स्थानीय स्तर पर इसे बेलगिरी, बेलपत्र, बेलकाठ या कैथा के नाम से जाना जाता है.बेल का फल विभिन्न प्रकार की बीमारियों की रोकथाम और स्वास्थ को बढ़ावा देने के लाभ के लिए औषधी के रूप में उपयोग में लिया जाता है.
इसके फल में विभिन्न प्रकार के एल्कलाइड, सेपोनिन्स, फ्लेवोनाइड्स, फिनोल्स व कई तरह के फाइटोकेमिकल्स पाये जाते हैं. बेल के फल के गूदे (Pulp) में अत्यधिक ऊर्जा, प्रोटीन, फाइबर, विभिन्न प्रकार के विटामिन व खनिज और एक उदारवादी एंटीआक्सीडेंट पाया जाता है.
इसके साथ ही इसमें विभिन्न प्रकार के जीवाणुओं के खिलाफ अच्छा जीवाणुरोधी गतिविधि पाई जाती है. बेल इतना सहिष्णु पौधा होता है कि हर एक प्रकार की जलवायु में भली-भांति उग जाता है. समुद्रतट से 700-800 मीटर ऊंचाई तक के प्रदेषों में इसके पौधे हरे-भरे पाए जाते है. विषेषतः यह शुष्क जलवायु के लिए अधिक उपयुक्त होता है. इसमें पाले को सहन करने की क्षमता इतनी अधिक होती है कि 5-7 डिग्री सेन्टीग्रेट तक के न्यूनतम तापक्रम का इस पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता. अच्छी पैदावार के लिए उपजाऊ दोमट मिट्टी अधिक उपयुक्त होती है. नीची जमीन में पानी के निकास की अच्छी व्यवस्था होनी चाहिए. बंजर एवं उसर भूमि जिसका पी.एच. मान 8.0 से 8.5 तक हो, में बेल की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है.
उन्नत किस्में
नरेन्द्र बेल-5
इस प्रजाति के पौधों की ऊँचाई मध्यम होती है. फलत 4-5 वर्ष बाद आरम्भ हो जाती है. फलों का आकार गोल लगभग (14 × 14 सेमी), औसत भार 1.5 से 2.0 किलोग्राम तथा छिलका पतला (1.5 मिमी) होता है. सात वर्ष पर प्रति वृक्ष औसत फलों की संख्या 35-40 व उत्पादन 50-60 किलोग्राम/वृक्ष होता है. फल में कुल ठोस घुलनषील पदार्थ 41 प्रतिषत तथा फलों के फटने की समस्या कम होती है.
नरेन्द्र बेल-9
इस प्रजाति के पौधों की ऊँचांई कम से मध्यम होती है. फलत 4-5 वर्ष बाद आरम्भ हो जाती है. फलों का आकार नाशपाती जैसा लम्बोतरा गोल (19.0 × 21.0 सेमी), औसत भार 1.5 से 2.0 किलोग्राम तथा छिलका मध्यम मोटाई (2.3 मिमी) का होता है. सात वर्ष की उम्र पर प्रति वृक्ष औसत फलों की संख्या 25-30 व उत्पादन 45-50 किलोग्राम/वृक्ष. फल में कुल ठोस घुलनषील पदार्थ 38 प्रतिषत व फल फटने की समस्या कम है.
प्रवर्धन
बेल का प्रवर्धन साधारणतया बीज द्वारा ही किया जाता है. प्रवर्धन की इस विधि से पौधों में विभिन्नता आ जाती है. बेल को वानस्पतिक प्रवर्धन से भी उगाया जा सकता है. जड़ से निकले पौधे को मूल तने से इस प्रकार अलग कर लेते हैं कि कुछ हिस्सा पौधे के साथ निकल सके इन पौधों को बसन्त में लगाने से काफी सफलता मिलती है. बेल को चष्में द्वारा भी बड़ी सरलता तथा पूर्ण सफलता के साथ उगाया जा सकता है. मई या जून के महीने में जब फल पकने लगता है, पके फल के बीजों को निकालकर तुरन्त नर्सरी में बो देना चाहिए. जब पौधा 20 सेन्टीमीटर का हो जाए तो उसे दूसरी क्यारियों में 30 सेन्टीमीटर दूरी पर बदल देना चाहिए. दो वर्ष के पश्चात् पौधों पर चष्मा बांधा जाता है. मई से जुलाई तक चष्मा बांधने में सफलता अधिक प्राप्त होती है.
चष्मा बांधने के लिए उस पेड़ की जिसकी कि कलम लेना चाहते हैं, स्वस्थ तथा कांटों से रहित अधपकी टहनी से आंख का चुनाव करना चाहिए, टहनी से 2-3 सेन्टीमीटर के आकार का छिलका आंख के साथ निकालकर दो वर्ष पुराने बीजू पौधे के तने पर 10-12 सेन्टीमीटर ऊंचाई पर इसी प्रकार के हटाये हुए छिलके के खाली स्थान पर बैठा देना चाहिए. फिर इस पर अलकाथीन की 1 सेन्टीमीटर चैड़ी तथा 20 सेन्टीमीटर लम्बी पट्टी से कसकर बांध देना चाहिए. इस क्रिया के 15 दिन बाद बंधे हुए चष्मों के 8 सेन्टीमीटर ऊपर से बीजू पौधे के शीर्ष भाग को काटकर अलग कर देना चाहिए. जिससे आंख से कली शीघ्र निकल आए. चष्मा बांधने के बाद जब तक कली 12 से 15 सेन्टीमीटर की न हो जाए उनकी क्यारियों को हमेषा नमी से तर रखना चाहिए जिससे कली सूखने न पाए.
रोपण
बेल के पौधों का रोपण वर्षा के प्रारम्भिक महीनों से करना चाहिए क्योंकि इन महीनों में नमी होने के कारण नर्सरी से उखाड़े गए पौधे आसानी से लग जाते हैं. उद्यान में बेल के पौधों का स्थाई रोपण करने के लिए गड्ढों को गर्मी में खोदना चाहिए ताकि कड़ी धूप से लाभ प्राप्त हो सके. गड्ढ़ों का आकार 1 × 1 × 1 सेन्टीमीटर तथा एक गड्ढे से दूसरे गड्ढे की दूरी 8 मीटर रखनी चाहिए. बूंद-बूंद सिंचाई विधि से 5 × 7 मीटर की दूरी पर सधन बाग स्थापना की जा सकती है. वर्षा शुरू होते ही इन गड्ढ़ों को दो भाग मिट्टी तथा एक भाग खाद से भर देना चाहिए, एक-दो वर्षा हो जाने पर गड्ढ़े की मिट्टी जब खूब बैठ जाए तो इनमें पौधों को लगा देना चाहिए.
खाद एवं उर्वरक
साधारणतया यह पौधा बिना खाद और पानी के भी अच्छी तरह फलता-फूलता रहता है. लेकिन अच्छी फलत प्राप्त करने के लिए इसको उचित खाद की मात्रा उचित समय पर देना आवष्यक है.
पांच वर्ष के फलदार पेड़ के लिए 375 ग्राम नत्रजन, 200 ग्राम फासफोरस एवं 375 ग्राम पोटाष की मात्रा प्रति पेड़ देनी चाहिए. चूंकि बेल में जस्ते की कमी के लक्षण पत्तियों पर आते हैं अतः जस्ते की पूर्ति के लिए 0.5 प्रतिषत जिंक सल्फेट का छिड़काव क्रमषः जुलाई, अक्टूबर और दिसम्बर में करना चाहिए.
खाद को थालों में पेड़ की जड़ से 0.75 से 1.00 मीटर दूर चारों तरफ छिड़ककर जमीन की गुड़ाई कर देनी चाहिए. खाद की मात्रा दो बार में, एक बार जुलाई-अगस्त में तथा दूसरी बार जनवरी-फरवरी में देनी चाहिए.
जल प्रबन्धन: बून्द-बून्द सिंचाई पद्धति
बेल की विकसित प्रजातियों का बूंद-बूंद सिंचाई पद्धति पर मूल्यांकन किया गया. फल वृद्धि, फल उत्पादन एवं फल गुणवत्ता के आधार पर बेल की प्रजाति नरेन्द्र बेल-5 व नरेन्द्र बेल-9 का उत्पादन बूंद-बूंद सिंचाई पद्धति पर उपयुक्त पाया गया. बूंद-बूंद सिंचाई हेतु फसल वाष्पोत्र्सजन का 70 प्रतिषत पानी 2 दिन छोड़ कर लगाना चाहिए.
फलत
बीजू पौधे रोपण के 7-8 वर्ष बाद फूलने लगते हैं. लेकिन यदि चष्में से तैयार किए गए पौधे लगाए जाएं तो उनकी फलत 4-5 वर्ष पश्चात् ही शुरू हो जाती है. बेल का पेड़ लगभग 15 वर्ष के बाद पूरी फलत में आता है. दस से पन्द्रह वर्ष पुराने पेड़ से 100-150 फल प्राप्त होते हैं. बेल के पेड़ में फूल, जून-जुलाई में आते हैं और अगले वर्ष मई-जून में पककर तैयार हो जाते हैं.
फलों का तोड़ना तथा उत्पादन
बेल का डण्ठल इतना मजबूत होता है कि फल पकने के बाद भी पेड़ पर काफी दिन तक लगे रहते हैं. कच्चे फल का रंग हरा तथा पकने पर पीला सुर्ख हो जाता है. साधारणतया ऐसा देखा जाता है कि फल का जो हिस्सा धूप की तरफ पड़ता है उस पर पीला रंग जल्दी आ जाता है और इस कारण पेड़ पर लगे फलों को पकने में असामानता आ जाती है. फल को अच्छी तरह तथा समान रूप से पका हुआ प्राप्त करने के लिए उसे पाल में पकाना चाहिए. जब फलों में पीलापन आना शुरू हो जाए उस समय उनको डण्ठल के साथ तोड़ लेना चाहिए. इनके लम्बे-लम्बे डण्ठलों को केवल 2 सेन्टीमीटर फल पर छोड़कर काट देना चाहिए और उनको टोकरियों में बेल पत्तों से ढककर कमरे के अन्दर रख देना चाहिए. इस तरह के फल 10-12 दिन में अच्छी तरह पककर तैयार हो जाते हैं. फल आकार में बड़े होने के कारण इनकी संख्या पेड़ पर कम होती है. पूर्ण फलत में आए हुए बेल से 1-1.5 क्ंवटल फल की उपज प्राप्त होती है.
रोग और कीडे़
बेल में नींबू प्रजाति के कीट एवं व्याधियों का प्रकोप प्रायः देखा जाता है. इनमें लेमन बटर फ्लाई, स्केल कीट, लीफ माइनर तथा तना सड़न (गमोसिस) प्रमुख है. निदान हेतु नींबू वर्गीय फलों हेतु दी गयी उपचार विधि को अपनायें.
लेखक
डॉ. मनीष कुमार सिंह, डॉ. योगेश सुमठाणे
डॉ. धिरेन्द्र कुमार सिंह, डॉ. यश गौतम
डॉ. सुधीर मिश्रा, सहाय्यक प्राध्यापक एवं वैज्ञानिक
बाँदा कृषि एवं प्राद्योगिकी विश्वविद्यालय, बाँदा- 210001
मो.नं. 9616386070, 7588692447
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