई उपरांत प्रबन्धन के तरीके
पत्तियों की तुड़ाई पौधे लगाने के तीन वर्ष बाद आरम्भ की जाती है. चाय तुड़ाई की तकनीक पर इसकी गुणवत्ता एवं उपज पर निर्भर करती है. नियमित अंतराल पर इसकी कोमल शाखाएं एक ऊपर कली तथा दो या तीन पत्तियों के साथ तोड़ी जाती है. तुड़ाई अप्रैल से जून एवं सितम्बर से नवम्बर माह में की जाती है. इसे एक कली दो पत्ती भी कहते हैं. तुड़ाई पत्तियों के निकलने के अनुसार नियमित रूप से 7 से 14 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए.
चाय की कटाई के तीन तरीके होते हैं: हाथ से कटाई, विशेष चाकू से कटाई, और मशीन से कटाई
हाथ से कटाई
आज के समय में हैंड पिकिंग विधि चाय की कटाई का सबसे आम तरीका है, जो विशेष रूप से उच्च गुणवत्ता वाली चाय बनाने के लिए उपयुक्त होती है. इसके लाभ हैंड के टिप्स पर गर्मी और दबाव से बचने का और ताजगी वाली पत्तियों की गुणवत्ता अधिक समान होती है. आमतौर पर अंगूठी और तर्जनी को थोड़ा सा मोड़कर कीनारे की उपरी केंद्र को हल्के हाथों से उपर की ओर मोड़ते हुए बड़े ध्यान से बुद्धिपूर्वक तोड़ते हैं.
नाइफ–पिकिंग विधि में आर्च–कटिंग चाकू आमतौर पर प्रयुक्त होते हैं.
मशीन पिकिंग विधि में चाय की नई उगाई गुच्छों को चाय पिकर से काट दिया जाता है.
तोड़ने की प्रक्रिया के दौरान, ताजगी पत्तियों को खराब होने से बचाने के लिए निम्नलिखित पर ध्यान देना चाहिए l
- ताजगी वाली चाय की पत्तियों को टोकरी में रखना चाहिए और उन्हें दबाना नहीं चाहिए ताकि कोई क्षति न हो या उनकी तापमान में वृद्धि न हो.
- तोड़े हुए ताजी पत्तियों को छाया में रखें.
- तोड़ने के बर्तनों को नियमित रूप से साफ करें और हवादार और बदबूरहित रखें. और परिवहन प्रक्रिया में, ताजगी वाली चाय को बहुत ज्यादा स्टैक न करें ताकि नुकसान के कारण चाय के नीचे की ज्यादा दबाव न हो
प्रबंधन एवं प्रसंस्करण
तुड़ाई के उपरांत चाय के प्रसंस्करण की विधि पर ही उसकी गुणवत्ता निर्भर करती है. चाय प्रसंस्करण, जिसे “चाय बनाना” भी कहा जाता है. यह ताजा चाय पत्तियों को विभिन्न प्रसंस्करण प्रक्रियाओं के माध्यम से अर्ध–पका या पूरी तरह से पका चाय बनाने की प्रक्रिया है. विभिन्न प्रसंस्करण प्रक्रियाएं प्राथमिक (प्राथमिक प्रसंस्करण), संशोधन (उत्कृष्ट प्रसंस्करण), पुनः प्रसंस्करण, और गहरी प्रसंस्करण में विभाजित की जा सकती हैं. अन्य प्रसंस्करण प्रौद्योगिकी से अलग–अलग प्रकार की चाय बनेगी, और चाय की गुणवत्ता का निर्माण प्रसंस्करण प्रक्रिया की समन्वय पर निर्भर करेगा. उत्कृष्ट ताजे पत्तों की सामग्री को केवल उत्कृष्ट प्रसंस्करण स्थितियों के तहत बनाने पर उच्च गुणवत्ता वाली सभी प्रकार की चाय उत्पन्न की जा सकती है.
चाय के पत्तियों की उपज
चाय एक बारहमासी फसलों में से एक है जिसे दोबारा लगाने की आवश्यकता नहीं होती है. जब तक फसल क्षति ना हो चाय एक लंबी अवधि की फसल है. चाय के पौधे रोपाई के एक वर्ष बाद पत्तियों की कटाई के लिए तैयार हो जाते हैं. इसके बाद पत्तियों की तुड़ाई को एक वर्ष में तीन बार किया जा सकता है. इसकी पहली तुड़ाई मार्च के माह में की जाती है, तथा बाकि की तुड़ाई को तीन माह के अंतराल में करना होता है. चाय की विभिन्न प्रकार की उन्नत किस्मों से प्रति हेक्टेयर 18 से 25 क्विंटल /हेक्टेयर का उत्पादन प्राप्त हो जाता है. चाय का बाज़ारी भाव काफी अच्छा होता है जिससे किसान भाई चाय की एक वर्ष की फसल से 2 से 3 लाख तक की कमाई आसानी से कर सकते हैं.
चाय की खेती में लागत
बिहार में विशेष उद्यानिकी फसल योजना के के तहत चाय की खेती के लिए किसानों को 50% सब्सिडी दी जाती है जिसमें उद्यानिकी विभाग द्वारा चाय का खेती करने के लिए प्रति हेक्टेयर लागत 4,94,000 रुपये तय की गई है. इस पर किसान को लागत की 50% सब्सिडी यानी 2,47,000 रुपये प्रति हेक्टेयर मिलेगा. यह राशि किसानों को दो किश्तों में 75:25 अनुपात में दी जाएगी. साथ ही इस योजना के तहत चार जिले के किसान ही इस योजना का लाभ ले सकते हैं. उसमें कटिहार, किशनगंज, अररिया और पूर्णिया शामिल है. विशेष उद्यानिकी फसल योजना के तहत इच्छुक किसान बिहार उद्यानिकी विभाग के पोर्टल पर ऑनलाइन आवेदन कर सकते हैं. उम्मीद है कि इस लेख से आप सभी को चाय की खेती संबंधी सभी जानकारियां मिल पायी होंगी l कृषि जागरण द्वारा चाय के खेती से लेकर तुड़ाई एवं प्रसंस्करण तक सभी जानकारिया बताई गयी है l यदि फिर भी चाय की खेती से सम्बंधित कोई प्रश्न हो तो कृषि विज्ञान केंद्र, किशनगंज में उपस्थित वैज्ञानिकों से पूछ सकते हैं.
लेखक: अलीमुल इस्लाम
वि० व० वि०, कृषि प्रसार
कृषि विज्ञान केंद्र, किशनगंज, बिहार
बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर, भागलपुर
सुमन कुमारी
वि० व० वि०, उद्यान
कृषि विज्ञान केंद्र, अररिया, बिहार
बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर, भागलपुर
पवन सिंह
एस०आर० एफ०, निक्रा
कृषि विज्ञान केंद्र, किशनगंज, बिहार
बिहार कृषि विश्वविद्यालय, सबौर, भागलपुर
Share your comments