केला, आम के बाद भारत का दूसरा महत्वपूर्ण फल है यह अपनी वर्षभर उपलब्धता, किस्मों की रेंज, स्वाद, पोषण एवं औषधीय गुणों के कारण समाज के सभी वर्गों की खास पसंद है. इसका निर्यात भी अच्छे स्तर पर किया जाता है. केले की आधुनिक विधि से खेती करना आर्थिक रूप से लाभकारी है क्योंकि इसकी उत्पादकता, गुणवत्ता में वृद्धि होती है और फल जल्दी पकते हैं जिसके कारण बाजार में अच्छे दाम मिलते हैं.
उत्पत्ति : केला आद्र कटिबंधीय क्षेत्रों जिसमें भारत और दक्षिणी पूर्वी एशिया के देशों को इसका उद्गम स्थल माना जाता है. आधुनिक खाने योग्य किस्मों को केले की दो प्रजातियों मूसा एक्युमिनाटा और मूसा बालबिसियाना से प्राप्त की गयी है. सातवी शताब्दी में इसकी खेती मिस्र और अफ्रीका में भी फ़ैल गयी. वतर्मान में केले को उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों (भूमध्य रेखा से 30 उत्तर व 30 डिग्री दक्षिण में) में उगाया जाता है.
क्षेत्रफल एवं उत्पादन : केले की खेती लगभग 120 देशों में की जाती है और इसका विश्व का वार्षिक उत्पादन लगभग 86 मिलियन टन है. भारत लगभग 14.2 मिलियन टन उत्पादन के साथ विश्व में प्रथम स्थान रखता है. इसके अन्य मुख्य उत्पादक देश ब्राजील, चीन, फिलीपींस, इंडोनेशिया, मैक्सिको, थाईलैंड आदि हैं.
भारत में अन्य फलों के मुकाबले उत्पादन में प्रथम और क्षेत्रफल में तीसरे स्थान पर आता है. फलों के अंतर्गत क्षेत्रफल का 13 प्रतिशत एवं उत्पादन का 33 प्रतिशत योगदान है. राज्यवार देखा जाए तो महाराष्ट्र प्रथम, तमिलनाडु दूसरा और अन्य प्रमुख राज्यों में कर्नाटक,गुजरात, आँध्रप्रदेश और असम हैं.
आर्थिक महत्व : केला का फल कम दाम और अधिक पोषण महत्व के कारण अपनी अलग पहचान रखता है. केले में कार्बोहाइड्रेट और विटामिन बी प्रचुर मात्रा में पाए जाते है. यह पोटेशियम, कैल्शियम, फोस्फोरस और मैग्नीशियम का अच्छा स्त्रोत है. यह फल जल्दी पचने वाला, वसा और कोलेस्ट्रोल से मुक्त है. केले का पाउडर बच्चो के खाने के काम आता है. यह दिल की बिमारियों, उच्च रक्तचाप, नाडीयों में दर्द, अल्सर, गुर्दे बिमारियों वाले मरीजो के लिए फायदेमंद है.
केले से चिप्स, प्यूरी, जैम, जैली, जूस, वाईन और हलवा भी बनाया जाता है. इसके तने के अंदरूनी भाग को सब्जी के रूप भी इस्तेमाल भी किया जाता है. कच्चे केले की सब्जी स्टार्च में इतनी ही भरपूर होती है जितनी की आलू की. केले के तने के रेशों से बैग, पॉट्स और दिवार हंगेर बनाए जाते हैं, केले के अवशेषों से अच्छी गुणवत्ता वाला कागज और रस्सी बनायीं जाती है. केले की पत्तियों को स्वच्छ प्लेट की तरह से इस्तेमाल किया जाता है.
बाजार विश्लेषण एवं रणनीति :
मांग एवं पूर्ती का स्वरुप : केले के कुल उत्पादन का 0.05 प्रतिशत ही निर्यात किया जाता है शेष मात्रा देश में ही खपत जाती है, विगत वर्षों में केले का व्यापार अनियंत्रित था. उत्पादक से उपभोक्ता के बीच चार से पांच मध्यस्थ मार्केटिंग चेन में आम पाए जाते थे इसकी वजह से उत्पादक को अच्छा भाव नहीं मिल पाता था. वर्ष 2002 में महाराष्ट्र के कृषि विपणन बोर्ड ने महाबनाना के नाम से किसानों की एक मार्केटिंग संस्था बनायीं, जिसका मुख्यालय जलगाँव रखा गया. इसके अंतर्गत 26 सहकारी समितियां पंजीकृत है और प्रत्येक समिति में 300 से 350 छोटे और मझोले किसान सदस्य हैं.
यह संस्था निर्यात और घरेलू बाजार के लिए विपणन के लिए बनायीं गयी. यह अपने सदस्यों की गुणवत्तायुक्त प्लांटिंग सामग्री मुहैया कराती है. पौधे लगाने से लेकर विपणन तक की सभी प्रक्रियाओं के बारे में प्रशिक्षण एवं सलाह देती है. कूलिंग चैम्बर, कोल्ड स्टोरेज एवं आधुनिक पैक हाउस की सुविधा भी देती है. जलगाँव जिले ने केला उद्योग को व्यवस्थित करने का रास्ता दिखाया. महाराष्ट्र से अब 12 से 15 हजार वैगन प्रत्येक वर्ष हिमाचल, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में भेजी जाती है और पडोसी राज्यों को भी अच्छी मात्र में माल भेजा जाता है. नई दिल्ली आजादपुर की मंडी केले के लिए एशिया की सबसे बड़ी और विश्व की दूसरी बड़ी मंडी मानी जाती है. आजादपुर रेलवे स्टेशन को इसी लिए सब्सिडरी यार्ड घोषित किया गया जहाँ से की केला उतारने के बाद अन्य स्थानों पर भेजा जाता है.
उत्पादन तकनीकी :
कृषि वातावरणीय आवश्यकताए : केले की फसल को 15 से 35 डिग्री सेल्सियस तापमान और 75 से 85 प्रतिशत आद्रता की आवश्यकता होती है. 12 डिग्री सेंटीग्रेट से तापमान निचे आने पर इसकी फसल को काफी नुकसान होता है. मानसून के महीनों में 650 से 750 मिलीमीटर वर्षा इसके विकास के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होती है. ऊँचे इलाकों में हिल बनाना के अलावा कोई और किस्मों को उगाने की सलाह नही दी जाती है.
मिट्टी का पीएच. 6.50 से 7.50 होना चाहिए तथा पानी के उचित निकास का प्रबंध होना चाहिए. लवणीय मिटटी इसकी खेती के लिए उपयुक्त नहीं होती. इसकी खेती को करने के लिए नाईट्रोजन, फोस्फोरस और पोटाश की उचित मात्रा होनी चाहिए.
मुख्य किस्में : केले की मुख्यय प्रजातियों में ड्वार्फ कैवेंडिस, रोबस्टा, मोंथान, पूवन, नेंद्रण, रेड बनाना, नियाली, सफ़ेद वेलची, बसराज, अर्धापूरी, रस्थ्ली, कार्पूरवल्ली, कर्थाली और ग्रांड नेने आदि. ग्ग्रांड नेने इजराईल से आयात की गयी किस्म है जो की आजकल लोगो की पसंद बनी हुयी है. यह किस्म पर्यावरणीय उतार-चढाव की प्रतिरोधक क्षमता रखती है. इसके फल पीले रंग के अच्छी शेल्फ लाइफ और एक समान पीले रंग के कारण अन्य किस्मों से बेहतर है. अलग –अलग राज्यों के लिए विशेष किस्म ही अनुमोदित की जाती है, जिसके लिए राज्य औद्यानिकी विभाग से किसानों को संपर्क करना चाहिए.
भूमि की तैयारी : खेत को तीन-चार बार गहरी जुताई करके अच्छी सडी हुयी कम्पोस्ट खाद की 10 टन मात्रा प्रति हेक्टेयर अच्छी तरह मिलाये या 10 से 15 किलों कम्पोस्ट 60X60X60 सेमी. के गड्ढे में मिटटी के साथ अच्छी तरह से मिलाए.
सकर्स का चुनाव :
- बड़े बल्ब जो संकरी तलवार रुपी पत्ती के सकर्स का चुनाव करे जो ऐसे मदर प्लांट से लिए गए हों जो वायरस, फफूंदी और बैक्टीरिया से मुक्त हों.
- नेंद्रण, रस्थली, पूवन केले किस्मों के सकर्स 3 से 5 महीने 1 आकार के और 1 से 1.50 किलो के होने चाहिए.
- लम्बे समय की किस्मों जैसे कर्पूरावाल्ली और रेड बनाना के सकर्स का वजन 1.50 से 2.00 किलो होना चाहिए.
- टिश्यूकल्चर पौधे लगाने के समय यह बात ध्यान में रखना चाहिए कि वह सही से सख्त बनाए गए हों और उनकी लम्बाई 30 सेमी. तना 5 सेमी.और पांच पत्तियाँ पूरी खुली हों.
सकर्स को लगाना और उनका उपचार :
- चुने गए सकर्स की जड़ें सही से साफ़ होनी चाहिए और बल्ब के गले हुए हिस्से को अलग कर देना चाहिए.
- इन सकर्स को 0.2 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम के घोल से 15 से 20 मिनट तक उपचारित करना चाहिए.
- उपचारित सकर्स को पूरी रात छाया में रखना चाहिए और गड्ढों में लगाकर सही से मिटटी को दबा देना चाहिए.
- प्रत्येक गड्ढे में 40 ग्राम कार्बोफ्युरान की मात्रा निमाटोड़ से बचाव के लिए डालना चाहिए और खेत की सिंचाई कर देनी चाहिए.
- टिश्यूकल्चर पौधों को लगाने से एक हफ्ते पहले उनके पोलीथिन बैग को 10 ग्राम कार्बोफ्युरोन डालना चाहिए और 1 प्रतिशत ब्लीचिंग पाउडर या 0.2 प्रतिशत इमिशान को 100 मिली.पानी में मिलाकर डालना चाहिए .
मासिक कार्य-विधि :
प्रथम माह :
- पौधों के आस-पास की मिटटी को मजबूती से दबाना चाहिए ताकि पौधे सही तरीके से पकड़ कर सकें.
- बिना अंकुरण वाले और गले हुए सकर्स की जगह नए सकर्स लगाने चाहिए और खाली खेत में हरी खाद की फसलों की बुवाई कर देनी चाहिए .
- अतिरिक्त आय के लिए कम समय में तैयार होने वाली फसलों जैसे प्याज चना, उडद, मूली, गेंदा आदि को साथ में उगाना चाहिए. याद रहे कि केले के बीच में टमाटर मिर्च और बेल वाली फसलों को नही उगाना चाहिए क्योंकि ये फसलें नीमाटोड और एफिड का गढ़ होती है जो कि वायरस के फ़ैलाने में मदद करती है.
दूसरा माह :
- हरी खाद की फसलों को 40 दिन की अवस्था में जोत कर मिटटी में मिला देना चाहिए.
- पौधों के चारो तरफ खुदाई करके मिटटी चढ़ा देनी चाहिए.
- उकठा रोग के नियंत्रण के लिए पौधों को 0.2 प्रतिशत कार्बेन्डाजिम के घोल वाला पानी लगाना चाहिए या 30 ग्राम ट्राईकोडर्मा 1 किग्रा. कम्पोस्ट में मिलाकर प्रत्येक पौधा मिटटी में मिला देना चाहिए.
तीसरा माह :
- निमाटोड के नियंत्रण के लिए 40 ग्राम कार्बोफ्युरोन प्रति पौधा देना चाहिए.
- निराई-गुडाई करनी चाहिए.
- 100 ग्राम यूरिया 300 सुपरफॉस्फेट, 100 म्यूरेटऑफ़ पोटाश की पहली मात्रा पौधे से 30 सेमी. की दूरी पर देना चाहिए.
चौथा माह :
- एजोस्पिरिलम और फोस्फोबैक्टीरिया की 30 ग्राम और ट्राईकोडर्मा विरडी को 5 से 10 किलोग्राम कम्पोस्ट में मिलाकर प्रति पौधा देना चाहिए.
- ध्यान रहे कि रासायनिक खादों और जैविक खादों के प्रयोग के बीच कम से कम दौ से तीन हफ़्तों का अंतर होना चाहिए .
- साईड से उगने वाले सकर्स को जमीनीस्तर से काटकर दो मिली. मिटटी तेल को उनकी मध्य मज्जा पर डालना चाहिए ताकि वो फिर से ना उगे.
- अगर खेत में वायरस से ग्रस्त पौधे नजर आतें हैं तो उनको उखाड़ कर नष्ट कर दें और किसी भी अंतरवाही कीटनाशक का वायरस फैलाने वाले कीड़ों के बचाव के लिए स्प्रे करें.
पांचवा माह :
- यूरिया की 150 ग्राम, म्यूरेट ऑफ़ पोटाश की 150 ग्राम और नीम की खली 300 ग्राम पौधे से 45 सेमी. दूर बनी नालियों में प्रति पौधा डालना चाहिए.
- सूखी पत्तियों को हटा दें और निराई-गुडाई करें.
- सूक्ष्म तत्वों की कमी को दूर करने के लिए कृषि लाइम 50 ग्राम 25 ग्राम मैग्नीशियम सल्फेट प्रति पौधा दें.
- कार्बेन्डाज़िम 0.2 प्रतिशत का घोल पुन: प्रयोग करें.
- स्टेम विविल के बचाव के लिए निमोसोल 12.5 मिली. प्रतिलीटर या क्लोरोपाईरीफोस 2.50 मिली. प्रतिलिटर के हिसाब से तनो पर स्प्रे करें .
- बल्ब और स्टेम विविल की जाँच के लिए 40 ट्रैप प्रति एकड़ विभिन्न स्थानों पर लगाए और पकडे गए विविल्स को खत्म करने के लिए उनको मिटटी तेल में डाल दें.
- खेत के चारों तरफ के खरपतवारों को नष्ट करें और कीड़ों की रोकथाम के लिए अंतरवाही कीटनाशको का स्प्रे करें.
छटवां माह :
- पेड़ों के चारों तरफ खुदाई करके मिटटी चढ़ाएं और सूखी और बीमार पत्तियों की हटा दें.
- सीगाटोका पत्ती बीमारी के लिए 0.1 प्रतिशत प्रोपीकोनाजोल का सर्दियों के महीने में स्प्रे करें.
- पत्तियों का पीलापन जो कि लोहे की कमी से होता है के लिए 0.5 प्रतिशत फेरस सल्फेट और 1 प्रतिशत यूरिया का स्प्रे करें. जिंक की कमी को दूर करने के लिए 0.5 प्रतिशत जिंक सल्फेट का का इस्तेमाल करें और बोरोन की कमी के लिए 0.5 प्रतिशत बोरेक्स का इस्तेमाल करें.
- उकठा रोग से बचाव के लिए 30 ग्राम ट्राईकोडर्मा विरिडी को मिटटी में मिलाये.
- स्टेम विविल के अघात को रोकने के लिए 150 मिली. मोनोक्रोटोफोस को 350 मिली. पानी में मिलाकर बनाये गए घोल का 2 मिली. इंजेक्शन द्वारा 2 और 4 फीट की ऊंचाई पर विपरीत दिशाओं में दवाई को पहुंचाएं.
सातवाँ माह :
- खाद की तीसरी मात्रा के रूप में 150 ग्राम यूरिया और 150 ग्राम म्यूरेट ऑफ़ पोटाश को पौधे से 60 सेमी. दूर बनी नालियों में दे.
- सूखी और रोग ग्रसित पत्तियों को हटा दें और 0.1 प्रतिशत कार्बेन्डाज़िम या कैलिक्सीन का स्प्रे करें.
- पुन: साईड में आये हुए सकर्स को काट दें और मिटटी तेल डालें.
- पुन: 2 और 4 फीट की ऊँचाई पर 2 मिली. मोनोक्रोटोफोस का घोल तने में इंजेक्शन द्वारा दें.
आठवां माह :
- फूल आने की अवस्था में केवल एक स्वस्थ साइड सकर को पड़ी के रूप में छोड़ दें बाकी को काट दें.
- आखिरी बंच आने की अवस्था में नर कली को 15 सेमी. की दूरी से हटा देना चाहिए.
- सिगार एंड रोट बीमारी से बचाव के लिए केले की ऊँगली बनने के बाद उसके जायांग को सावधानी से हटा देना चाहिए और मैन्कोजेब 2.5 मिली. प्रतिलिटर पानी के हिसाब से बंच पर स्प्रे करना चाहिए.
- 20 ग्राम पोटेशियम सल्फेट प्रतिलिटर पानी में मिलाकर बंच को पूरी तरह भिगो देना चाहिए और इसको 100 गेज मोटी सफ़ेद या नीली पोलीथिन से ऐसे ढकना चाहिए कि सिर्फ छ: प्रतिशत हवा का आवागमन रहे.
नौवा माह :
- पुन: दो प्रतिशत पोटेशियम सल्फेट से बंच को भिगोये.
- किसी लट्ठे या बांस की मदद से पौधों को सहायता दें ताकि बंच की वजह से पौधे गिर न जायें.
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