भारत के कृषि श्रमिकों के मध्य विभिन्न प्रकार की समस्याएं विद्यमान होती है. कृषि मजदूर गंदगी वह कीचड़ में दिन बीतते हैं. वह भूखे पेट कार्यकर्ता है. उनसे आंधी, बारिश और धूप में भी अपना कार्य जारी रखना होता है. वह हमारे लिए चावल उत्पन्न करता है, परन्तु खुद भूखा रहता है. वह हमारी दुधारू गायों को खिलाता है. परन्तु उसे कांजी वह पानी के अतिरिक्त कभी कुछ नहीं मिलता. वह हमारे गोदाम को अनाजों से भरता है, परंतु वर्ष भर प्रतिदिन का राशन मांगता है. वह उनके लिए निरंतर लकड़ी काटता है और पानी भरता है जो उसके श्रम पर आमिर हुए हैं. उसकी दशा दिल बहलाने वाली एक सोचनीय कहानी है. उक्त कथा कृषि मजदूरों की समस्या को स्पष्ट करता है. उसकी समस्याएं निम्न रूप से इस प्रकार है.
अधिकांश कृषि मजदूर पिछड़ी जातियों के हैं, जिनका सदियों से शोषण किया गया है, जिसके कारण इनका सामाजिक स्तर नीचे रहता है. नियोजन काल के दौरान कृषि के क्षेत्र में तकनीकी का व्यापक विकास हुआ कृषि में मशीनों का प्रयोग बढ़ जाने के कारण कृषि श्रमिकों में भारी मात्रा में बेरोजगारी बढ़ रही है, जो उनकी एक गंभीर समस्या है.
कृषि मजूदरों के सामने आती हैं कई परेशानियां
यह स्पष्ट हो गया है कि कृषि मजदूरों के सामने काफी विकेट समस्याएं हैं, जिनका समाधान आवश्यक है, इस संदर्भ में योजना आयोग ने कहा है कि, "कृषि श्रमिकों की समस्याएं हमारे लिए एक चुनौती है और इन समस्याओं को समुचित समाधान खोजने की उत्तरदायित्व संपूर्ण समाज पर है "
अपनी जरूरत को पूरा करने के लिए मजदूरों की औरतें और उनके बच्चे भी मजबूरन कार्य करते हैं. स्त्री व बाल श्रमिकों से अधिक घंटे काम कराकर उन्हें कम मजदूरी दी जाती है. अतः बाल श्रम व स्त्री श्रम का शोषण कृषि क्षेत्र की प्रमुख समस्या है.
ज्यादातर कृषि मजदूर निम्न जाति के और भूमिहीन है. निम्न सामाजिक स्थिति के कारण इनके साथ मूक हांके गए पशुओं के समान व्यवहार किया जाता है. बड़े-बड़े भू- स्वामी इसे मध्यकालीन दासों की तरह काम लेते हैं. इनसे बेगार ली जाती है और मजदूरी के नाम पर बहुत कम धनराशि दी जाती है.
भूमि श्रमिकों का अपना निजी मकान नहीं होता है. वह स्वामी की अनुमति से उसकी बेकार भूमि पर झोपड़ी बनाकर रहते हैं. इसके बदले में उन्हें भू स्वामी के यहां बेगारी करनी पड़ती है. एक ही झोपड़ी में अनेक व्यक्तियों के रहने से शारीरिक, सामाजिक, नैतिक व धार्मिक मर्यादा समाप्त हो जाती है.
भारतीय कृषि मजदूरों का कोई विशेष संगठन नहीं है. इसलिए भू - स्वामियों से अपनी मजदूरी आदि के संबंध में सौदा करने में असमर्थ रहते हैं.
गांव में सहायक धंधों का अभाव है. यदि बाड़, अकाल आदि के कारण फसल नष्ट हो जाए तो कृषि श्रमिकों को जीवन निर्वाह करना भी कठिन हो जाता है.
कृषि श्रमिकों को पूरे साल लगातार काम नहीं मिल पाता है. द्वितीय कृषि जांच समिति के अनुसार एक अस्थाई पुरुष श्रमिक को वर्ष में औसतन 197 दिन का काम मिलता है जिसमें 40 दिन वह अपना काम करता है और 128 दिन बेकार रहता है, इसी प्रकार बालकों को वर्ष में 204 दिन, स्त्रियों को 141 दिन रोजगार प्राप्त होता है. अतः उसकी वार्षिक आय का औसत काम रहता है.
कृषि मजदूरों के कार्य करने का समय अनिश्चित रहता है अर्थात इनके घंटे और अनियमित ही नहीं वरन् अधिक भी होते हैं. उन्हें सुबह से देर रात तक कार्य करना पड़ता है. फसल मौसम तथा कार्य के अनुसार इसके कार्य करने के समय में परिवर्तन होता रहता है.
भारतीय मजदूर की मजदूरी का स्तर औद्योगिक श्रमिकों की मजदूरी से बहुत कम है. इसके दो कारण है. भूमिहीन मजदूरों की संख्या में वृद्धि एवं ग्रामीण क्षेत्रों में गैर कृषि व्यवस्थाओं का अभाव. कम मजदूरी का उसके स्वास्थ्य और कार्य क्षमता पर बुरा अभाव पड़ता है.
आवश्यकता अनुसार आए न हो पाने के कारण श्रमिक पर कर्ज का भार बढ़ता जा रहा है. कर्ज के कारण भू स्वामी के साथ मजदूरी के लिए वह सौदेबाजी में संकोच करता है. श्रमिक जीवन भर भू स्वामी के यहां मजदूरी करने के बाद भी ऋण मुक्ति नहीं होते.
रबीन्द्रनाथ चौबे, ब्यूरो चीफ, कृषि जागरण, बलिया, उत्तर प्रदेश
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