हमारे दैनिक जीवन में हल्दी का महत्वपूर्ण स्थान है, हल्दी मसाले वाली फसल है, इसका अनेक रूपों में उपयोग किया जाता है. औषधीय गुण होने के कारण आयुर्वेदिक दवाओं में इसका उपयोग किया जाता हैं. इसका उपयोग औषधि के रूप में पेट दर्द व एंटीसेप्टिक के रूप में तथा चर्म रोगो के उपचार में किया जाता है, यह रक्त शोधक है.
कच्ची हल्दी चोट सूजन को ठीक करती हैं.इसके रस में जीवाणुनाशक गुण होने के कारण इसका उपयोग सौंदर्य प्रसाधन में किया जाता है. प्राकृतिक एवं खाद्य रंगों को बनाने में भी इसका उपयोग किया जाता हैं. इसका उपयोग मसालों के अलावा उघोगो एवं सामाजिक धार्मिक कार्यक्रमों में भी होता है. इसके इन उपयोगों के कारण बाजार में इसकी अच्छी मांग रहती हैं व ऊंची कीमतें मिलती हैं.
भारत में हल्दी की खेती प्राचीन काल से होती आ रही है. इसकी खेती से कम खर्च में अधिक लाभ प्राप्त होता है. हमारे देश में काफी मात्रा में हल्दी का निर्यात किया जाता है. विश्व में हल्दी उत्पादन में भारत का मुख्य स्थान है. हल्दी के पूरे विश्व के उत्पादन का 60 प्रतिशत भारत में होता है. इसके निर्यात से भारत को प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये की विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है. देश के सभी राज्यों में इसकी खेती होती है, दक्षिण भारत और उड़ीसा में इसका उत्पादन मुख्य रूप से होता है. मध्यप्रदेश में भी इसकी खेती की अच्छी संभावनाएं हैं. इसके उत्पादन से किसान भाई अच्छा लाभ ले सकते है व भाई निर्यात से विदेशी मुद्रा अर्जित कर सकते है.
भूमि: हल्दी की खेती हेतु रेतीली और दोमट भूमि अधिक उपयुक्त होती है. इसे बगीचों में व अर्ध छायादार स्थानों में भी लगाया जा सकता है. भूमि अच्छी जल निकास वाली होना चाहिए, भारी भूमि में पानी का निकास ठीक ढंग से न होने पर हल्दी की गांठों का फैसाव ठीक प्रकार से नहीं हो पाता है. इसके कारण गांठे या तो चपटी हो जाती है या फिर सड़ जाती है.
भूमि की तैयारी: हल्दी गर्म तथा नम जलवायु युक्त उष्ण स्थानों में होती है. खेती की तैयारी हेतु रबी की फसल लेने के बाद मिट्टी पलटने वाले हल से दो जुताई करके फिर देशी हल से 3-4 जुताई करें व भूमि को समतल करें.
बोने का समय व बीज की मात्राः हल्दी की बोआई 15 मई से जुलाई के प्रथम सप्ताह तक की जा सकती है. यदि सिंचाई की समुचित व्यवस्था न हो तो मानसून प्रारम्भ होने पर बोआई करें. प्रति हेक्टेयर बुआई के लिए कम से कम 2500 किग्रा प्रकंदो की आवश्यकता होती हैं. बोने से पूर्व बीज को 24 घंटे तक भीगे बोरे में लपेट कर रखने से अंकुरण आसानी से होता है.
खाद एवं उर्वरक (manures and fertilizers)
लंबे समय की फसल होने के कारण इसको अन्य फसलों की अपेक्षा अधिक खाद एवं उर्वरक की आवश्यकता होती है. 20 या 25 टन अच्छा सड़ा गोबर का खाद 100 किलो नाइट्रोजन 50 किलो फास्फोरस एवं 50 किलो पोटाश खाद प्रति हेक्टेयर की दर से देना चाहिए. गोबर की खाद को भूमि की तैयारी के समय मिला दें. फास्फोरस की पूरी मात्रा नाइट्रोजन एवं पोटाश की एक तिहाई मात्रा को बोआई के समय दें. शेष नाइट्रोजन एवं पोटाश को दो बराबर हिस्सों में बांटकर अंकुरण के 30 एवं 60 दिन बाद दें.
सिंचाई की पर्याप्त सुविधा होने पर हल्दी की बुआई अप्रैल, मई में करना लाभदायक होता है. बीज की बोआई के लिए मात्र कंद एवं बाजू कंद दोनो प्रकार के प्रकंदो का उपयोग किया जा सकता है. मात्र कंद लगाने से अधिक पैदावार पाप्त होती है. बीज के लिए 20 से 30 ग्राम के मात्र कंद या 15,20, ग्राम बाजू कंद का चयन करें. यह ध्यान रखे कि प्रत्येक पर दो या तीन आंखें अवश्य हो बोने से पूर्व कंदों को 2.25 प्रतिशत अगालाल घोल में 30 मिनट तक उपचारित करें. हल्दी की बुआई समतल चार बाई तीन मीटर आकार की क्यारियों में मेडों पर बोआई करना चाहिए. लाईन से लाइन की दूरी 45 से0मी0 उंची मेडो पर करें.
उपज (Yield)
अनुसंधान के बाद यह देखा गया है कि मेडो पर उगाने से हल्दी की पैदावार अधिक होती है. बगीचों में फलो के वक्षो के बीच में भी हल्दी की बुआई की जा सकती हैं. बुआई करने से तुरंत बाद पलास के पत्तों से क्यारियों एवं मेडो को ढंक देना चाहिए, जिससे गर्मी में नमी का संरक्षण बना रहे एवं खेत में दायरे न पड़ सके. हल्दी पर बहुत कम अनुसंधान कार्य किया गया है, फिर भी इसकी अच्छी किस्में विकसित की गई है. अखिल भारतीय मसाला अनुसंधन परियोजना पोटांगी द्वारा विकसित जातियां रोमा, सुरमा, रंगा एवं रश्मि, अधिक उत्पादन देने वाली जातियां हैं. ये जातियां औषतन 240 से 255 दिन में तैयार हो जाती है और इनसे औषातन 20 से 30 वनप्रति हेक्टेयर तक पैदावार प्राप्त होती है. इनके अलावा पीताम्वरा, कोयमबटुर, सुवर्णा, सुगना, शिलांग आदि जातियों का भी चुनाव किया जा सकता है.
फसल अवधि (harvest period)
यह फसल 7 से 9 माह में तैयार होती है. अत: इसे समय अनुसार समुचित सिंचाई की आवश्यकता पड़ती है. अगेती फसल एवं मानसून की अनिश्चिता के समय सिंचाई का विशेष ध्यान रखना चाहिए. खेतों में दरारे पड़ने के पूर्व सिचाई शाम के समय करना चाहिए. वर्षात खत्म होने पर 15 दिन के अंतराल पर सिंचाई करना चाहिए. खुदाई करने के एक सप्ताह पूर्व सिंचाई बंद कर देना चाहिए. वर्षा प्रारम्भ होने के पूर्व 6 से 7 दिनों के अंतर से सिंचाई करना चाहिए. यह ध्यान रखें कि प्रकंद निर्माण के समय भूमि में नमी की कमी नहीं होना चाहिए.
निंदाई- गुडाई (blasphemy)
हल्दी में निदाई-गुडाई का विशेष महत्व हैं, बोआई के बाद 3 से 4 माह प्राय हर माह निदाई-गुडाई करना तथा मिट्टी चढाना आवश्यक है. पौधों पर प्रथम बार 45 से 50 दिन बाद दूसरी बार 75 से 80 दिन बाद मिट्टी चढ़ाना चाहिए. बोआई के उपरांत 40 से 50 दिन तक का समय फसल की क्रान्तिक आवश्यक माना गया है अर्थात इस अवधि में खेत में खर-पतवार नहीं रहना चाहिए, जिससे पौधों की वनस्पति वृद्धि हो सके.
हल्दी की सफल खेती के लिए फसल चक्र अपनाना आवश्यक है एक खेत में लगातार हल्दी की फसल (turmeric crop) न ले क्योंकि यह फसल भूमि से अपेक्षाकृत अधिक पोषक तत्वो का शोषण करती है. आलू, मिर्च आदि फसलों के साथ फसल चक्र अपनाएं. भूमि का सही सदुपयोग करने के लिए इसे आम, अमरूद, नीवू, आदि के बगीचों में लगाकर अच्छा उत्पादन प्राप्त करें.
कीट व्याधि (Insect disease)
हल्दी में कीट व्याधियों एवं बीमारियों का प्रकोप कम होता है. थ्रिप्स कीट पत्तियों से रस चूसकर एवं छेदक कीट तने एवं कंद में छेद कर नुकसान पहुंचाते हैं, इन कीटों के नियंत्रण के लिए फास्फोमिडान 0.05 प्रतिशत का छिड़काव करें. कंद मक्खी का प्रकोप अक्टूबर से कंद खुदाई तक पाया जाता हैं. इसके नियंत्रण के लिए फ्यूराडान या फोरेट 25 से 30 किलो प्रति हेक्टर को पौधों के 10 से 15 से.मी दूर भूमि में 5 से 6 सेमी गहराई में डाले पत्ती धब्बा रोग फफूंदी जनित रोग है. यह रोग अगस्त सितंबर माह में जब लगातार नमी का वातावरण रहता है तब फैलता है. इस रोग के कारण पत्तियों पर 4 से 5 से.मी. लंबे और 2 -3 से.मी. चौड़े भूरे सफेद धब्बे पड़ जाते है. रोग की अधिकता से पत्तियां सूख जाती हैं और पौधो की वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. रोग की रोक थाम के लिए बोर्डो मिश्रण एक प्रतिशत का छिड़काव करें या किसी भी ताबायुक्त फफूंद नाशक दवा का ( 2.5 ग्राम/लीटर पानी) छिड़काव करें.
हल्दी फसल बुआई के लगभग 7 से 9 माह में पक्कर तैयार हो जाती है. जब पौधो की पत्यिां पीली पड़कर सूखने लगे तब खुदाई योग्य समझना चाहिए. इसकी उन्नत जातियों से 37 से 44 टन प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन प्राप्त होता है.
हल्दी का संसाधन करने के लिए अच्छी तरह प्रकंदो को साफ कर रात भर पानी में भिगोने के बाद पानी से साफ कर ले. इसके बाद ब्लीचिंग करने हेतु मिट्टी या धातु के बर्तन में साफ पानी भरकर हल्दी को तब तक उबाले जब तक सफेद झाग जैसा पदार्थ तथा विशेंष गंदा युक्त सफेद धुआं न निकलने लगें. इस प्रकार ब्लीचिंग करने से हल्दी मुलायम हो जाती है. उबले हुए प्रकंदो को 10 से 12 दिन भली-भांति सुखा ले. सुखाने के बाद प्रकंदों को खुरदरी सतह पर रगड़ें. यह कार्य पैरो में बोरे या कपड़े का टुकड़ा लपेट कर या पालिशर का उपयोग कर किया जा सकता है. पालिशिंग करते समय बीच-बीच में पानी का छिड़काव करने से हल्दी का रंग अच्छा हो जाता है.
राजेश कुमार मिश्रा
संपर्क - 8305534592
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