खस भारत में प्राचीनकाल से ज्ञात है। खस यानी वेटीवर (VETIVER)। यह एक प्रकार की झाड़ीनुमा घास है, जो केरल व अन्य दक्षिण भारतीय प्रांतों में उगाई जाती है। वेटीवर तमिल शब्द है। दुनिया भर में यह घास अब इसी नाम से जानी जाती है। हालांकि उत्तरी और पश्चिमी भारत में इसके लिए खस शब्द का इस्तेमाल ही होता है। इसे खस-खस, KHUS, CUSCUS आदि नामों से भी जाना जाता है।
इस घास की ऊपर की पत्तियों को काट दिया जाता है और नीचे की जड़ से खस के परदे तैयार किए जाते हैं। बताते हैं कि इसके करीब 75 प्रभेद हैं, जिनमें भारत में वेटीवेरिया जाईजेनियोडीज (VETIVERIA ZIZANIOIDES) अधिक उगाया जाता है।
भूमि संरक्षण :
खस का वैज्ञानिक नाम ‘वेटिवर जिजेनिआयडीज’ है, जिसका शाब्दिक अर्थ है, वेटिवर यानी ‘‘जड़ जो खोदी जाए’’ एवं जिजेनिआयडीज का अर्थ है नदी के किनारे। इस प्रकार यह पानी के किनारे मिलने वाली घास है। यह घास हरियाणा, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, गुजरात, बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश एवं सम्पूर्ण दक्षिणी भारत में स्वजात उगती पाई जाती है।
राजस्थान के भरतपुर व अजमेर जिले में, उत्तरप्रदेश के इटावा, आगरा, देहरादून आदि क्षेत्रों में, छत्तीसगढ़ के बिलासपुर, मध्यप्रदेश के व कटनी इलाकों में, हरियाणा के हिसार, गुड़गांव, रोहतक व करनाल जिलों में व बिहार के घौटा नागपुर क्षेत्र में यह खूब पैदा होती है। इसकी दो जातियां पाई जाती हैं-
(1) जंगली जाति: जो उत्तर भारत में होती है तथा इसमें नियमित पुष्पन एवं बीजापन होता है तथा यह नियंत्रित न करने पर यहा खरपतवार के रूप में फैल जाती है।
(2) देशी या आन्तरिक जाति: यह दक्षिण भारत में होती है तथा इसमें पुष्पन व बीजान नहीं होता है। यह मुख्यतः मृदा अपरदन रोकने के काम आती है।
खस की खेती :
यह हर प्रकार की मिट्टी में पैदा होता है तथा यह घास 100-200 सेंटीमीटर वार्षिक वर्षा एवं 21 डिग्री सेंटीग्रेड से 45 डिग्री सेंटीग्रेड तक वाले क्षेत्रों में प्रचुर मात्रा में पैदा होती है। इनकी जड़ें विशेष महत्व की होती हैं। इसकी खेती हेतु वर्षा होने पर जमीन को साफ करने के बाद गहरी जुताई की जाती है तथा तत्पश्चात् घास के पुंजों से प्ररोहों को अलग करके प्रकदों को बिना तोड़े 15-20 सेंटीमीटर ऊॅंची व 50-60 सेंटीमीटर चैड़ी क्यारियों में 30-50 सेंटीमीटर का अंतर रखते हुए बुवाई की जाती है। रोपण मई से अगस्त तक किया जा सकता है।
रोपण के बाद निराई करके पौधों पर मिट्टी अच्छी तरह दबाकर समतल कर दी जाती है। एक हेक्टेयर में 1.50 से 2.25 लाख प्ररोहों की आवश्यकता होती है।
रोपण के करीब एक माह बाद कूड़ा-कर्कट, राख एवं कम्पोस्ट की खाद देने से जड़ों की उपज बढ़ती है। खस में वर्षा ऋतु में फ्यूजेरियम एवं अन्य कवक आक्रमण करते हैं, जिन्हें ताम्रयुक्त कवकनाशी का 0.3 प्रतिशत घोल के छिड़काव कर दूर कर सकते हैं। खस की फसल होलोट्राइक्रिया सिरेंटा के लार्वों से भी प्रभावित हो सकती है तथा इसकी जानवरों द्वारा चराई से सुरक्षा भी जरूरी है।
उपज :
इसकी कटाई 10-12 माह की आयु में विभिन्न वस्तुओं के निर्माण हेतु तथा 15-18 माह बाद जड़ों से तेल के निष्कर्षण हेतु की जाती है। साधरणतः फसल की कटाई वर्ष के शुष्क महीनों में की जाती है, क्योंकि इस समय तेल की मात्रा एवं गुणवत्ता सर्वाधिक होती है।
फसल लेने हेतु पौधों को 15-20 सेंटीमीटर की ऊॅंचाई तक काटकर फिर गुच्छों से जड़ें एकत्र की जाती हैं, जिन्हें लट्ठों पर पीटकर चाकू से जड़ें अलग कर लेते हैं। प्रति हेक्टेयर औसतन 400-600 किलोग्राम ताजी जड़ें प्राप्त की जा सकती हैं।
खस का तेल :
इसकी जड़ों में सुगन्ध होती है तथा इनसे तेल निकाला जाता है। खस का तेल इत्र उद्योग का प्रमुख कच्चा पदार्थ है। उसका सुगंधित प्रसाधन सामग्री एवं साबुन को सुगंधित बनाने में होता है। यह उद्दीपक, स्वेदनकारी एवं शीतलक माना जाता है तथा आमवात, कटिवेदना व मोच में इसकी मालिख करने से राहत मिलती है।
मध्यप्रदेश में इसे बच्चों के लिए कृमिनाशक के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। इसकी सुखई हुई जड़ें लिनन व कपड़ों में सुगंध हेतु प्रयुक्त की जाती है। प्राचीनकाल से ही इसकी जड़ें चिके, चटाईया, हाथ के पंखों, टोकरियों, मकानों की टट्टिया आदि में प्रयुक्त होती है। इसकी हरी पत्तिया पशु एवं भेड़ें आदि खाते हैं।
खस घास भूमि :
संरक्षण हेतु श्रेष्ठ व उपयुक्त है तथा अनावृष्टि, बाढ़ आदि से प्रभावित नहीं होती है। इसको पानी या पोषकों की विशेष आवश्यकता होती है तथा इसका पौधा काफी बड़ा होता है। इसकी मूल पर तनों का गुच्छा करीब एक मीटर तक चैड़ा हो जाता है तथा आसानी से नहीं उखड़ता है।
इसका तेल आधुनिक युग में मक्खियों व तिलचट्टों को भगाने में तथा कीट प्रतिकर्षी में एक महत्वपूर्ण संघटक के रूप में हो सकता है। आज जब विकासशील देशों के लिए भूमि अपरदन एक दीर्घकालिक, प्राकृतिक एवं आर्थिक समस्या है, खस घास उपयुक्त हो सकती है, साथ ही इसकी खेती से आर्थिक लाभ भी अर्जित कर सकते हैं।
खस की खेती में फायदा :
खस का उपयोग बहुत से रसायनों, दवाइयां, इत्र-सेंट, साबुन, सौन्दर्य प्रसाधन आदि बनाने में किया जाता है. खस के इत्र की मुस्लिम देशों में तो खासी डिमांड है. विश्व के कई अन्य देशों में भी दवाइयाँ, परफ्यूम बनाने वाली कम्पनियों को इसका निर्यात किया जाता है.
जैसा कि आप लोग जानते ही है आजकल लोग आयुर्वेदिक दवाइयों, औषधियों के उपयोग को प्राथमिकता देने लगे हैं. बाबा रामदेव के पतंजलि ब्रांड खस शर्बत व अन्य दवाइयों में भी खस का प्रयोग किया जाता है. इसके अतिरिक्त भारत की कई आयुर्वेदिक, फ़ूड, कॉस्मेटिक कम्पनियाँ खस का तेल खरीदती हैं.
खस के एक लीटर तेल की कीमत 20,000-22,000 रुपये होती है. कम लागत अधिक फायदा वाली इस फसल से किसान डेढ़ साल में प्रति हेक्टेयर औसतन 4,00,000/-रुपये कमा रहे हैं.
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