पपीता में कई विषाणु रोग लगते है लेकिन प्रमुख है पपीता का रिंग स्पॉट विषाणु रोग एवं पपीता का पत्रकुंचन विषाणु रोग. पपीता का रिंग स्पॉट विषाणु रोग, पपीता का सबसे खतरनाक रोग है जो सभी पपीता उत्पादक देशों में पाया जाता है, अफ्रीका को छोड़कर. इस रोग के कई नाम है जैसे- पपीता का डिस्टारशन रिंग स्पाट या मोजैक. इस रोग के विषाणु कैरीकेसी कुकुरबिटेसी एवं चेनोपोडीएसी कुल के पौधों पर ही पाये जाते हैं. रोग से बचाव के लिए सहिष्णु प्रजातियों, एफिड नियंत्रण, नेट हाउस उपयोग, और उचित कृषि तकनीकों पर जोर दिया गया है. रोग की रोकथाम और उपज बढ़ाने के स्थाई समाधान पर भी चर्चा की गई है.
लक्षण
- यह रोग PRV-P वायरस के कारण होता है, जो कई प्रकार का होता है, इसलिए इसकी गंभीरता बदलती रहती है. इस रोग में पत्तियों पर गहरे हरे रंग के धंसे हुए धब्बे बनते हैं. इसे "रिंग" के जरिए पहचाना जा सकता है, जो फलों पर अधिक स्पष्ट दिखते हैं. जैसे-जैसे फल पकते और पीले होते हैं, रिंग धुंधले हो जाते हैं. रोगग्रस्त फलों में टेढ़ापन आ जाता है.
- रोग के शुरुआती लक्षणों में ऊपरी दूसरी या तीसरी पत्ती का पीला होना शामिल है. पत्तियों पर मोज़ेक पैटर्न और नसें स्पष्ट दिखती हैं. पत्तियां कट-फटी और कमजोर नजर आती हैं. गंभीर स्थिति में पत्तियां पतले धागों जैसी हो जाती हैं. तनों और डंठलों पर तैलीय खरोंच जैसे निशान भी दिख सकते हैं.
- यह रोग पत्तियों, डंठलों और संक्रमित पौधों को सामान्य पौधों की तुलना में छोटा और कभी-कभी बौना बना देता है. यह पपीते के सभी उम्र के पौधों को प्रभावित करता है. एफिड नामक कीट इस वायरस को स्वस्थ पौधों तक पहुंचाते हैं. संक्रमण के 2-3 सप्ताह बाद लक्षण दिखाई देते हैं. यदि यह रोग कम उम्र में ही पपीते के पौधों को प्रभावित कर दे, तो उनमें फल नहीं लगते, लेकिन वे तुरंत नहीं मरते.
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PRV-P का जीव विज्ञान
इस रोग के विषाणु जम्बे, घुमावदार, डण्डे जैसे कण होते हैं, जो 800-900 एमएम लम्बे होते हैं. इस विषाणु के कण का एफिड की विभिन्न प्रजातियों द्वारा रोगग्रस्त पौधे से स्वस्थ पौधों संचरण तक होता है. पपीता के रिंग स्पॉट विषाणु को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है यथा PRV-P एवं PRV-W . PRV-P नामक विषाणु पपीता के अतिरिक्त कद्दूकुल के अन्य पौधों को भी इस रोग से आक्रान्त कर सकते हैं, जबकि PRV-W केवल कद्दूकुल के पौधों को ही आक्रान्त कर सकता है. इससे पपीता आक्रान्त नहीं होता है. PRSV की इन दोनों प्रभेदों को Serologically अलग नहीं किया जा सकता है. इन्हें इनके परपोषी द्वारा ही अलग-अलग पहचाना जा सकता है.
रोग का प्रसार
- यह रोग एफिड कीटों की अलग-अलग प्रजातियों के माध्यम से फैलता है. जब एफिड संक्रमित पपीते के पौधे का रस चूसता है, तो वायरस उसके मुंह में चला जाता है. यह प्रक्रिया केवल कुछ सेकंड में पूरी हो जाती है. इसके बाद जब वही एफिड स्वस्थ पौधे पर बैठता है, तो वह वायरस को उसमें प्रवेश करा देता है और पौधा संक्रमित हो जाता है. यह पूरा चक्र बहुत तेज़ी से होता है. यदि इस प्रक्रिया में अधिक समय लगे, तो वायरस की संक्रमण फैलाने की क्षमता कम हो जाती है.
- यह रोग सिर्फ एफिड द्वारा फैलता है और किसी अन्य कीट से नहीं. वायरस न तो मिट्टी में जीवित रह सकता है और न ही मृत पपीते के पौधों में. यह रोग बीज से भी नहीं फैलता. हालांकि, संक्रमित पौधों को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने पर यह रोग फैल सकता है. एक बार पौधा इस रोग से संक्रमित हो जाए, तो इसे ठीक करना संभव नहीं है.
वायरस संचरण
- एफिड नामक कीट पौधों का रस चूसता है और कई प्रकार की बीमारियों का संवाहक होता है. सीधे तौर पर एफिड से पौधों को उतना नुकसान नहीं होता जितना इसके द्वारा फैलाए गए रोगों से होता है. पपीते के रिंग स्पॉट वायरस के मामले में भी यही सच है. जब एफिड संक्रमित पौधे से रस चूसता है, तो वायरस उसके मुंह में चला जाता है. इसके बाद जब वही एफिड स्वस्थ पौधे का रस चूसता है, तो वह वायरस को उसमें पहुंचा देता है. यह पूरी प्रक्रिया एक मिनट से भी कम समय में पूरी हो जाती है.
- एफिड की मादा सीधे नवजात निम्फ (अपरिपक्व एफिड) को जन्म दे सकती है और हर दिन 8-10 निम्फ पैदा कर सकती है. इस तरह एक साल में एफिड की कई पीढ़ियां बन सकती हैं. पपीते की रिंग स्पॉट बीमारी, जो रिंग स्पॉट वायरस से होती है, सभी पपीता उत्पादक देशों में सबसे घातक बीमारी मानी जाती है. इसका फैलाव मुख्य रूप से एफिड की अलग-अलग प्रजातियों द्वारा होता है.
पपीता का पत्रकुंचन विषाणु रोग
यह रोग Geminivims द्वारा होता है, इसमें पत्तियों के शीर्ष भाग पूर्ण रूप से नीचे की ओर मुड़ जाते हैं जिनकी वजह से न तो पौधों में बढ़वार हो पाती है, न ही उन पर फल लग पाते हैं. पत्तियों के डंठल भी विकृत हो जाते हैं. पत्तियां और उनकी नसें मोटी हो जाती हैं. प्रभावित पत्तियां कटी-फटी एवं चमड़े जैसी मोटी हो जाती है. इस रोग से आक्रान्त पेड़ में फल नहीं लगते हैं यदि फल लग भी गये तो समय पूर्व गिर जाते हैं, पत्तियां गिर जाती हैं. पौधों की वृद्धि रूक जाती है. लगभग 70% तक यह रोग सफेद मक्खी द्वारा फैलाया जाता है.
पपीता में लगने वाले विषाणुजनित रोगों का प्रबंधन
- पपीता रिंग स्पाट विषाणु रोग से सहिष्णु पपीता की प्रजातियों को उगाना चाहिए. राजेन्द्र कृषि विश्वविद्यालय में पपीता की विभिन्न प्रजातियों का परीक्षण इस बीमारी के विरूद्ध किया गया एवं पाया गया कि पूसा ड्वार्फ प्रजाति सभी प्रजातियों में सर्वश्रेष्ठ है. बीमारी के बावजूद उन्नत कृषि के द्वारा प्रथम वर्ष 45-55 कि0ग्रा0/ पौधा बाजार योग्य फल लिया जा सकता है.
- नेट हाउस/पाली हाउस में बिचड़ा उगाना चाहिए जो इस रोग से मुक्त हो. क्योंकि नेट हाउस/ पाली हाउस में एफिड को आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है.
- बिचड़ों की रोपाई ऐसे समय करनी चाहिए जब पंख वाले एफिड न हों या बहुत कम हो क्योंकि इन्हीं के द्वारा इस रोग का फैलाव होता है. प्रयोगों द्वारा पाया गया है कि बिहार में मार्च अप्रैल एवं सितम्बर-अक्टूबर रोपाई हेतु सर्वोत्तम है.
- पपीता को छोटी-छोटी क्यारियों में लगाना चाहिए एवं क्यारियों के मेंड़ पर ज्वार, बाजड़ा, मक्का या ढैंचा इत्यादि लगाना चाहिए ऐसा करने से एफिड को एक क्यारी से दूसरे क्यारी में जाने में बाधा उत्पन्न होता है इसी क्रम में एफिड के मुंह में पड़ा विषाणु का कण के अन्दर रोग उत्पन्न करने की क्षमता में कमी आती है या समाप्त हो जाती है.
- जैसे-ही कहीं भी रोगग्रस्त पौधा दिखाई दे तुरन्त उसे उखाड़ कर जला दें या गाड़ दें, नहीं तो यह रोग उत्पन्न करने में स्रोत का कार्य करेगा.
- एफिड को नियंत्रित करना अत्यावश्यक है क्योंकि एफिड के द्वारा ही इस रोग का फैलाव होता है. इसके लिए आवश्यक है कि इमीडाक्लोप्रीड 1 मि0ली0/ 2 लीटर पानी में घोलकर निश्चित अन्तराल पर छिड़काव करते रहना चाहिए.
- पपीता को वार्षिक फसल के तौर पर उगाना चाहिए. ऐसा करने से इस रोग के निवेशद्रव्य में कमी आती है तथा रोगचक्र टूटता है. बहुवर्षीय रूप में पपीता की खेती नहीं करनी चाहिए.
- पपीता की खेती उच्च कार्बनिक मृदा में करने से भी इस रोग की उग्रता में कमी आती है.
- मृदा का परीक्षण कराने के उपरान्त जिंक एवं बोरान की कमी को अवश्य दूर करना चाहिए, ऐसा करने से फल सामान्य एवं सुडौल प्राप्त होते हैं.
- नवजात पौधों को सिल्वर एवं काले रंग के प्लास्टिक फिल्म से मल्चिंग करने से पंख वाले एफिड पलायन कर जाते हैं जिससे खेत में लगा पपीता इस रोग से आक्रान्त होने से बच जाता है.
- उपरोक्त सभी उपाय अस्थाई है, इससे इस रोग की उग्रता को केवल कम किया जा सकता है समाप्त नहीं किया जा सकता है. इन उपायों को करने से रोग, देर से दिखाई देता है. फसल जितनी देर से इस रोग से आक्रान्त होगी उपज उतनी ही अच्छी प्राप्त होगी.
- इस रोग का स्थाई उपाय ट्रांसजेनिक पौधों का विकास है. इस दिशा में देश में कार्य आरम्भ हो चुका है. विदेशों में विकसित ट्रांसजेनिक पौधों को यहां पर ला कर उगाया गया, तब ये पौधे रोगरोधिता प्रदर्शित नहीं कर सकें.
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