बिहार भारत का एक उत्तरीय राज्य है. यहां की 82% जनसंख्या गावों में निवास करती है और खेतों में काम करके अपना जीवनयापन करती है, जिससे उनकी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति नही हो पाती है. दिन प्रतिदीन राज्य की जनसंख्या तेजी से बढ़ती जा रही है परन्तु भूमि हमारे पास सीमित मात्रा में है, जिससे गांव एवम् कस्बों में खाद्यान्न, फल, सब्जी, पशु चारा आदि को लेकर काफी समस्या उत्पन्न हो रही है. इन सभी समस्याओं से परेशान होकर लोग गावों को छोड़कर शहरों की ओर अग्रसर हो रहे हैं, जहां पर उन्हें काफी कड़ी परिश्रम करने के बाद भी उचित पारिश्रमिक नहीं मिल पाता है.
इसके अलावा, हमारे पर्यावरण में भी अनेकों प्रकार के बदलाव देखने को मिल रहा है. क्योंकि, मनुष्यों के जीवनयापन के लिए खद्दान, सब्जी, पशु चारा आदि के साथ साथ इमारती लकड़ी, ईंधन, निर्माण कार्य, फर्नीचर, कृषि यंत्रों की भी आवश्यकता होती है जिसके लिए मनुष्य पूर्ण रूप से प्राकृतिक वनो पर निर्भर है. अवैध रूप से वनों की कटाई तेजी से हो रही है जोकि मनुष्य, वन्य प्राणी एवम् पर्यावरण को नकारात्त्मक रूप से प्रभवित कर रही है. हमारे बिहार राज्य में तकरीबन 8% भाग पर वन स्थित हैं. जबकि बिहार सरकार का लक्ष्य 2022 तक इसे बढ़ाकर 17% करना है जोकि राष्ट्रीय लक्ष्य (33%) से कम है.
इस विषम परिस्थिति में कृषि वानिकी ही एकमात्र ऐसा विकल्प है जिसको उचित रूप से उपयोग में लेकर सभी समस्याओं को दूर किया जा सकता है.
कृषि-वानिकी क्या है?
कृषि-वानिकी भूमि उपयोग की ऐसी पद्धति है, जिसमें एक ही भूमि पर परंपरागत कृषि फसलों के साथ-साथ आर्थिक व सामाजिक रूप से उचित पेड़ों एवम् पशुवों को क्रमबद्ध ढंग से या लगातार शामिल किया जाता है. इस कृषि प्रणाली के माध्यम से एक ही भूखंड से अनाज, फल, सब्जी, ईंधन की लकड़ी, इमारती लकड़ी और औषधि के साथ-साथ पशुओं के लिए हरा चारा भी प्राप्त किया जा सकता है. कृषि-वानिकी से भूमि की छमता का उचित उपयोग होता है.
कृषि-वानिकी के सिद्धांत
कृषि-वानिकी पद्धति को अपनाने से पहले किसान भाइयों को ये ध्यान रखना चाहिए कि कौन से पेड़ आसपास के वातावरण के अनुकूल है, सामाजिक या आर्थिक रूप से कितने उपयोगी हैं एवं उनके साथ कौन-कौन से फसल उगाए जा सकते हैं. पेड़ एवं फसल का उचित चुनाव करना चाहिए जिससे उनके बीच सौर ऊर्जा, जल, वायु एवं पोषक तत्वों के लिए प्रतिस्पर्धा कम हो. पेड़ों की टहनियों की समय-समय से कटाई करनी चाहिए ताकि फसलों पर सूर्य की रोशनी पहुंच सके. इसके लिए किसान भाइयों को वृक्षों, फसलों, मिट्टी एवं जल संबंधी कुशल ज्ञान होना आवश्यक है.
कृषि-वानिकी के शोधकर्ताओं के अध्ययन से ज्ञात है कि हमारे देश के अनेक राज्यों में यह पद्धति पारंपरिक कृषि की अपेक्षा 25 से 45 % अधिक लाभ देने में समर्थ है. इसका मुख्य कारण यह है कि बहुवर्षीय वनस्पतियों में प्रकाश-संश्लेषण की क्षमता अधिक होती है जिससे इनके साथ के फसलों को उचित सूक्ष्म जलवायु प्राप्त होता है. पेड़ों की जड़ें अधिक गहराई तक जाती हैं जिससे वे जमीन की निचली सतहों से पोषक तत्वों को ग्रहण करके उनका पुनः चक्रण करते हैं.
कई बार यह देखने को मिलता है कि बहुवर्षीय पेड़ों के बीच नमी, प्रकाश एवं पोषक तत्वों के लिए प्रतिस्पर्धा होने के कारण फसलों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है जिससे पैदावार भी घट जाती है. पेड़ों एवं फसलों का उचित चुनाव करने से प्रतिस्पर्धा कम होती है एवं उत्पादन बढ़ जाता है. कई ऐसे पेड़ होते हैं जिनमें नाइट्रोजन यौगिकीकरण की क्षमता होती है उनको कृषि वानिकी पद्धति में शामिल करने से जमीन में नाइट्रोजन की मात्रा में बढ़ोतरी होती है जिससे जमीन कि उर्वरा शक्ति बढ़ जाती है. कृषि-वानिकी, परंपरागत कृषि प्रणाली से ज्यादा महत्वपूर्ण एवं लाभदायक है, क्योंकि एक ओर जहां इस पद्धति में लगाए गए वृक्ष फल, सब्जी, लकड़ी, औषधि, पशु चारा प्रदान करने के साथ-साथ मृदा एवं जल का संरक्षण करते हैं और भूमि के क्षरण को भी रोकते हैं. वहीं दूसरी ओर फसलें भी किसान की आर्थिक स्थिति को सुधारने में मदद करती हैं. इन सबके अलावा, भी कुछ सालों के अंतराल पर पेड़ की लकड़ियों से भी आर्थिक आय प्राप्त होता है. इस प्रकार कृषि वानिकी पद्धति से भूमि की उत्पादकता में वृद्धि होती है और मनुष्य अपनी ज्यादातर जरूरतों के लिए आत्मनिर्भर हो जाता है.
कृषि वानिकी ही क्यों?
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कृषि-वानिकी पद्धति में किसानों को कम से कम हानि होने की संभावनाएं होती हैं.
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कम से कम भूमि पर अधिक से अधिक लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं.
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बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए पर्याप्त मात्रा में वर्ष भर खाद्यान्न, ईंधन, पशु चारा एवं उद्योगों के लिए कच्चे माल की आपूर्ति पर्याप्त रूप से होती रहतीं हैं.
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वनों की कम होती हुईं भूमि को बढ़ाया जा सकता हैं.
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पर्यावरण में उपस्थित अनेक प्रकार के प्रदूषित गैसों के मात्रा को कम करके मनुष्य, जीव-जन्तु एवं वन्य जीवों में संतुलन स्थापित किया जा सकता है.
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बेकार बंजर,उसर, बिहर आदि अनुपयोगी पड़ी हुईं भूमि का पेड़-पौधे लगाकर उपायोग एवं सुधार किया जा सकता है.
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कृषि-वानिकी पद्धति से मृदा-तापमान विशेषकर ग्रीष्म काल में बढ़ने से रोका जा सकता है, और शुक्ष्म जीवाणु को हानि होने से बचाकर मृदा की उर्वरता में वृद्धि लाया जा सकता है.
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किसानों के कृषि कार्यों में लगने वाले लागत कम हो जाता है.
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वनों, उद्यानों के बीच पड़ी खाली भूमि को उपयोग में लाकर लाभ प्राप्त किया जा सकता है.
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जब पौधे पूर्ण रूप से तैयार हो जाएं तो पौधों को बेच कर भी अच्छी मात्रा में लाभ कमाया जा सकता है.
बिहार के लिए उपयुक्त कृषि वानिकी पद्धति
बिहार राज्य में अनेकों प्रकार के क्षेत्र पाए जाते हैं यहां पर रेतीली दोमट मिट्टी से लेकर दोमट मिट्टी पायी जाती है, जिसे फसल व पेड़-पौधों को उगाने के लिए उपयुक्त माना जाता हैं. यहां पर कृषि वानिकी पद्धति एक अच्छी पहल हैं.
कृषि वानिकी पद्धति को उपलब्ध जलवायु, स्थल व स्थानीय किसानों की आवश्यकता की पूर्ति के अनुरूप विभिन्न भागों में वर्गीकृत किया जा सकता हैं:
पद्धति |
मिश्रण |
उदाहरण |
कृषि-वन |
लकड़ी देने वाले पेड़ + कृषि फसल |
लकड़ी देने वाले पेड़: पॉपुलर, शीशम, गमहार, मेलिया, कदम, सेमल, सागवान, अर्जुन, बबूल, सहजन, करम. फलदार वृक्ष: लीची, आम, जामुन, कटहल, अमरूद, बेर, बड़हर, बेल, आंवला, नींबू, सरिफा. कृषि फसल: गेहूं, सरसो, बाजरा, हल्दी, अनानास, राई, मूंग, उरद, ज्वार. पशु चारा: नेपियर, बर्सिम, दीनानाथ, ज्वार, लोबिया. सब्जी: आलू, गोभी वाली फसलें, मिर्च, बैगन, अदरक, लहसुन, धनिया, प्याज, भिंडी. औषधीय पौधे: सतावर, गिलोय, तुलसी, कालमेघ, अश्वगंधा, सफेद मूसली, घृतकुमरी, सदाबहार, मेथी. |
कृषि-बागवानी |
फलदार वृक्ष + कृषि फसल |
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कृषि-वन-चारगाह |
लकड़ी देने वाले पेड़ + कृषि फसल + पशु चारा |
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वन-मत्स्य पालन |
लकड़ी देने वाले/फलदार वृक्ष + मछली |
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हर्बल/ गृह उद्यान |
फलदार वृक्ष + सब्जी + औषधीय पौधे + पशु चारा |
लेखक: आशुतोष यादव, सुधीर दास, सर्वेश कुमार
कृषि विज्ञान केंद्र, सुखेत, मधुबनी-II डॉ राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय पूसा समस्तीपुर (बिहार)-848125
ईमेल: ashutosh2018bhu@gmail.com
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