कृषि रसायनों का हरित क्रांति में अतुलनीय योगदान सर्वज्ञात है लेकिन इसके पष्चात् बढ़ती हुई जनसंख्या तथा सीमित भूमि के साथ अधिक उत्पादन करने के दबाव में वर्तमान कृषि में रसायनिक खादों एवं जीवनाषियों का अधिक व अविवेकपूर्ण उपयोग हमारी मृदा, जल एवं वायु को प्रदूशित कर रहा है.
इन विशाक्त रसायनों के लगातार प्रयोग से रोगजनक फफूँद, जीवाणु, खरपतवार एवं कीड़ों में प्रतिरोधी क्षमता विकसित हो रही है और साथ ही लाभदायक सूक्ष्मजीव एवं कीटों की संख्या निरंतर घट रही है. कृषि रसायनों के अंष मृदा एवं जल में रह जाते हैं जो कि मृदा, जल एवं वायु को प्रदूशित करते हैं जिससे एक तरफ हमारी फसलों पर दुश्प्रभाव पड़ता है वहीं दूसरी तरफ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मानव एवं पशु-पक्षियों, जलीय जीवों के जीवन पर संकट उत्पन्न हो रहा है. अतः कृषि रसायनों के दुश्परिणामों से बचने के लिए हमें जैविक खाद जीवनाषी एवं जैविक खेती को बढ़ावा देना होगा साथ ही संस्तुत एवं वातावरण के लिए अपेक्षाकृत कम हानिकारक कृषि रसायनों का विवेकपूर्ण व आवष्यकतानुसार उपयोग करना चाहिए.
हरित क्रांति की सफलता से भारत जहां एक ओर खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हुआ हैं, वहीं दूसरी ओर बढ़ती हुई जनसंख्या की जरुरतों की पूर्ति करने के साथ-साथ खाद्यान्न का निर्यातक भी बन गया है. यह सब अर्जित करने में उन्नत किस्म के बीजों, खाद व उर्वरकों का प्रयोग तथा कीटनाशकों रसायनों का योगदान सर्वोपरि है. हमारे देश में 217 पेस्टीसाइड्स कृषि के लिए पंजीकृत हैं जिसमें कीटनाशक रसायनों का हिस्सा लगभग 80.5 प्रतिशत है.
इसके अतिरिक्त लगभग 15.8 प्रतिशत खरपतवारनाशी, 1.5 प्रतिशत फफूंदनाषक तथा 2.2 प्रतिशत अन्य रसायनों का इस्तेमाल किया जा रहा है. भारत में कीटनाशी रसायनों का प्रयोग (380 ग्रा0 प्रति हैक्टेयर) अन्य विकसित देशों जैसे अमेरिका (1 कि0ग्रा0 प्रति हैक्टेयर) एवं जपान (10 कि0ग्रा0 प्रति हैक्टेयर) आदि से कई गुना कम है मगर फिर भी कीटनाशक रसायनों के अवषेशों का खाद्य पदार्थ व पर्यावरण में निर्धारित सुरक्षित मात्रा से अधिक पाया जाना चिन्ता का विषय है और जबसे हमारा देष विश्व व्यापार संगठन (वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गेनाइजेषन) में शामिल हुआ है तब से कीटनाशक अवशेसों की समस्या अधिक हो गई है.
इसकी वजह है किसानों का कृषि रसायनों के बारे में पूरा ज्ञान न होना व उनके द्वारा ऐसे कीटनाशकों का प्रयोग जो कि जल्दी से विघटित नहीं होते हैं तथा रसायनों के प्रयोग व कटाई के मध्य सुरक्षित अंतराल न अपनाना है. इस दौरान अधिक मुनाफे व कम जोखिम के कारण गेहूं और धान की खेती ही अधिक लाभदायक हुई है जिससे कि खेतीय फसल चक्र पूरी तरह गड़बड़ा गया है. सही फसल चक्र से भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहती है और अधिक उपज प्राप्त होती है.
इसके अलावा मृदा में रहने वाले फफूंदे कीट तथा हानिकारक खरपतवारों का विनाश भी होता है परंतु एक जैसी खेती‘ (मोनो कल्चर) ने न केवल भूमि की उर्वरक शक्ति को कमजोर किया, जल स्तर में क्षय तथा ऊर्जा की अधिक खपत को भी बढ़ावा दिया, साथ ही फसलों में लगने वाले कीट व बीमारियों को भी अनियन्त्रित करके बढ़ाया है जिनके नियंत्रण हेतु कृषि रसायनों का प्रयोग प्रारम्भ हुआ तथा कृषि रसायनों के अंधाधुंध व असंतुलित प्रयोग ने विभिन्न प्रकार के नये रोगों को जन्म भी दिया है.
आजकल कृषि के क्षेत्र में कृषि रसायनों के अधिक प्रयोग के कारण जहां एक ओर मृदा के भौतिक, रसायनिक एवं जैविक गुणों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है वहीं दूसरी ओर इन रसायनों के प्रयोग से जल स्रोत तथा वायु भी प्रदूशित हो रही है. पृथ्वी पर विराजमान सभी जीव, पेड़ व पौधे अपनी वृद्धि एवं विकास के लिए वायु, जल तथा मिट्टी में उपस्थित पोशक तत्वों पर निर्भर होते हैं. जिससे प्रकृति में संतुलन बना रहता है. मृदा में उपस्थित इन्हीं पोशक तत्वों की संतुलित मात्रा ही एक सीमा तक फसलीय पौधों की विकृति को शोधित कर उसे प्राकृतिक रूप प्रदान करके स्वस्थ रखते हैं, लेकिन जब इन तत्वों की मात्रा आवश्यकता से अधिक बढ़ जाती है या इनमें कुछ अन्य अवांछनीय तत्वों का समावेश हो जाता है तब यह तत्व स्वयं प्रदूषित होकर अपने ऊपर आश्रित जीव तथा पेड़-पौधों के विनाश का कारण बन जाते हैं.
वर्ष 2017 में हमारे देश में सालाना कृषि रसायनों की खपत 12-13 प्रतिशत थी जिसका मूल्य लगभग $ 6.8 बिलियन है. एशिया में भारत का कृषि रसायनिक उद्योग सबसे बड़ा है व विश्व में 12वें स्थान पर है. करीबन 2 मिलियन टन प्रति वर्ष कृषि रसायनों की खपत विश्व में होती है. जिसमें भारत का अंश 3.75 प्रतिशत है. वर्तमान में करीब 15 मिलियन टन कृषि रसायनों तथा 18.4 मिलियन टन रसायनिक खादों का प्रयोग असंतुलित मात्रा में हो रहा है अधिक पैदावार लेने की होड़ में लगातार बढ़ते कृषि रसायनों के असंतुलित प्रयोग से मृदा प्रदूषण, जल प्रदूषण तथा वायु प्रदूषण के रूप में फसलों एवं जीवों के जीवन पर सीधा प्रभाव देखने को मिल रहा है.
मृदा प्रदूषण (Soil Pollution)
मृदा प्रदूषण में रसायनिक उर्वरकों जैसे अम्लीय तथा क्षारीय उर्वरकों का अधिक मात्रा में प्रयोग, रोगनाशी, कीटनाशी तथा खरपतवारनाशी रसायनों का लंबे समय तक प्रयोग, लवणीय जल से सिंचाई, मृदा में कार्बनिक पदार्थों की कमी, नमी का कम होना आदि प्रमुख कारण हैं. कृषि रसायनों के असंतुलित एवं लगातार प्रयोग से मृदा में इनके विशाक्त अवशेस बढ़ने लगते हैं जिसके कारण मृदा में प्राकृतिक रूप से उपस्थित लाभदायक जीव-जन्तुओं, फफूंद व जीवाणुओं की संख्या घटने लगती हैं फलस्वरूप मृदा की उर्वरा शक्ति कम हो जाती है.
मृदा को हवादार बनाये रखने वाले जीव जैसे केंचुएं आदि कम होने लगते हैं इसके फलस्वरुप वायु तथा जल की अवशोषण क्षमता भी कम हो जाती है तथा फसलों की जड़े उथली हो जाती है. पौधों की जडें उचित गहराई तक नहीं पहुंच पाने के कारण फसलों की उपज एवं गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है. लगातार प्रदूशित जल से सिंचाई एवं कृषि रसायनों के अधिक प्रयोग से भूमि क्षारीय हो जाती है, जिससे भूमि का पोशक संतुलन बिगड़ जाता है, जिसके कारण फसलों में मुख्य, गौण एवं सूक्ष्म पोशक तत्वों की कमी के लक्षण दिखायी देने लगते हैं. यह समस्या मुख्यतः लंबे समय से जैविक खादों के उपयोग न करने के कारण उत्पन्न होती है.
मृदा प्रदूषण की रोकथाम के लिए उर्वरकों का प्रयोग करते समय यह ध्यान होना चाहिए कि हमेशा एक ही प्रकार के उर्वरकों को खेत में नहीं डालना चाहिए. इन उर्वरकों को मृदा परीक्षण के आधार पर ही संस्तुत मात्रा में देना चाहिए. यह संस्तुत मात्रा मृदा की उपजाऊ शक्ति, सिंचित दशा, फसल की आवश्यकता तथा उस क्षेत्र की जलवायु के आधार पर की जाती है. सिंचाई के लिए जिस जल का प्रयोग करें उसकी विद्दुत चालकता तथा सोडियम अधिशोषण अनुपात फसलों के अनुरूप होना चाहिए.
जल प्रदूषण (Water Pollution)
प्रकृति में जल वितरण का एक अनोखा सूत्र पाया जाता है, जिसमें पृथ्वी का तीन चौथाई भाग जल है, जबकि इसका 97 प्रतिशत समुद्री खारा जल है. उर्वरक विशेषकर नत्रजन का अधिक उपयोग जल प्रदूषण का भी एक कारण बना है, जिससे मानव तथा पशुओं के लिए एक अतिरिक्त खतरा उत्पन्न हुआ. नत्रजन धारी उर्वरकों के अधिक मात्रा में प्रयोग से भूमिगत जल में नाइट्रेट की सांद्रता बढ़ जाती है. विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा भूमिगत जल में नाइट्रेट सांद्रता की सीमा 10 मिग्रा0/लीटर निर्धारित की गई है. जिन क्षेत्रों में भूमिगत जल में यह मात्रा 10 मिग्रा0/लीटर से अधिक बढ़ जाती है.
वहां पर बच्चों में ब्लूबेबी तथा वयस्कों को कैंसर का खतरा बढ़ जाता है. सिंचाई जल की विद्युत चालकता तथा सोडियम अधिशोषण अनुपात अधिक होने से फसलों द्वारा फॉस्फोरस, पोटेशियम, कैल्शियम तथा मैग्नीशीयम का अवशोषण कम हो जाता है. आजकल फसलों में विशेषकर सब्जियों में म्युनिसिपल जल का प्रयोग किया जा रहा है.
इस जल में सूक्ष्म पोशक तत्वों जैसे जिंक, कॉपर, लोहा, मैग्नीज तथा विशैले भारी तत्वों जैसे कैडमियम, लैड, निकिल व क्रोमियम आदि की मात्रा अधिक होती है जो कि फसलों के लिए घातक होते हैं. प्रायः यह देखा गया है कि जिन खेतों में कीटनाशी रसायनों का प्रयोग अधिक मात्रा में होता है उनके आसपास की नदियों में रहने वाले जीवों जैसे केकडे़, मछली आदि की मृत्यु हो जाती है. कृषि रसायनों की मौजूदगी कई वर्षों तक जमीन में विद्यमान रहती है जो कि मृदा तथा जल दोनों को प्रदूषित करते हैं. इनके कुप्रभाव से मनुष्यों में स्तन कैंसर, प्रजनन क्षमता में कमी व यकृत में विशाक्तता आदि लक्षण/दुश्प्रभाव देखे गये हैं.
जल प्रदूषण के निराकरण के लिए आवश्यक है कि इस समस्या के मूल कारकों को नियंत्रित किया जाये. गंदे पानी के प्रवाह को नदियों व नालों में नहीं मिलाना चाहिए. प्रदूषित जल से फसलों की सिंचाई नहीं करनी चाहिए बल्कि सिंचाई पूर्व जल का उपचार करना अति आवश्यक है. म्यूनिसिपल जल से सिंचाई हेतु उसके वैशिक तत्वों की सांद्रता तथा बायोलोजिकल ऑक्सीजन डिमांड को कम करना चाहिए. यद्दपी यह प्रक्रिया कृषकों द्वारा नहीं की जा सकती, परंतु बड़े शहरों में नगरपालिका द्वारा अपने स्तर से जल शोधन संयंत्र लगाकर जल शोधित किया जा सकता है, जो कि फसलों में सिंचाई हेतु प्रयोग किया जा सकता है. लवणीय जल के उपचार के लिए इसको अच्छी गुणवत्ता वाले जल से तनुकरण करके प्रयोग करना चाहिए. सिंचाई के जल में सोडियम अधिशोषण अनुपात को कम करने के लिए जिप्सम डालकर प्रयोग किये गये हैं, जिससे पानी में कैल्शियम की मात्रा तथा विद्युत चालकता बढ़ जाती है.
वायु प्रदूषण (Air Pollution)
वायुमंडल में पाये जाने वाली गैसें एक निश्चित मात्रा एवं अनुपात में होती हैं, परंतु जब वायु के अवयवों में अवांछित तत्व प्रवेश कर जाते हैं तो उसका मौलिक संतुलन बिगड़ जाता है. कृषि में उपयोग होने वाले विभिन्न रसायन किसी न किसी रूप में वायु प्रदूषण को बढ़ाने में सहायक हैं जिसका फसलों तथा जीवों पर घातक प्रभाव पड़ता है. वायु प्रदूषण का प्रभाव ओजोन, सल्फर डाई आक्साइड, कार्बन मोनो आक्साइड, नाइट्रोजन, हाइड्रोकार्बन और अन्य अनेक प्रकार की विशैले पदार्थों के कारण होता है.
नत्रजनधारी उर्वरकों के अधिक मात्रा में प्रयोग से पर्यावरण में नाइट्रिक ऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड तथा नाइट्रोजन डाइ ऑक्साइड आदि गैसों का उत्सर्जन होता है. इन उर्वरकों को लगातार प्रयोग से अमोनिया गैस भी उत्सर्जित होती है जो अम्लीय वर्षा का कारण है. अम्लीय वर्षा का जल जब भूमि पर गिरता है तो भूमि में उपस्थित खनिजों से एल्यूमिनियम की घुलनशीलता बढ़ जाती है जो नदियों एवं झीलों को प्रदूशित कर जंतुओं एवं पौधों को प्रभावित करते हैं.
वायु प्रदूषण के निराकरण के लिए अधिक मात्रा में उत्पन्न होने वाले इन जहरीले तत्वों का नियंत्रण करना आवश्यक है. यह तभी संभव है जब इनकी उत्पत्ति के कारणों में कमी आए. वायु प्रदूषण से फसल की क्षति को रोकने के लिए दीर्घकालीन उपायों में फसलों में से वायु प्रदूषण रोधी क्षमता का विकास करना मुख्य है. अंत में सभी पहलुओं पर विचार करने से यह निष्कर्ष निकलता है कि कृषि रसायनों के असंतुलित प्रयोग से पर्यावरण तथा कृषि दोनों ही प्रभावित होते हैं. अतः खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि के साथ-साथ मृदा उर्वरता को लंबे समय तक बनाये रखने के लिए पर्यावरण की सुरक्षा एवं कृषि लागत को घटाने के लिए इन रसायनों का प्रयोग संस्तुत एवं संतुलित मात्रा में करना चाहिए. उर्वरकों एवं खादों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए. दीर्घकाल तक मृदा उर्वरता को बनाये रखने के लिए जैविक खाद, जैविक जीवनाशी तथा जैविक खेती के माध्यम से वैज्ञानिक तकनीक आधारित प्राकृतिक संसाधनों का सदुपयोग करना चाहिए.
आधुनिक कृषि में कृषि-रसायनों का उपयोग एवं उनके अवशेषों को कम करने के उपाय :- यह प्रायः दो तरीकों से किया जा सकता है, पहला तो ऐसे उपाय अपनाए जाएं कि जिससे फसलों में कृषि-रसायनों का उपयोग घटाया जा सके एवं फसलों पर अवशेस बचे ही नहीं तथा दूसरे उपाय जिसके द्वारा फसल उत्पादों में अवशेषों को किसी विधि से कम किया जा सके.
खड़ी फसलों में कृषि-रसायनों का उपयोग एवं उनके अवशेस घटाने के उपाय
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फसलों पर कृषि-रसायनों का उपयोग घटाने के उपायः- खेत में फसलों पर कीटों तथा बीमारियों की वास्तविक स्थिति को जाने बिना कीटनाषकों या फफूंदनाषक का प्रयोग न करें. ऐसा करने से जहां एक तरफ कीटों की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है फलस्वरूप अधिक मात्रा में कृषि-रसायनों का उपयोग करना पड़ता है, वहीं दूसरी ओर कीटनाशी रसायनों के अवशेस की समस्या भी बनी रहती है.
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सुरक्षित अन्तराल को अपनानाः- कृषि-रसायनों के फसल पर हानिकारक अवशेषों के दुश्परिणाम से बचाव हेतु विभिन्न फसलों पर अथवा फल व सब्जी आदि के लिए निर्धारित सुरक्षित अंतराल होता है. इस अंतराल का पालन करना अत्यन्त ही आवश्यक है.
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यहां सबसे जरूरी बात है कि रसायनों की सिफारिश की गई मात्रा का ही प्रयोग करें.
फसल उत्पाद में कृषि-रसायनों के अवशेस कम करने के उपाय
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धोने सेः- खाने से पूर्व खाद्य पदार्थों को जहां तक संभव हो सके बहते पानी में अच्छी प्रकार धो लेना चाहिए. सादे पानी में धोने से 20-40 प्रतिशत ऑर्गेनोक्लोरीन, 26-31 प्रतिशत सिंथेटिक पाइरेथ्रोईड तथा 50-70 प्रतिशत ऑर्गेनोफॉस्फेट रसायनों की मात्रा को सब्जियों जैसे गोभी, भिण्डी व बैंगन में से कम किया जा सकता है.
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पकाने सेः- जहां तक संभव हो खाद्य पदार्थों को पका कर खाएं. ऐसा करने से अवशेस की मात्रा के असर को काफी कम किया जा सकता है. सब्जियों को पकाने पर 32-61 प्रतिशत ऑर्गेनोक्लोरीन, 37-42 प्रतिशत सिंथेटिक पाइरेथ्रोईड तथा 100 प्रतिशत ऑर्गेनोफॉस्फेट रसायनों की मात्रा को कम कर सकते हैं.
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छीलने सेः- यह विधि फल व सब्जियों के लिए अधिक उपयुक्त व सरल है तथा 35 से 100 प्रतिशत अवशेस को कम करने में सहायक हैं. यहां पर यह कहना सर्वथा उचित होगा कि यदि सावधानीपूर्वक कीटनाशक रसायनों का प्रयोग किया जाए तथा खाने से पूर्व धोने, छीलने व पकाने की प्रक्रिया को प्रयोग में लाया जाए तो एक तरफ से पर्यावरण को हानिकारक रसायनों के दुश्प्रभाव से बचाया जा सकता है और दूसरी तरफ भरपूर स्वस्थ जीवन व्यतीत किया जा सकता है.
अंतः कृषि रसायनों के दुश्परिणामों से बचने के लिए एक तरफ तो हमें जैविक खाद/जीवनाशी एवं जैविक खेती को बढ़ावा देना होगा साथ ही संस्तुत एवं वातावरण के लिए अपेक्षाकृत कम हानिकारक कृषि रसायनों का विवेकपूर्ण आवश्यकतानुसार उपयोग करना चाहिए.
लेखक:
शिल्पी रावत1, गीता शर्मा2 एवं के०के० शर्मा3
1सह प्राध्यापक, 2कनिष्ठ शोध अधिकारी, पादप रोग विज्ञान विभाग, कृषि महाविद्यालय गो0ब0प0वि0वि0, पन्तनगर,
3वैज्ञानिक, पादप रोग विज्ञानद्ध, क्षेत्रीय अनुसंधान केन्द्र (पी0ए0यू0), बल्लोवाल सोंख्रड़ी, बलाचौर, पंजाब
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