
Neelgai Crop Protection: भारत के कई राज्यों, विशेषकर उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्यप्रदेश के किसानों के लिए नीलगाय (जिसे स्थानीय भाषा में घड़रोज भी कहा जाता है) आज एक गंभीर समस्या बन चुकी है. नीलगाय की संख्या में वृद्धि, जंगलों और झाड़ियों का कम होना और फसलों के खेतों में उनकी घुसपैठ ने कृषि उत्पादन पर भारी असर डाला है. यह समस्या विशेष रूप से उद्यानिकी फसलों (जैसे केला, पपीता, आम, अमरूद आदि) के लिए और भी ज्यादा गंभीर हो जाती है क्योंकि ये फसलें नीलगाय की पसंदीदा होती हैं.
नीलगाय के कारण किसानों को सालाना हजारों-लाखों रुपये की आर्थिक क्षति होती है. इसका समाधान इसलिए जटिल है क्योंकि नीलगाय को धार्मिक आस्था के कारण गोवंश माना जाता है और इनका वध वर्जित है. ऐसे में न तो इन्हें मारा जा सकता है और न ही इन्हें नियंत्रित करने के लिए सरकारी स्तर पर कोई ठोस व्यवस्था दिखाई देती है.
एक व्यावहारिक, सस्ता और असरदार समाधान
समस्तीपुर जिले के पटोरी प्रखंड के रहने वाले प्रगतिशील किसान सुधीर शाह ने नीलगाय से फसलों को बचाने का एक बेहद सरल, सस्ता और प्रभावशाली तरीका विकसित किया है, जो न केवल लागत में कम है, बल्कि स्थानीय संसाधनों पर आधारित होने के कारण हर किसान के लिए आसानी से अपनाने योग्य है.
इस विधि में लगने वाली सामग्री और लागत
- सड़े हुए दो अंडे (जो घर में खराब हो चुके हों)
- 15 लीटर पानी
- एक प्लास्टिक बाल्टी या ड्रम
प्रक्रिया
दो सड़े अंडों को 15 लीटर पानी में अच्छी तरह मिलाएं. इस मिश्रण को ढककर किसी छायादार स्थान पर 5 से 10 दिनों तक ऐसे ही छोड़ दें ताकि उसमें तीव्र दुर्गंध उत्पन्न हो जाए. तैयार घोल को प्रत्येक 15 दिन पर खेत की मेड़ों, विशेषकर उस दिशा में जहाँ से नीलगाय प्रवेश करती है, वहाँ ज़मीन पर छिड़कें. ध्यान रखें कि यह घोल फसल के पौधों पर न लगाया जाए, केवल जमीन पर ही इसका प्रयोग करें.
वैज्ञानिक आधार
नीलगाय एक सख्त शाकाहारी प्राणी है जिसे किसी भी प्रकार की सड़ी हुई या दुर्गंधयुक्त वस्तुएं अत्यंत अप्रिय लगती हैं. सड़े अंडे की तीव्र गंध नीलगाय को खेतों के पास आने से रोकती है. इस गंध से केवल नीलगाय ही नहीं, बल्कि बंदर जैसे अन्य वन्य प्राणी भी खेतों से दूर रहते हैं. यह घोल एक प्राकृतिक रिपेलेंट (Repellent) के रूप में कार्य करता है.
बुंद-बुंद उपाय, बड़ा परिणाम: केला की फसल की रक्षा का उदाहरण
अखिल भारतीय समन्वित अनुसंधान परियोजना (फल) के अंतर्गत हमने केला की फसल को नीलगाय से बचाने के लिए सुधीर शाह की तकनीक का प्रयोग किया. हमने देखा कि नीलगाय विशेष रूप से केला के बंच (घरो का गुच्छा) को नष्ट कर देती है, जिससे किसान को भारी नुकसान होता है.
- इस समस्या के समाधान के लिए दोहरी तकनीक अपनाई गई
- सड़े अंडे के घोल का छिड़काव खेत की मेड़ों पर किया गया.
- केले के बंच को मोटे काले पॉलीथिन से ढक दिया गया जिससे नीलगाय उसे देख न सके और उसका आकर्षण कम हो जाए.
- इस संयोजन से नीलगाय के नुकसान से फसल को पूरी तरह बचाया जा सका.
क्यों अपनाएं यह तरीका?
- कम लागत: सिर्फ 10 रुपये में यह उपाय संभव है.
- स्थानीय संसाधनों का उपयोग: किसी बाहरी संसाधन या केमिकल की आवश्यकता नहीं.
- प्राकृतिक और सुरक्षित: फसलों पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता.
- अन्य जानवरों के लिए भी उपयोगी: बंदर जैसे फसल नुकसान पहुंचाने वाले जानवरों से भी सुरक्षा मिलती है.
- आसान और सुलभ: कोई विशेष प्रशिक्षण या तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता नहीं.
अन्य सावधानियां और सुझाव
- घोल को अधिक दिनों तक रखने पर उसकी गंध तीव्र होती जाती है, जिससे उसका असर और भी ज्यादा बढ़ जाता है.
- खेत के चारों ओर इसकी निरंतरता बनाए रखें, ताकि कोई खाली हिस्सा न छूटे जिससे जानवर प्रवेश कर सके.
- वर्षा के मौसम में दोबारा छिड़काव करना आवश्यक हो जाता है, क्योंकि पानी से घोल का असर कम हो सकता है.
सारांश: सामूहिक प्रयासों से ही समाधान संभव
नीलगाय की समस्या से निपटने के लिए सरकारी योजनाओं की आवश्यकता तो है ही, लेकिन जब तक कोई ठोस नीति नहीं बनती, तब तक किसानों को स्वयं भी पहल करनी होगी. सुधीर शाह जैसे नवाचार करने वाले किसानों की तकनीकें आज किसानों के लिए आशा की किरण बन रही हैं.
इस विधि को अधिक से अधिक किसानों तक पहुंचाना जरूरी है ताकि वे भी अपनी मेहनत की कमाई और फसलों की रक्षा कर सकें. यह तकनीक न केवल सस्ती और प्रभावशाली है, बल्कि भारत जैसे कृषि प्रधान देश में किसानों की आत्मनिर्भरता को भी बढ़ावा देती है.
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