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खेत से बाजार तक: हल्दी उत्पादन से जुड़ी सम्पूर्ण जानकारी

Turmeric Cultivating: किसानों की आय बढ़ाने के लिए हल्दी की खेती सबसे अच्छी विकल्प है. दरअसल, हल्दी न केवल विशिष्ट स्वाद जोड़ती है बल्कि इसका रंग भी बढ़ाती है, इसका उपयोग सूती वस्त्रों, औषधियों और सौंदर्य प्रसाधनों में रंग के रूप में भी किया जाता है.

लोकेश निरवाल
हल्दी की खेती, सांकेतिक तस्वीर
हल्दी की खेती, सांकेतिक तस्वीर

हल्दी भारत के सबसे महत्वपूर्ण और प्राचीन मसालों में से एक है, और एक पारंपरिक फसल है तथा मसाला के लिए बहुत अच्छा व्यावसायिक मूल्य है. इसका उपयोग सभी वर्गों के लोग स्वादिष्ट व्यंजन बनाने में बड़े पैमाने पर किया जाता है. हल्दी न केवल विशिष्ट स्वाद जोड़ती है बल्कि इसका रंग भी बढ़ाती है, इसका उपयोग सूती वस्त्रों, औषधियों और सौंदर्य प्रसाधनों में रंग के रूप में भी किया जाता है और इसका उपयोग धार्मिक कार्यों में भी किया जाता है.

वही, प्रतिवर्ष 1,50,000 टन से अधिक हल्दी का उत्पादन होता है, जिसमें से 92-95% देश में ही खपत हो जाती है और शेष 5-8% निर्यात किया जाता है, हल्दी के निर्यात से काफी विदेशी मुद्रा देश को अर्जित हो रही है .

जलवायु : हल्दी उष्ण एवं उपोषण जलवायु की फसल है, फसल के विकास के लिए गर्म एवं नम जलवायु उपयुक्त होती है. परंतु गांठ बनते समय ठण्डी जलवायु की आवश्यकता होती है . साथ ही इस समय 25 से 30 डिग्री. से. तापमान उपयुक्त पाया गया है .

भूमि : हल्दी की खेती के लिए जल निकास युक्त बलुई दोमट से हल्की दोमट मिट्टी उपयुक्त होती है. फसल वृद्धि के लिए जीवांश पदार्थों की प्रचुरता आवश्यक है.

खेत की तैयारीः हल्दी के कंद जमीन में मिट्टी के नीचे बनते हैं, इसलिए मिट्टी काफी मुलायम होनी चाहिए . इसके लिए चार-पांच जुताई की आवश्यकता होती है . पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से शेष कल्टीवेटर अथवा देशी हल से करनी चाहिए . प्रत्येक जुताई के बाद पाटा लगाना चाहिए जिससे मिट्टी भुरभुरी बन जाये . अंतिम जुताई के समय 250 से 300 क्विंटल गोबर की सड़ी खाद अथवा कम्पोस्ट खेत में सामान रूप से बिखेर कर मिट्टी में मिला देनी चाहिए . इसी समय निराई-गुड़ाई तथा सिंचाई सुविधानुसार खेत को क्यारियों में बांट लेना चाहिए.

पोषक तत्व प्रबंधन: अच्छे उत्पादन के लिए 100 से 150 किग्रा. नेत्रजन, 50 से 60 किग्रा. स्फूर, 100 से 120 किग्रा. पोटाश एवं 20 से 25 किग्रा. जिंक सल्फेट की आवश्यकता होती है . स्फूर, पोटाश एवं जिंक को बीज बुआई से पूर्व खेत में सामान रूप से बिखेर कर मिट्टी में मिला देनी चाहिए . नेत्रजन को 3 बराबर भागों में बांटकर पहला बुवाई से 40 से 45 दिनों के बाद, दूसरा 80 से 90 दिन एवं तीसरा 100 से 120 दिन बाद देनी चाहिए .

उन्नत प्रभेद: हल्दी की खेती के लिए निम्न अनुशंसित प्रभेदों का चयन अपनी आवश्यकतानुसार अथवा स्थानीय वैज्ञानिकों के सलाह पर कर सकते है .

राजेन्द्र सोनियाः इस किस्म के पौधो छोटे 60 से 80 सेमी. ऊँची तथा 195 से 210 दिन में फसल तैयार हो जाती है. इस किस्म की उपज क्षमता 400 से 450 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथा पीलापन (कुरकुमिन) 8 से 8.5 प्रतिशत पाया जाता है.

आर. एच, 5 : इसके पौधे भी छोटे जो लगभग 80 से 100 सेंमी. ऊँची तथा 210 से 220 दिन में फसल तैयार हो जाती है. इस किस्म की उपज क्षमता 500 से 550 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तथा पीलापन 7.0 प्रतिशत होता है.

आर.एच. 1/10 : इसके पौधे मध्य ऊँचाई के लगभग 110-120 सेमी. ऊँचाई की होते हैं तथा फसल 210 से 220 दिनों में तैयार हो जाती है. इस किस्म की उपज क्षमता 500 से 550 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आर.एच. 13/90: इसके पौधे मध्यम आकार के जो 110 से 120 सेमी. ऊँचाई के होते है इसके तैयार होने में 200 से 210 दिनों का समय लगता है. इस किस्म की उपज क्षमता 450 से 500 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

आई आई एस आर प्रगति (नयी प्रजाति) : असिंचित दशा में यह किस्म कम अवधि (मात्र 180 दिनों) में 380 से 400 क्विंटल प्रति हेक्टेयर का उत्पादन होता है जबकि सिंचाई की उत्तम व्यवस्था होने पर इसकी उत्पादकता 500-530 क्विंटल प्राप्त की जा सकती है. इस प्रजाति में औसत कुरकुमिन (पीलापन) 5.02 प्रतिशत पाया जाता है तथा यह सूत्रकृमि रोधी किस्म है.

एन.डी.आर. 19:  इसके पौधे मध्यम आकार के जो लगभग 115 से 120 सेमी. ऊँचे होते है तथा इसको तैयार होने में 215 से 225 दिनों का समय लगता है. इसकी उपज क्षमता 350 से 375 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है.

बीज दर : हल्दी की बुआई के लिए 30 से 35 ग्राम के प्रकंद जिसमें 4 से 5 स्वस्थ्य कलियाँ हो, कि 30 से 35 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है .

बुआई का समय : बुआई के लिए उचित समय 15 मई से 31 मई तक का सर्वोत्तम समय है . बुआई का कार्य समय पर पूरा करना चाहिए जिसका सीधा असर उत्पादन पर पड़ता है .

बीजोपचार : कंद की बुआई से पूर्व उपचारित करना अत्यंत आवश्यक है . जिससे प्रमुख बीमारियों के प्रकोप से फसल को बचाया जा सके . कंद को मैन्कोजेब 75 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण दवा के 2.5 एवं कार्बन्डाजिम 1 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर 30 से 40 मिनट तक उपचारित करना चाहिए .

बुआई : इसकी बुआई दो तरह से की जाती है . पहला समतल विधि एवं दूसरा मेड़ विधि जो  निम्नवत है l

समतल विधिः इस विधि में भूमि को तैयार कर समतल कर लेते हैं और कुदाल से पंक्ति से पंक्ति 30 सेमी. तथा गांठ से गांठ 20 सेमी. की दूरी पर कंद की बुआई की जाती है .

मेड़ विधिः इसमें दो तरह से की जाती है, एकल पंक्ति विधि तथा दो पंक्ति विधि, एकल पंक्ति विधि में 30 सेमी. के मेड़ पर बीच में 20 सेमी. की दूरी पर गांठ को रख देते हैं तथा 40 सेमी. मिट्टी चढ़ा देते हैं. जबकि दो पंक्ति विधि में 50 सेमी. मेड़ पर दो लाईन में जो पंक्ति से पंक्ति 30 सेमी. तथा गांठ से गांठ 20 सेमी. की दूरी पर रखकर 60 सेमी. मिट्टी ऊपर चढ़ा देते हैं .

झपनी : बुआई के बाद खेत को शीशम की पत्तियों की 5 सेमी. परत से ढ़क देनी चाहिए . इससे खर-पतवारों का नियंत्रण होता है, साथ ही गांठों का जमाव सामान रूप से होता है .

खरपतवार प्रबंधन : हल्दी में निराई-गुड़ाई का बहुत अधिक महत्व है, इससे खर-पतवारों का नियंत्रण होता है, वहीं कंदों के विकास के लिए अच्छा अवसर प्राप्त होता है . पहली निराई-गुड़ाई 30 से 40 दिनों के बाद तथा दूसरी 60 से 70 दिनों बाद तथा तीसरी 90 से 100 दिनों के बाद करनी चाहिए . निराई-गुड़ाई के समय पौधों के जड़ों के चारों तरफ मिट्टी चढ़ाना चाहिए .

सिंचाई प्रबंधन : हल्दी फसल में सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है, गांठ बनते समय या सितंबर-अक्टूबर में एक सिंचाई की आवश्यकता होती है .

फसल सुरक्षा एवं रोग प्रबंधन : हल्दी में कीट एवं बीमारियों के प्रकोप से फसल को काफी क्षति होती है जिससे नियंत्रण से क्षति को कम किया जा सकता है जो निम्नवत है .

तना छेदक : इसके व्यस्क कीट पीले-भूरे रंग के होते हैं तथा पिल्लू पीले रंग के होते हैं. इसके पिल्लू तने को छेद कर तना के भीतरी भाग को खाते हैं अंत में पौधे मर जाते हैं . इसके नियंत्रण के लिए पौधो के आक्रान्त भाग को काटकर नष्ट कर दें . खेत की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करें साथ ही खेत को खरपतवार से मुक्त रखें . मोनोक्रोटोफास 36 ई.सी. तरल का 800 मिलीलीटर 800 से 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करें .

चिप्स : यह कीट देखने में छोटा काला-भूरा तथा बेलनाकार होता है. कीट के व्यस्क एवं शिशु पत्तियों को खुरचकर उससे निकलने वाले द्रव्य को चूसता है जिसके कारण पत्तियों पर जगह-जगह उजले धब्बे बन जाते हैं, अधिक आक्रमण की स्थिति में पौधे मर जाते हैं . इसके नियंत्रण के लिए खेत में मित्र कीटों का संरक्षण करें, नीम आधारित जैविक कीटनाशी का 5 मिली. प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करें . ऑक्सीडेमेटान मिथाइल 25 ई.सी. का 800 मिलीलीटर 800 से 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें.

प्रकन्द सड़न रोग : इस रोग में पौधे की पत्तियाँ पीली होकर मुरझा जाती है, जो बाद में सूख कर मर जाती है . इसके नियंत्रण के लिए खेत में जल निकास का उत्तम प्रबंधन करें साथ ही फसल चक्र अपनायें एवं कार्बन्डाजिम तथा मैन्कोजेब संयुक्त उत्पाद का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर प्रकन्द को आधे घण्टे तक उपचारित कर बुआई करें . मैन्कोजेब 75 घुलनशील चूर्ण का 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोल बनाकर फसल पर छिड़काव करें, आवश्यकतानुसार 15 दिनों पर पुनः छिड़काव करें .

उर्वरक प्रबंधन:  हल्दी उत्पादन में प्रभावी उर्वरक प्रबंधन अत्यंत महत्वपूर्ण है जिसके लिए आवश्यक है की मिट्टी परीक्षण किया जाए ताकि पोषक तत्वों के स्तर, पीएच और सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी का पता लगाया जा सके . जैसा के हम जानते हैं की हल्दी में कुर्कुमिन पायी जाती है जिसके निर्माण में अधिक मात्रा में स्फूर की आवश्यकता होती है, उच्च स्फूर की मात्र जड़ो के बढ़वार में भी सहायक होता है . अतः (सिंचित स्थिति में 60 किलो प्रति हेक्टेयर और वर्षा आधारित स्थिति में 30 किलो प्रति हेक्टेयर)  स्फूर की मात्र रोपण के समय पर डालें . रोपण के समय 25-30 टन गोबर की सड़ी खाद, इसके साथ ही (सिंचित स्थिति में 25 किलो प्रति हेक्टेयर और वर्षा आधारित स्थिति में 30 किलो प्रति हेक्टेयर) नत्रजन और 60 किलो पोटाश डालें . पौधों के बड़े होने पर 45 और 90 दिनों के बाद 25 किलो प्रति हेक्टेयर के दर से दो बार प्लेसमेंट या टॉप ड्रेसिंग विधि से नत्रजन डालें . अगर पूर्व में सुत्रक्रिम की समस्या हो तो नीम की खल्ली 2 टन प्रति हेक्टेयर के दर से डालें . अधिक कार्यक्षमता के लिए फर्टिगेशन विधि द्वारा जल में घुलनशील उर्वरकों का उपयोग सर्व विदित है . हल्दी की फसल में नित्य ही आयरन और जिंक की कमी देखी गयी है जो कुर्कुमिन के निर्माण के लिए आवश्यक कारक हैं , अतः कुकुर्मिन के मात्रा को बनाये रखने के लिए 30 किलो FeSO4 और 15 किलो  ZnSO4 प्रति हेक्टेयर दर से उपयोग करें . साथ ही 0.5-1.0% बोरॉन और तांबा का उपयोग फसल के लिए लाभकारी होगा .

फसल कटाई और प्रसंस्करण: हल्दी की कटाई सामान्यतः बुवाई के 8-10 महीनो के बाद कंदों के परिपक्व होने पर की जाती है . जब हल्दी के पत्ते पीले होकर सूखने लगते हैं और कंदों की उपरी परत ठोस हो जाती है यह फसल के तैयार होने के मुख्य लक्षण होते हैं . ध्यान देने योग्य बात यह है की फसल की कटाई करने से पूर्व एक बार सिंचाई अवश्य करनी चाहिए जिससे की मृदा से कंद निकालने में आसानी होती है . कटाई की प्रक्रिया में सबसे पहले तेज चाकू से पौधे के तने को काट दें . उसके पश्चात मानव चलित फावड़े या ट्रेक्टर चलित मशीन से मृदा की खुदाई कर कंदों को निकालें . कटाई के समय इस बात का विशेष ख्याल रखा जाना चाहिए के कंद को कोई क्षति न पहुचे . अत्यधिक मृदा को कंदों से अलग करें उसके बाद कंदों को 10-15 दिनों के लिए धूप में क्योर करें (सुखाये) ताकि नमी की मात्रा कम हो . सूखे हुवे कंदों का एयर टाईट चैम्बर में भण्डारण करें . मूल्य वर्धन और लम्बे समय तक भण्डारण के लिए हल्दी को पाउडर के स्वरुप में भी उपयोग किया जा रहा है .

उपज : हल्दी की उपज किस्म, बुवाई के समय एवं उत्पादन के तौर तरीकों निर्भर करता है . हल्दी की औसत उपज 250 से 300 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है .

बाज़ार और विपणन: हल्दी एक ऐसी फसल है, जिसका इस्तेमाल हर रोज़ किसी न किसी रूप जैसे मसालों, सौंदर्य वस्तुएं, दवाओं इत्यादि में किया जाता है . इसकी मांग बाजार में साल के 12 महीने बनी रहती है . भारत  वैश्विक उत्पादन का 80% हल्दी अकेले उत्पादित करता है और निर्यात में भी इसकी अग्रणी भूमिका  है .  आंध्र प्रदेश राज्य में  हल्दी  की MSP 7000 प्रति क्विंटल है, जो की हल्दी के किसानो एक निश्चित आये का श्रोत प्रदान करती है . द हिन्दू के एक लेख के अनुसार 2023-24 में हल्दी की मांग आपूर्ति से अधिक पाई गयी है . अतः यह फसल किसानो की कमाई का एक भरोसे योग्य साधन हो सकता है . इसके अतिरिक्त हल्दी का विपणन मूल्य वर्धन कर किये जाने पर यह किसानो को 10 से 100 गुना तक अधिक आये प्रदान कर सकता है .

सरकारी योजनायें और सब्सिडी

सरकार ने हल्दी किसानों को समर्थन देने और हल्दी उद्योग के विकास को बढ़ावा देने के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं:

नेशनल मिशन ऑन आयल सीड एंड आयल पाम (एनएमओओपी): हल्दी किसानों को खेती, प्रसंस्करण और विपणन के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करती है.

मिशन फ़ॉर इंटीग्रेटेड डेवलपमेंट ऑफ़ हॉर्टिकल्चर (एमआईडीएच): हल्दी की खेती, प्रसंस्करण और विपणन के लिए बुनियादी ढांचे के लिए सब्सिडी प्रदान करता है.

राष्ट्रीय बागवानी मिशन (एनएचएम): हल्दी की खेती, प्रसंस्करण और विपणन के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करता है.

प्रधानमंत्री किसान संपदा योजना (पीएमकेएसवाई): हल्दी प्रसंस्करण और मूल्य संवर्धन का समर्थन करता है.

कृषि विपणन बुनियादी ढांचा (एएमआई) योजना: हल्दी के लिए आधुनिक विपणन बुनियादी ढांचे के निर्माण में मदद करती है.

निर्यात प्रोत्साहन योजना: हल्दी निर्यात को प्रोत्साहित करने के लिए वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करती है.

जैविक खेती योजना: जैविक हल्दी खेती को बढ़ावा देने के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करती है.

मृदा स्वास्थ्य कार्ड योजना: हल्दी किसानों को मृदा स्वास्थ्य और उर्वरता में सुधार करने में मदद करती है.

सिंचाई और जल संचयन योजना: हल्दी खेती के लिए सिंचाई बुनियादी ढांचे के विकास का समर्थन करती है.

कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) योजना: जो हल्दी किसानों को तकनीकी सहायता और प्रशिक्षण प्रदान करती है.

लेखक:-

अलीमुल इस्लाम
(वि० व० वि०, कृषि प्रसार कृषि विज्ञानं केंद्र, किशनगंज, बिहार
बिहार कृषि विश्वविद्यालय, साबोर, भागलपुर, बिहार)

वारिस हबीब
(अनुसन्धान सहयोगी, कृषि विज्ञानं केंद्र, किशनगंज, बिहार)

English Summary: Complete solution for turmeric production Published on: 27 August 2024, 11:49 AM IST

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