पादप रोगविज्ञान या फायटोपैथोलोजी शब्द की उत्पत्ति ग्रीक के तीन शब्दों जैसे पादप, रोग व ज्ञान से हुई है, जिसका शाब्दिक अर्थ है "पादप रोगों का ज्ञान (अध्ययन)"। अत: पादप रोगविज्ञान, कृषि विज्ञान, वनस्पति विज्ञान या जीव विज्ञान की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत रोगों के लक्ष्णों, कारणों, हेतु की, रोगचक्र, रागों से हानि एवं उनके नियंत्रण का अध्ययन किया जाता हैं।
उद्देश्य
इस विज्ञान के निम्नलिखित प्रमुख उद्देश्य है:
1.पादप-रोगों के संबंधित जीवित, अजीवित एवं पर्यावरणीय कारणों का अध्ययन करना ;
2.रोगजनकों द्वारा रोग विकास की अभिक्रिया का अध्ययन करना ;
3.पौधों एवं रोगजनकों के मध्य में हुई पारस्परिक क्रियाओं का अध्ययन करना;
4.रोगों की नियंत्रण विधियों को विकसित करना जिससे पौधों में उनके द्वारा होने वाली हानि न हो या कम किया जा सके।
परिचय
धान (Paddy / ओराय्ज़ा सैटिवा) एक प्रमुख फसल है जिससे चावल निकाला जाता है। यह भारत सहित एशिया एवं विश्व के बहुत से देशों का मुख्य भोजन है। विश्व में मक्का के बाद धान ही सबसे अधिक उत्पन्न होने वाला अनाज है।
ओराय्ज़ा सैटिवा (जिसका प्रचलित नाम 'एशियाई धान' है) एक पादप की जाति है। इसका सबसे छोटा जीनोम होता है (मात्र 430 एम.बी.) जो केवल 12 क्रोमोज़ोम में सीमित होता है। इसे सरलता से जेनेटिकली अंतरण करने लायक होने की क्षमता हेतु जाना जाता है। यह अनाज जीव-विज्ञान में एक मॉडल जीव माना जाता है।
धान के रोग
रोगों का विस्तार तापमान एवं अन्य जलवायु सम्बंधी कारको पर निर्भर करता है तथा साथ ही सस्य-क्रियाओं का भी प्रभाव पड़ता है। धान के मुख्य रोगों को उनके कारकों के आधार पर तीन भागों में बाँटा जाता है:
कवकीय रोग (Fungal)- कवक के कारण उत्पन्न रोग
बदरा
तनागलन
तलगलन एवं बकाने
पर्णच्छद गलन
पर्णच्छद अंगमारी
भूरी-चित्ती
जीवाणुज़ रोग (Bacterial) - जीवाणुओं के कारण उत्पन्न रोग
जीवाणुज़ पत्ती अंगमारी
जीवाणुज़ पत्ती रेखा वाइरस रोग (Virus) - वाइरस के कारण उत्पन्न रोग
टुंग्रो
कवकीय रोग (Fungal)- कवक के कारण उत्पन्न रोग
1. बदरा
कारक जीव: पिरीकुलेरिया ग्रीस्या
लक्षण : यह रोग फफूंद से फैलता है। पौधे के सभी भाग इस बीमारी द्वारा प्रभावित होते है। प्रारम्भिक अवस्था में यह रोग पत्तियों पर धब्बे के रूप में दिखाई देता है। इनके धब्बों के किनारे कत्थई रंग के तथा बीच वाला भाग राख के रंग का होता है। रोग के तेजी से आक्रमण होने पर बाली का आधार से मुड़कर लटक जाना। फलतः दाने का भराव भी पूरा नहीं हो पाता है।
नियंत्रण : उपचारित बीज ही बोयें, जुलाईके प्रथम पखवाड़े में रोपाई पूरी कर लें। देर से रोपाई करने पर झुलसा रोग के लगने की संभावना बढ़ जाती है फसल स्वच्छता, सिंचाई की नालियाँ घास रहित होना, फसल -चक्र, प्रथम फसल के अवशेषों को जलाना उपाय अपनाना । खेत में 5+2 सें.मी. पानी रखें । रोग प्रकोप के समय खेत को सूखा न रखें । संतुलित उर्वरकों का प्रयोग करें, नाइट्रोजन को तीन बार दें । क्षेत्र हेतु संस्तुत रोग रोधी किस्म का प्रमाणित बीज प्रयोग करें । फसल पर रोग के लक्षण प्रकट होने पर 0.1 प्रतिशत हिनोसान अथवा 0.1 प्रतिशत बावस्टीन अथवा 0.06 प्रतिशत बीम का छिड़काव करें ।
2. तनागलन
लक्षण : इस रोग का मुख्य लक्षण भूरे काले रंग के धब्बों के रूप में रोपाई के 2-3 सप्ताह बाद तना तथा पर्णच्छद पर पानी की सतह के पास दिखने लगता है, जो कई सें.मी. तक ऊपर-नीचे फैल जाता है । रोगी पौधे के तने को चीरने पर कपासी-सलेटी रंग के कवक जाल में काले-काले स्कलेरोशियम पाए जाते हैं । जिन खेतों में पानी देर तक ठहरता हो, उनमें पर्णच्छद पर लकीरों में छोटे-छोटे काले पेरीथोसियम बनते हैं । तना सड़ जाता है, जो खींचने पर आसानी से टूट कर उखड़ जाता है । नीचे से २-३ गाठों पर या पानी से ऊपर आपस्थानिक जड़े भी निकलती हैं । तनागलन से रोग ग्रसित पौधे आसानी से गिर जाते हैं ।
नियंत्रण: कार्बेडांज़िम अथवा थायोफेनेटमिथायिल के 0.1 प्रतिशत घोल का 2 बार अर्थात रोग लक्षण प्रकट होने के आरंम्भ तथा पुष्पन के समय फसल पर छिड़काव करने से रोग नियंत्रण में आ जाता है । नाइट्रोजन उर्वरक के साथ पोटाश उर्वरक देने से रोग-संक्रमण कम पाया गया है ।
3. तलगलन एवं बकाने
कारक: जिबरेला फयूजीकुरेई
लक्षण : रोपाई के बाद खेत में भी पौधे ऐसे ही पीले, पतले तथा लम्बे हो जाते हैं । रोगी पौधों की सभी दौजियां पीली हरी सी ही निकलती है। अधिकतर पौधे पुष्प गुच्छ निकलने एवं पकने से पहले ही मर जाते है। रोगी पौधों के निचले भागों पर बने कोनिडिया हवा द्वारा स्वस्थ पौधों के पुष्प पहुंचकर फूलों पर संक्रमण करते हैं तथा रोगग्रस्त दाने बनते है, जो अंकुरण बाद रोग के लक्षण प्रकट करते हैं । में इसी प्रकार के पतले लम्बे पौधे तथा मारता हुआ पौधादर्शाया गया है । उच्च भूमि में धान के पौधों का बिना लम्बा हुए ही तलगलन/ पदगलन के लक्षण पाए गये है । दौजियाँ निकलने या बालियां आने के बाद नमी युक्त वातावरण में तने के निचले भागों पर सफेद से गुलाबी रंग का कवक दिखाई देता है, जो क्रमशः ऊपर की ओर बढ़ता है । मौसम के अन्त में निचले पर्णच्छद का रंग नीला और बाद में काला हो जाता है, जिन पर छोटे-छोटे काले बिखरे हुए पेरीथीसियम बनते है ।
नियंत्रण: बावस्टीन द्वारा बीज उपचार (0.1 प्रतिशत घोल में 36 घंटे बीज भिगोने) को बकाने के नियंत्रण के लिए अत्याधिक प्रभावकारी(81.3 प्रतिशत नियंत्रण) पाया, इन्होंने तरावडी बासमती किस्म पर उपलब्ध सात कवकनाशियों को परखा था, जिनमें उक्त उपचार सर्वोत्तम पाया गया0.1%सेरेसान के घोल में 48 घंटे तथा इसके 0.2% घोल में 36 घंटे बीज भिगोने पर तलगलन रोग का पूर्ण नियंत्रण पाया । रोगग्रस्तक्षेत्रों में
4. पर्णच्छद गलन
कारक जीव : एक्रो सिलीड्रयम ओराइजी
लक्षण : नयी बालियों को बनने से रोकता है भूरे धब्बे भी पर्णच्छद तथा कल्लो पर पाए जाते है शुरुआत में धब्बे अनियमित 0.5-1.5 सेमी लम्बे किनारे पर भूरे जो की बाद में बड़े तथा पुरे पर्णच्छद पर फ़ैल जताए है. जब ऊपर के पर्णच्छद इससे पूर्णत प्रभावित हो जाते है तब बालिया या तो निकलती नहीं है यदि निकलती है तो दाने नहीं बनते है |
नियंत्रण : प्रतिरोधी किस्मों का चुनाव करे जैसे तणुकन , रामतुलसी, मंसूरी विष्णुभोग तथा कालानमक इत्यादि | नत्रजन का प्रयोग तिन बार करना चाहिए इसके अलावा पोटैसियम का प्रयोग दो बार करना चाहिए | बेनलेट द्वारा बीज उपचार करना चाहिए | कवकनासी बेनलेट तथा डेकोनिल की 0.2 % मात्रा का 10 दिन के अंतर पर छिडकाव करे.
5. पर्णच्छद अंगमारी
कारक जीव: राइजोक्टोनिया सोलेनी
लक्षण : पानी अथवा भूमि की सतह के पास पर्णच्छ पर रोग के प्रमुख लक्षण प्रकट होते है । पर्णच्छद पर 2 या 3 सें.मी.लम्बे हरे भूरे क्षतस्थल बनते हैं, जो बाद में पुआल के रंग के हो जाते हैं । यह धब्बा भूरी या बैंगनी भूरी पतली पट्टी से घिरा रहता है । बाद में ये क्षतस्थल बढ़कर तने को चारो ओर से घेर लेता है । अधिक एवं लम्बी अवधि तक ओंस गिरना भी इस रोग के विस्तार में सहायक है ।
नियंत्रण: सस्य क्रियाओं को उचित समय पर सम्पन्न करना तथा पिछली फसलों के अवशेषों को जलाना । आवश्यकता अनुसार नाइट्रोजन उर्वरकों का उपयोग और रोग प्रकट होने पर टाप-डैसिंग को कुछ समय हेतु स्थागित करना । घास कुल के खरपतवारों एवं निकट जलकुंभी को नष्ट करना । पुष्पगुच्छ प्रारम्भिक अवस्था से फूल आने तक 10 प्रतिशत दौजी पर लक्षण दीखते ही 0.1 प्रतिशत बावस्टीन का पर्णीय छिड़काव करना । खरपतवारनाशी प्रोपेनिल (Propanil) के उपयोग से भी पर्याप्त सहायता मिलती है, क्योंकि इससे फसल में खरपतवार विनिष्ट होते हैं और कवक-संक्रमण से फसल बचती है ।
6. भूरी चित्ती रोग
कारक: हेल्मिन्थोस्पोरियम ओराईज़ी
लक्षण:चोल (Coleoptile), पत्तियों, पर्णच्छद तथा तूष(Glumes) पर पाए जाते हैं । धब्बा, छोट ,भूरातथा गोलाई लिए होता है ।यह बहुत छोटी बिंदी से लेकर गोल आंख के आकार का गाढ़ा भूरा या बैंगनी भूरा होता है परन्तु बीच का भाग पीलापन लिए गंदा सफेद धूसररंग का होता है । धब्बे आपस में मिलाकर बड़े हो जाते हैं तथा पत्तियों कोसुखा देते हैं । उग्र सक्रमण में बालियाँ बाहर नहीं निकल पाती ।
नियंत्रण: बीजों को थीरम एवं कार्बेन्डाजिम (2:1) की उग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करके बोना चाहिए। रोग सहनशी किस्मों जैसे- बाला, कृष्णा, कुसुमा, कावेरी, रासी, जगन्नाथ और आई आर 36, 42, आदि का व्यवहार करें। रोग दिखाई देने पर मैन्कोजैव के 0.25 प्रतिशत घोल के 2-3 छिड़काव 10-12 दिनों के अन्तराल पर करना चाहिए। अनुशंसित नेत्रजन की मात्रा ही खेत मे डाले। बीज को बेविस्टीन 2 ग्राम या कैप्टान 2.5 ग्राम नामक दवा से प्रति किलोग्राम बीज की दर से बुआई से पहले उपचारित कर लेना चाहिए। खड़ी फसल में इण्डोफिल एम-45 की 2.5 किलोग्राम मात्रा को 1000 लीटर पानी मे घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव 15 दिनों के अन्तर पर करें। रोगी पौधों के अवशेषों और घासों को नष्ट कर दें।
मिट्टी मे पोटाश, फास्फोरस, मैगनीज और चूने का व्यवहार उचित मात्रा मे करना चाहिए।
जीवाणुज़ रोग (Bacterial) - जीवाणुओं के कारण उत्पन्न रोग
1. जीवाणुज़ पत्ती अंगमारी कारक: जैन्थोमोनास ओराइज़ी
लक्षण: जिसमें पीले या पुआल के रंग के लहरदार क्षतिग्रस्त स्थल पत्तियों के एक या दोनों किनारों के सिरे से प्रारम्भ होकर नीचे की ओर बढ़ते हैं और अन्त में पत्तियाँ सूख जाती हैं । गहन संक्रमण की स्थिति में रोग पौधों के सभी अंगों जैसे पर्णाच्छद, तना एवं दौजी को सूखा देता है । क्रेसक अवस्था में पौधों में संक्रमण पौदशाला से ही अथवा पौद लगाने के तुरन्त बाद प्रारम्भ से ही सर्वागीं हो जाता है । तना चीरने पर जीवाणुज़ से द्रव मिलता है । पश्चात् पत्तियाँ लिपटकर नीचे की ओर झुक जाती हैं । रोग की उग्र स्थिति में पौधे मर जाते हैं । जस्ता देने से इस रोग की क्रेसक अवस्था में कमी होती है ।
नियंत्रण: रोग रोधी किस्म का चुनाव रोग नियंत्रण का सर्वोत्तम उपाय है संतुलित उर्वरकों का उपयोग करें तथा समय-समय पर पानी निकालते रहें ।
रोग के लक्षण प्रकट होने पर 75 ग्राम एग्रीमाइसीन-100 और 500 ग्राम ब्लाइटाक्स का 500 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हैक्टर छिड़काव करें, 11 से 12 दिन के अंतर पर आवश्यकतानुसार दूसरा एवं तीसरा छिड़काव करें ।
2. जीवाणुज़ पत्ती रेखा (Bacterial Leaf Streak)
कारक: जैन्थोमोनास ओराइज़ी पीवी. ओराइज़िकोला
लक्षण:
पत्तियों के अंतरा शिरा भाग में सूची शीर्ष के समान सूक्ष्म पानी भीगा पर भासक स्थान स्पष्ट होता है । ये धारियां शिराओं से घिरी रहती हैं और पीली या नारंगी कत्थई रंग की हो जाती हैं । मोती की तरह छोटे-छोटे पीले से गंदे सफेद रंग के जीवाणुज़ पदार्थ धारियों पर पाए जाते हैं, जो पत्तियों की दोनों सतहों पर होते हैं । कई धरियां आपस में मिलकर बड़े धब्बों का रूप ले लेती हैं, जिससे पत्तियाँ समय से पूर्व सूख जाती हैं । पर्णच्छद भी संक्रमित होता है, जिस पर पत्तियों के समान ही लक्षण प्रकट होते हैं ।
नियंत्रण: बीज प्रमाणित स्रोत से लिया जाय । क्षेत्र के अनुसार रोग रोधी किस्मों का चुनाव करें । बीज को 2.5 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन या 3 ग्राम एग्रीमाइसीन-100 का 10 लीटर पानी के घोल में 12 घन्टे भिगोएं या 50 से. गर्म पानी में 30 मिनट रखकर उपचारित करें । रोग लक्षण प्रकट होने पर 12 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लिन या 75 ग्रा. एग्रीमाइसीन 100 प्रति हैक्टर की दर से छिड़काव करें । आवश्यक हो तो 10 से 12 दिन बाद दूसरा छिड़काव करें ।
वाइरस रोग (Virus) - वाइरस के कारण उत्पन्न रोग
1. टुंग्रो कारक: टुंग्रो वाइरस
लक्षण: रोग-ग्राही किस्मों की पत्तियों का रंग संतरे के रंग का या भूरा पीला हो जाता है, जबकि अपेक्षाकृत कम रोगग्राही किस्मों की पत्तियों का रंग हल्का पीला होता है । प्रारम्भ में संक्रमण होने पर पौधे छोटे रहेगें, जबकि, बाद के संक्रमण में पौधे की लम्बाई पर उतना प्रभाव नहीं पड़ता । पत्तियों का बदरंगापन प्रायः सिरे से आरम्भ होकर नीचे की ओर बढ़ता है । रोग्रस्त पौधों की कोमल पत्तियों पर शिराओं के समानान्तर पीले हरे से लेकर सफेद रंग की धारिया बनती हैं । रोग ग्रस्त पौधों में बालियां देर से तथा छोटी निकलती हैं, जिनमें दाने नहीं होते अथवा बहुत हल्के होते हैं । दानों के ऊपर गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं ।
नियंत्रण: केवल रोग रोधी किस्में ही उगाएं । धान की कटाई के बाद डठलों तथा दौजियों को नष्ट कर दें और धान की पेडी (Ratoon) फसल न उगाएँ । पौदशाला में बिजाई से पूर्व 30 से 35 कि.ग्रा. कार्बोफ्यूरान 3 जी. अथवा 12 से 15 कि.ग्रा. फोरेट 10 जी प्रति हैक्टर ऊपरी 2 से 3 सें.मी. मिट्टी में मिला दें । बिजाई के 15 से 25 दिन बाद मोनोक्रोटोफास ३६ ई.सी. अथवा कार्बेरिल 50 डब्ल्यू. पी. अथवा फोस्फेमिडोन 85 डब्ल्यू. एस.सी.को0.5 कि.ग्रा.ए.आई. प्रति हैक्टर छिड़काव करें । इन उपायों से हरा तेला नियंत्रित किया जा सकेगा । प्रारम्भ में दिखाई देने वाले रोगग्रस्त पौधों को उखाड़कर जला दें, ऐसा करना संक्रमण का आधार समाप्त होने में सहायक होगा ।
लेखक :
डॉ. हुमा नाज़ (शोध सहयोगी), पादप संगरोध विभाग, वनस्पति संरक्षण, संगरोध एवं संग्रह निदेशालय, फरीदाबाद, हरियाणा, भारत
डॉ. हादी हुसैन ख़ान (शोध सहयोगी), कीट विज्ञान विभाग, क्षेत्रीय वनस्पति संगरोध केन्द्र अमृतसर, पंजाब, भारत
पुष्पेंद्र सिंह साहू (एम.एस.सी. एग्रीकल्चर), कीट विज्ञान विभाग, शुआट्स, इलाहाबाद, भारत
Share your comments