पूर्वी और उत्तर पूर्व भारत के करीब पचास लाख व्यक्तियों को पटसन आजीविका प्रदान करने के साथ-साथ अपने विविध उत्पादों के निर्यात द्वारा करीब 2500 करोड़ रुपया प्रति वर्ष अर्जित करता है. पटसन उत्पादन के समय (मार्च- अप्रैल से मई –जून) विभिन्न मौसम कारकों जैसे– सूखा, जल आप्लवन, चक्रवात इत्यादि, रेशा के उपज तथा गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव के साथ- साथ अंतोगत्वा इससे होने वाली आय पर भी असर डालते हैं. जैसा कि हम जानते हैं, पटसन के विविध उत्पादों का निर्माण व उत्पादन उसके रेशा गुणवत्ता पर निर्भर करता है. रेशा की गुणवत्ता, इसकी प्रजाति के अलावा मुख्यतः सड़न पद्धति द्वारा निर्धारित होती है. वर्तमान में निरन्तर बढ़ती हुई श्रम की लागत, सामुदायिक जल संचय स्थलों की कमी, धीरे- धीरे बहने वाले जल के स्थान में निरंतर कमी आदि ने सड़न पद्धति और प्रयासों को और भी कठिन बना दिया है.
उपरोक्त पृष्ठभूमि में वैकल्पिक सड़न मॉडल समय की माँग है, जो संसाधन बचत के साथ-साथ मूल्य वर्धित विविध उत्पादों को बनाने के लिए बेहतर गुणवत्ता वाला रेशा प्रदान कर सके. इस समस्या के निदान हेतु भा.कृ.अनु.प.- पटसन एवं समवर्गीय रेशा अनुसंधान संस्थान, बैरकपुर (क्राइजैफ) के निदेशक डॉ गौरांग कर ने बताया कि बेहतर गुणवत्ता वाला रेशा उत्पादन हेतु खेती के मूल स्थान पर ही (In-situ) सड़न तालाब आधारित कृषि प्रणाली की एक मॉडल विकसित की गई है. जैसा कि हमे पता है, पटसन उत्पादक राज्यों में वार्षिक वर्षा 1200-2000 मिमी होती है, जिसका 30-40% भाग यूँ ही बह कर बर्बाद हो जाता है. इसके पूर्ण सदुपयोग के लिए भूमि के सबसे निचले ढलाव वाले हिस्से में छोटे से तालाब (40 फीटX 30 फीट X 5 फीट) का निर्माण कर वर्षा जल को जमा किया जा सकता है. ऐसा करने से सड़न द्वारा रेशा में गुणवत्ता सुधार के साथ-साथ पटसन उत्पादन में फसल कटाई उपरांत लचिलापन बढ़ने की गुंजाईश और बढ़ जाएगी.
डॉ. त्रिलोचन महापात्रा, महानिदेशक, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, डॉ. तिलक राज शर्मा, उपमहानिदेशक (फसल विज्ञान ) और डॉ॰ आर. के. सिंह, सहायक महानिदेशक (वाणिज्यक फसल) के दूरदर्शी नेतृत्व के तत्वधान में भाकृअनुप–सी॰आर॰आई॰जे॰ए॰एफ॰(क्राइजैफ) ने बहते हुए पानी में पटसन सड़न पर एक परियोजना तैयार की है. कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार “रेशा गुणवत्ता में सुधार” के तहत इसे प्रायोजित भी कर रही है. इस मॉडल में एक बार में आधा एकड़ पटसन के पौधों को सड़ाया जा सकता है .एक एकड़ के पटसन फसल को बारी-बारी से दो बार में सड़ाया जा सकता है. इस तालाब को 150-300 माइक्रोन वाले एल॰ डी॰ पी॰ ई॰ शीट से स्तर करना चाहिए ताकि जल का रिसाव न हो. एक बार में तीन जाक और प्रत्येक जाक में तीन तह बनाना चाहिए. तालाब के तलहटी तथा जाक के बीच की दूरी कम से कम 20- 30 सेंमी॰ रखनी चाहिए एवं जाक के ऊपरी सतह पर भी कम से कम 20-30 सेंमी॰ का जल स्तर हो.
इस विधि के अपनाने से लागत में बचत हो सकती है
1. कटे हुए पटसन के पौधों को पारंपरिक तरीके से सड़न स्थल तक ले जाने में होने वाले ढुलाई खर्च में प्रति एकड़ 3,500-4,000 रुपया तक बचत होती है .
2. क्राइजैफ सोना पाउडर के प्रयोग करने से सड़न प्रक्रिया केवल 12-15 दिनों में ही पूरी हो जाती है, जबकि पारंपरिक विधि से यह प्रक्रिया 18-21 दिनों की होती है. इसके लिए पहली बार 14 कि॰ग्रा॰ / एकड़ क्राइजैफ सोना पाउडर की आवश्यकता होती है जबकि दूसरी बार यह मात्रा घाट कर आधी अर्थात 7 कि॰ग्रा॰ / एकड़ हो जाती है, जिसमें 400 रुपया तक की बचत होती है.
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3. वर्षा काल में धीमि गति से बहने वाले जल में इस पाउडर के प्रयोग से रेशा की गुणवत्ता में कम से कम 1-2 ग्रेड का सुधार होता है. पटसन तथा मेस्ता सड़न प्रक्रिया पूरी होने के बाद रेशा सड़न वाले जल का उपयोग विविध तरीकों से किया जा सकता है. कृषक, इस तरह के छोटे तालाबों का इस्तेमाल मौसमी सब्जी, फलदार पौधों की रोपाई, बत्तख तथा मत्स्य पालन के लिए कर सकते हैं.
मधुमक्खी पालन हेतु शहद के कुछ बक्सों को टैंक के किनारे रखा जा सकता है. एक कृषक गुणवत्ता पूर्ण रेशा के अलावा, इन घटकों द्वारा, प्रति वर्ष 25,000-30,000 रुपया तक की अतिरिक्त आय अर्जित कर सकता है. इस टैंक में संचित जल का उपयोग पटसन आधारित फसल पद्धति में लगाए गए फसलों के लिए जीवन रक्षक सिंचाई के रूप में किया जा सकता है. इस प्रकार के स्थायी तालाबों के निर्माण से 1,000-1,200 रुपया के पटसन का नुकसान कर एक कृषक प्रति वर्ष बहु फसल पद्धति द्वारा करीब 30,000 रुपया की आमदनी प्राप्त कर सकता है.
यह तकनीक जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसान में बहुत हद तक की कमी ला सकता है. तालाब की एक बार खुदाई में करीब 12,000 रुपया तथा एल॰डी॰पी॰ई॰ स्तरीकरण पर करीब 10,000 रुपया का खर्च आता है, जिसकी भरपाई एक वर्ष में ही हो जाती है .डॉ गौरांग कर, निदेशक ने बताया कि राष्ट्रीय पटसन बोर्ड तथा राज्य कृषि विभाग के सहयोग से कृषकों के खेत पर ही इस दिशा में कार्य किया जा रहा है .
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